आरंभ में ही यह स्पष्ट कर लिया जाए। खालिस्तानी उग्रवादियों हरदीप सिंह निज्जर और गुरपतवंत सिंह पन्नू के मामलों में कनाडा और अमेरिका, तथा प्रकारांतर में फाइव आईज संधि के सदस्य अन्य तीन देशों (ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड) के रुख का संबंध नैतिकता, कानून के राज एवं अपने नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा, या “नियम आधारित” अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर अमल से कतई नहीं है। खुद ये देश व्यवहार में ऐसी घोषणाओं का जितना उल्लंघन करते हैं, वैसी मिसालें कहीं ढूंढ़ना मुश्किल ही है।
- जो देश इसी समय फिलस्तीनियों के मानव संहार में इजराइल को कूटनीतिक समर्थन के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र की भी खुलेआम सहायता दे रहे हों, वे किसी ऊंचे आदर्श की बात करें, तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा।
- फिलस्तीनियों के समर्थन में अभियान चलाने वाले अपने देशवासियों की नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन जिस तरह इन देशों ने किया है, उसके बीच अभिव्यक्ति या अन्य लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के प्रति उनकी निष्ठा जताना कम दोमुंहापन नहीं है।
- इजराइल की खुफिया एजेंसियां जब दूसरे देशों के अंदर घुस कर अपने विरोधियों की हत्या करती हैं, तो उस पर खुलेआम उत्साह जताने वाले जो बाइडेन, जस्टिन ट्रुडो या कियर स्टार्मर (या उनकी सरकारें) जब ‘निज्जर-पन्नू से संबंधित आरोपों को गंभीरता से’ लेने के लिए भारत को कहते हैं, तो उनके नग्न पाखंड पर तरस ही खाया जा सकता है।
- पाकिस्तान में घुस कर ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सैनिकों ने जिस तरह मार डाला था (वैसे ऐसी मिसालें भरी पड़ी हैं), उसके बाद पन्नू मामले में अमेरिकी संप्रुभता के उल्लंघन का मुद्दा उठाने का कोई नैतिक अधिकार अमेरिका को है, इसे कोई विवेकशील व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा।
- भारत के विमान कनिष्क को आसमान में उड़ा देने के मामले में दशकों से कनाडा की जांच प्रक्रिया जैसी खोखली नजर आई है और उसके बाद भी खालिस्तानी उग्रवादियों की गतिविधियां जिस खुलेआम कनाडा में जारी रही हैं, उनकी चिंता किए बना ट्रुडो का नैतिकतावादी बातें करना आखिर कौन स्वीकार करेगा!
बहरहाल, यहां मुद्दा यह नहीं है कि अमेरिका, कनाडा या उसके साथी एंग्लो-सैक्सन देशों (और जी-7 के सदस्य अन्य देश भी जो मुमकिन है कि आगे चल कर उनके समर्थन में एकजुट हो जाएं) का रुख नैतिक है या नहीं अथवा उनका रुख सचमुच अंतरराष्ट्रीय कानूनों की रक्षा की भावना से प्रेरित है या नहीं।
- असल सवाल यहां अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन और बदलती भू-राजनीति के बीच भारत के स्थान का है। भारत की वर्तमान सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में अमेरिकी धुरी से जुड़ने को अपनी खास प्राथमिकता बनाए रखी है। इसलिए मुद्दा भारत की मौजूदा विदेश नीति और उससे हासिल हुए फायदों का है।
- आखिर सरकार की विदेश नीति संबंधी चयन और प्राथमिकताओं ने दस साल में आज भारत को कहां ला खड़ा किया है, प्रश्न यह है।
- बेशक, देश की अंतरराष्ट्रीय छवि का भी सवाल है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपना ‘हार्ड पॉवर’ दिखाने के जो भी तरीके अपनाए, मुद्दा यह है कि उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की मजबूत छवि बनी है, या भारत ने ‘हार्ड पॉवर’ और ‘सॉफ्ट पॉवर’ दोनों से संबंधित छवियों को गंवा दिया है?
पन्नू मामले में अमेरिका में दायर अभियोग पत्र से साफ है कि अमेरिकी जांचकर्ता पन्नू की हत्या की कथित कोशिश और निज्जर की हत्या दोनों घटनाओं को एक ही बड़ी परियोजना का हिस्सा मान कर चल रहे हैं। उन्होंने जिन भारतीयों को नामजद किया है, उन्हें इन दोनों मामलों में शामिल बताया है। निज्जर मामले में कनाडा के जांचकर्ताओं ने सीधे भारत के उच्चायुक्त सहित कई राजनयिकों को संदिग्ध घोषित किया है। साथ ही उन्होंने जो कहा है, उसका संकेत है कि इस परियोजना की कमान भारत में सर्वोच्च स्तर के अधिकारियों के हाथ में थी। अखबार वॉशिंगटन पोस्ट की खबर के मुताबिक कनाडा के जांचकर्ता जिन लोगों को परियोजना या इस ‘साजिश’ में शामिल मान रहे हैं, उनमें गृह मंत्री अमित शाह का नाम भी है। जाहिर है, अमेरिका और कनाडा ने अपनी तरफ से इस मामले में भारत की उच्चस्तरीय घेराबंदी की है।
हैरतअंगेज है कि अभी भी भारत सरकार ने कनाडा और अमेरिका के आरोपों पर अलग-अलग रुख अपना रखा है। कनाडा को ‘लाल आंखें’ दिखाने का सिलसिला जारी है, जबकि आरंभ से ही नरेंद्र मोदी सरकार ने आरंभ से ही अमेरिका के आगे नरम रुख अपना लिया। पिछले वर्ष जब अमेरिका ने भारत पर पन्नू की हत्या की “साजिश” रचने का आरोप लगाया, तो तुरंत मोदी सरकार आरोप की जांच कराने की घोषणा कर दी।
इस हफ्ते अमेरिकी जांचकर्ताओं को भारतीय जांच का निष्कर्ष बताने एक भारतीय दल वॉशिंगटन गया। भारत ने कहा कि जिस व्यक्ति के हाथ में इस “साजिश” की कमान थी, वह “अब” भारत सरकार की सेवा में नहीं है और उसे गिरफ्तार किया जा चुका है। अमेरिका के न्याय मंत्रालय ने उसके बाद अभियोग पत्र के बारे में जो सूचना दी, उसके मुताबिक यह व्यक्ति 39 वर्षीय विकास यादव है, जो रिसर्च एंड एलानिसिस विंग (रॉ) से जुड़ा था। एक भारतीय अखबार में छपी खबर के मुताबिक पिछले नवंबर में अमेरिका ने जब आरोप लगाया, उसके तीन हफ्तों के बाद यादव को लूट-खसोट के एक मामले में गिरफ्तार किया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। इसी वर्ष अप्रैल में यादव कोर्ट से जमानत पाकर जेल से रिहा हो चुका है।
अब मुद्दा यह है कि क्या अमेरिकी जांचकर्ता इस व्यक्ति को पन्नू से संबंधित “ऑपरेशन” का मुख्य कर्ताधर्ता स्वीकार कर लेंगे या वे भी कनाडा की तरह उसे “ऊपर से मिले आदेश” का पालन भर कर रहे एक अधिकारी के रूप में देखेंगे? सवाल कई और भी हैः
- (आरोपों के मुताबिक) यादव ने पन्नू की हत्या को अंजाम देने के लिए निखिल गुप्ता नाम के एक व्यक्ति से संपर्क किया था, जिसे चेक रिपब्लिक में गिरफ्तार करने के बाद अब अमेरिका भेजा जा चुका है। क्या अब अमेरिका यादव के भी प्रत्यर्पण की मांग भारत से करेगा, जैसा उसने गुप्ता की गिरफ्तारी के बाद चेक रिपब्लिक से किया था?
- क्या भारत सरकार प्रत्यर्पण के लिए राजी होगी?
- क्या बदले में वह यह मांग कर पाएगी कि पहले अमेरिका नवंबर 2008 में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के प्रमुख षड्यंत्रकारी डेविड हेडली और पन्नू को भारत प्रत्यर्पित करे?
- अमेरिकी न्याय मंत्रालय और अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई का दावा है कि गुप्ता और यादव के खिलाफ उसके पास ठोस सबूत हैं। अब देखने की बात यह होगी कि गुप्ता और यादव अदालती कार्रवाई में अपना बचाव कैसे करते हैं?
- सजा होने की नौबत आई, क्या तो दोनों उसे सहज स्वीकार कर लेंगे या सरकारी गवाह बन कर अपनी सजा कम करवाने की कोशिश करेंगे?
- अगर गवाह बने, तो फिर वे किस-किस का नाम लेंगे, यह अनिश्चित है।
- उधर कनाडा की जांच किस नतीजे तक पहुंचती है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। आखिर कनाडा को अमेरिका और फाइव आईज के अन्य सदस्य देशों का पूरा समर्थन हासिल है। इसलिए कनाडाई न्यायिक प्रक्रिया जिस नतीजे पर पहुंचेगी, उसका भी इस मामले में दीर्घकालिक असर होना है।
कहने का मतलब यह कि ये मामला निकट भविष्य में खत्म होता नहीं नजर आता है। जाल बेहद उलझा हुआ है। देखने की बात तो यह भी होगी कि अमेरिका सचमुच इस मामले में न्यायिक कार्रवाई पर ही भरोसा करता है, या फिर इसे वह भारत से अतिरिक्त रणनीतिक एवं व्यापारिक लाभ करने के लिए सौदेबाजी का औजार बनाता है, जैसाकि उसका रिकॉर्ड रहा है?
भारत के लिए विकट स्थिति है। सारे घटनाक्रम का सार यह है कि मोदी सरकार की दस साल की विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताएं शून्य पर पहुंच गई हैं। वे देश ही भारत के खिलाफ लामबंद हो गए हैं, जिनके नेताओं के साथ ऊंची मेज पर बैठना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता रही। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन जैसे मंचों में भारत ने नेतृत्वकारी भूमिका ग्रहण करने के अवसर गंवा दिए। अब ऐसा लगता है कि ना माया मिली ना राम वाली कहानी चरितार्थ हो रही है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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