ग्राउंड रिपोर्ट: बहराइच हिंसा-इस दश्त में इक शहर था, वो क्या हुआ ? कोई नहीं सुन रहा महराजगंज की खामोशी और टूटे हुए भरोसे की चीखें!

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बहराइच। मशहूर शायर मोहसिन नकवी की वो नज्म, इस दस्त में इक शहर था, वो क्या हुआ.. आज जैसे बहराइच के महराजगंज कस्बे की हालत बयां कर रही है। इस कस्बे की सड़कों पर पसरे सन्नाटे में एक दबी चीख है, जो इस सवाल का जवाब तलाश रही है कि आखिर भाईचारे का ये शहर कब और क्यों बिखर गया।

बहुत कुछ कहता है ये मंजर

13 अक्टूबर 2024 की उस बदनसीब शाम के बाद, यहां की हवा में एक अजीब सा डर और बिखरा हुआ भरोसा महसूस होता है। कभी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर इस जगह की गलियों में आज उदासी का काला साया है। हर चेहरे पर एक बेजान सी उदासी, और हर घर में एक अदृश्य सा दर्द, जो न तो कहने की हिम्मत है, और न ही सहने का ज़ज्बा।

उस दिन दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान रामगोपाल मिश्रा की हत्या के बाद इस इलाके में जैसे मुहब्बत का खून हो गया। 14 अक्टूबर को हुए दंगे में न जाने कितनी दुकानों, घरों, और उम्मीदों को आग के हवाले कर दिया गया। हीरो मोटरबाइक शोरूम की राख में तब्दील हुईं बाइकों की हड्डियां और जले हुए घरों के खंडहर इस दर्दनाक मंजर के मूक गवाह हैं। हर जलते मलबे से एक सवाल उठता है – क्या इस धुएं से भाईचारे की लकीरें फिर उभर पाएंगी?

दहशत कायम है

महराजगंज की गलियों में अब सिर्फ पुलिस की गाड़ियों के सायरन और डर की खामोशी गूंजती है। कई घर अब वीरान हो चुके हैं, कुछ पर ताले लटक रहे हैं तो कुछ यूं ही छोड़कर भाग गए। पुलिस अधीक्षक वृंदा शुक्ला ने चेतावनी दी है कि अफवाहें फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई होगी। उन्होंने स्पष्ट किया है कि रामगोपाल मिश्रा की मौत गोली लगने से हुई, और सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे किसी भी झूठ पर ध्यान न दें।

इस घटना का बीज उस दिन दुर्गा विसर्जन में डीजे पर गाए गानों पर पड़ी आपत्ति से पड़ा। एक छोटी सी बात ने आग में घी डाल दिया और गुस्से की लहर ने हिंसा का रूप ले लिया। दोनों पक्षों के बीच पत्थर बरसाए गए और स्थिति इतनी बिगड़ी कि पुलिस भी मूकदर्शक बनकर रह गई। इस हिंसा के दौरान एएसपी पवित्र मोहन त्रिपाठी की गैरमौजूदगी पर भी सवाल उठे हैं।

उपद्रवियों द्वारा फूंकी गई हीरो की एजेंसी जो दंगे के दंश की गवाही दे रहा है

इस घटना ने महराजगंज के लोगों की रगों में दौड़ते उस खून को जमा दिया है, जो कभी एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ देने का संकल्प था। जहां कभी हंसी-ठिठोली और बच्चों की खिलखिलाहट गूंजती थी, आज वहां खौफ का सन्नाटा है। लोग अपने दरवाज़ों से बाहर झांकते तो हैं, लेकिन एक अनकही चुप्पी में खो जाते हैं। जिस सड़क पर कभी हर धर्म, हर जाति के लोग कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे, आज वहां नज़रें झुकी हैं और दिलों में दर्द छुपा है।

पुलिस की गश्त भले ही गलियों में सख्त हो, लेकिन लोगों के भीतर का डर इतना गहरा है कि वे अपने ही पड़ोसियों को अजनबी की तरह देखने लगे हैं। अपने घरों को बचाने के लिए लोगों ने दरवाजों पर ताले तो डाल दिए, पर क्या इस ताले से टूटे भरोसे को भी बंद किया जा सकता है?

महराजगंज में नफरत की इस आंच ने न जाने कितने सपनों को राख कर दिया है। दुकानों के जलते मलबे से उठता धुआँ उस असमाप्त युद्ध की कहानी कहता है, जिसे किसी ने चाहा नहीं, पर हर कोई झेल रहा है। रामगोपाल मिश्रा की मौत ने जैसे कस्बे की आत्मा को घायल कर दिया है, और इस घाव की टीस हर उस शख्स के दिल में है जिसने कभी इस इलाके को भाईचारे और मुहब्बत की मिसाल बनते देखा था।

रेहुआ मंसूर जहां पुलिस के जवान जहां आराम फरमाते हैं

वक्त तो बीत जाएगा, लेकिन क्या ये कस्बा फिर से अपने पुराने रूप में लौट पाएगा? क्या वो बच्चे जो अब अपने घरों में सहमे बैठे हैं, कभी इस सड़क पर बेखौफ खेल पाएंगे? क्या वो हंसी, वो आवाज़ें, वो रिश्ते जो कभी इस कस्बे की शान थे, दोबारा वापस आएंगे?

पुलिस छावनी बना महराजगंज

महराजगंज कस्बा इस वक्त पूरी तरह पुलिस छावनी में तब्दील हो चुका है। हर गली, हर मोड़ पर पुलिस का सख्त पहरा है, और लोगों के चेहरों पर एक गहरा खौफ नजर आता है।

महराजगंज में पुलिस का पहरा

किसी से भी इस घटना के बारे में कुछ पूछो, तो जैसे उनके होंठ सिले हुए हों, जैसे अनकही चीखों का बोझ उनकी आवाज को दफ्न कर गया हो। हर ओर सिर्फ पुलिस और पीएसी का साया, और बीच-बीच में दमकल की गाड़ियां सड़क के किनारे खड़ी हुईं मानो आग के जले जख्मों को थामने की कोशिश में लगी हों।

महराजगंज में हुए सांप्रदायिक तनाव के बाद, बीस मुसलमानों सहित कुल 23 लोगों के घरों और दुकानों पर बुलडोजर चलाने की नोटिसें चस्पा की गई हैं। अतिक्रमण के नाम पर लगाए गए इन लाल निशानों से लोगों के मन में अजीब सा डर पैदा हो गया है। ऐसा लगता है मानो इस निशान ने किसी का घर नहीं, बल्कि उसके सपनों को जकड़ लिया हो। कुछ लोगों को यकीन है कि जल्द ही बुलडोजर चलेगा। प्रशासन का कहना है कि ये निशान छह महीने पहले अतिक्रमण हटाने के लिए लगाए गए थे, पर अब हालात ऐसे हैं कि लोग इसे भी हिंसा के साये में ही देख रहे हैं।

कल का सूरज क्या दिखाए राम जाने

दीपावली की दहलीज पर पहुंचने के बावजूद महराजगंज का बाजार वीरान पड़ा है। हर साल इसी समय बाजार रौशनी से जगमगाते थे, दुकानदारों के चेहरों पर एक उम्मीद की चमक होती थी। लेकिन इस बार स्टीलगंज तालाब मार्केट और घंटाघर चौक पर सजी दुकानों के बीच एक अजीब सी उदासी फैली हुई है। कपड़े का व्यापार करने वाले इकराम कहते हैं, “पहले दिवाली पर यहां भीड़ का मेला लगा रहता था, लेकिन अब मानो बाजार की रौनक ही छीन ली गई है।”

पटाखे की दुकान सजाए असलम अपनी पीड़ा बयां करते हुए कहते हैं, “हमने तो पूरी तैयारी की है, लेकिन ग्राहक न आए, तो हमारी दिवाली फीकी रह जाएगी।” दुकानदारों की मायूसी उनके चेहरों पर साफ झलकती है, मानो ये बाजार अब भी उस सन्नाटे में गूंज रहा हो, जो हिंसा की उस घड़ी में पसरा था।

महराजगंज की गलियों में पसरा डर इतना गहरा है कि लोग मीडिया से बात करने में भी डर रहे हैं। कुछ महिलाओं ने धीरे से अपनी तकलीफ बयान की और बताया कि रामगोपाल मिश्रा की हत्या के बाद पुलिस रात-बेरात उनके घरों में दस्तक देती है। बच्चों का भय से कांप जाना, उनका सहम जाना, यह सब मानो इस कस्बे की नई हकीकत बन गया है। अखिल भारतीय ब्राह्मण एकता परिषद ने पुलिस पर महिलाओं के साथ बदसलूकी का आरोप लगाया है, तो महसी तहसील के बार एसोसिएशन ने भी पुलिस पर घरों में घुसने और अभद्रता करने की शिकायत दर्ज कराई है।

13 और 14 अक्टूबर की वो काली रातें इस कस्बे की रगों में बस चुकी हैं। जले हुए वाहनों के मलबे को साफ तो कर दिया गया है, लेकिन हीरो शोरूम के बाहर पड़ी जली बाइकों का ढांचा अभी भी बर्बादी की कहानी बयां कर रहा है। दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान डीजे पर शुरू हुई छोटी सी झड़प ने सांप्रदायिक हिंसा का भयानक रूप ले लिया। पहले दिन रामगोपाल मिश्रा की हत्या हुई, और उसके बाद उपद्रवियों ने जैसे गुस्से की लपटों में इस कस्बे के सौहार्द्र को राख कर दिया।

दंगाइयों की भेंट चढ़ी गाड़ियां

महराजगंज की हर गली, हर दरवाजा जैसे एक खामोश चीख बन चुका है, जो पूछता है – क्या ये कस्बा कभी अपनी पुरानी सूरत में लौट पाएगा? क्या वो हंसी, वो खुशहाली, वो भरोसा फिर से लौट सकेगा? इस कस्बे के लोग अब भी उस नज्म की गूंज में खोए हैं- इस दस्त में इक शहर था, वो क्या हुआ…?

खौफ और टूटे भरोसे की आहट

रेहुवा मंसूर के गांव में राम गोपाल की मौत के बाद पसरी खामोशी किसी अनकही चीख का रूप ले चुकी है। यहां की गलियों में अब सन्नाटा है, और हर शख्स कुछ कहने से पहले कई बार इधर-उधर देखता है। पुलिस की सख्ती और बेबसी का आलम यह है कि मानो लोगों की आवाजें ही छीन ली गई हैं। गांव के लोग बताते हैं कि पुलिस आधी रात को दबिश देकर बिना इजाजत घरों में घुसती है, लोगों को जबरन उठाकर ले जाती है, मारपीट करती है, और फिर थाने में सादे कागजों पर हस्ताक्षर करवा कर छोड़ देती है।

इस अनकहे खौफ के कारण कई युवा गांव छोड़कर जा चुके हैं। अब यहां सिर्फ बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे बचे हैं, जिनकी आंखों में भय और दिलों में एक गहरी पीड़ा है। कुछ दिनों पहले ही पुलिस ने अंधेरी रात में ललित तिवारी, कुलभूषण अवस्थी, भालेंद्र भूषण और आनंद मिश्रा उर्फ बाटा को उठा लिया। उन्हें बेरहमी से पीटा गया और बिना कोई वजह बताए कुछ कागजों पर दस्तखत करवा कर छोड़ दिया गया। इस घटना ने गांववालों के दिलों पर एक ऐसा जख्म दे दिया है, जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है।

महराजगंज भूल नहीं पाएगा दंगे का दर्द

राम गोपाल का परिवार, इस त्रासदी में टूट चुका है, लेकिन अब भी न्याय की आस में खड़ा है। रोली मिश्रा का चेहरा उन सभी परिवारों के दर्द की मिसाल बन गया है, जो अपने खोए हुए अपनों के लिए इंसाफ की उम्मीद में हैं। महराजगंज के लोग इस काली रात के बाद खुद को असुरक्षित और बेसहारा महसूस कर रहे हैं। पुलिस की हर रात की दबिश, मनमानी और मारपीट ने उनके भय को और गहरा कर दिया है।

राम गोपाल की मौत का घाव सिर्फ उनके परिवार पर नहीं, बल्कि पूरे गांव पर है। ये गांव अब केवल एक ख्वाहिश लिए जी रहा है – इंसाफ की। ताकि वे अपने अपनों की आत्मा को शांति दे सकें। दूसरी ओर, सरकार से अब लोग सवाल करने लगे हैं – आखिर इस विनाशकारी हादसे के बाद इंसाफ की रौशनी कब तक पहुंचेगी? क्या यह इलाका फिर से अमन और भाईचारे की राह पर लौट पाएगा?

रेहुवा मंसूर का हर चेहरा, हर आहट और हर खामोशी एक गहरी उदासी का बयान है। इस कस्बे की आत्मा पर ऐसा जख्म है, जो इतनी जल्दी नहीं भरने वाला। यहां के लोगों की आंखों में डर और दिलों में घुटन साफ झलकती है, जैसे किसी ने उनके हौसले और भरोसे को कहीं गहरी अंधेरी खाई में दफना दिया हो।

डर और दर्द में डूबा रेहुवा मंसूर

बहराइच के महराजगंज कस्बे में धीरे-धीरे बाजार खुलने लगे हैं, लेकिन महज कुछ किलोमीटर दूर रेहुवा मंसूर गांव में हालात बिलकुल विपरीत हैं। यहां एक भय का साया छाया हुआ है। राम गोपाल मिश्रा की मौत के बाद कैलाशनाथ मिश्रा का परिवार शोक में है, परंतु इस दुख की घड़ी में भी पुलिस का शिकंजा उनके गले का फंदा बन चुका है। दसवां गुजर चुका है, और अब तेरही की तैयारी है। लेकिन घर के बाहर का मंजर कुछ और ही कहानी कह रहा है- जहां हर वक्त पुलिस का पहरा है, लोगों के आने-जाने पर रोक है और घर में पसरी उदासी में गहरा डर छिपा हुआ है।

सोई हुई पुलिस अब मुस्तैद है

कैलाशनाथ मिश्रा का परिवार मुश्किल से अपनी रोजी-रोटी चला पाता था। उनके घर पर तो लेंटर तक नहीं, बस एक साधारण सा टीन शेड है। ऐसे में पुलिस की लगातार हो रही छापेमारी और रात-बेरात घरों में दाखिल होने से गांव वाले बेहद आहत हैं। गांव के लोगों का आरोप है कि निर्दोषों को पुलिस बिना किसी कारण के उठाकर मारपीट कर रही है। रेहुवा मंसूर के ललित तिवारी, कुलभूषण अवस्थी, भालेंद्र भूषण और आनंद मिश्र के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इन लोगों के साथ की गई ज्यादती ने गांव के दिलों में एक गहरी चोट छोड़ दी है, जिसे शब्दों में बयां करना मुमकिन नहीं।

इस, घर को भी योगी सरकार के बुल्डोजर का खौफ

पत्रकारों व नेताओं पर पाबंदी

रेहुवा मंसूर गांव में पत्रकारों और नेताओं के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। गांव के चारों ओर पुलिस और पीएसी के जवान तैनात हैं। कई दरोगा यहां चौबीसों घंटे ड्यूटी पर मुस्तैद हैं, जैसे मानो किसी बड़े युद्ध की तैयारी कर रहे हों। जब हम गांव पहुंचे तो एक दरोगा ने हमें देखते ही अचरज से पूछा, “गांव की सभी सीमाएं तो सील हैं, आप अंदर कैसे आ गए? किसी बैरियर पर रोका क्यों नहीं गया?” 

उन्होंने सख्त लहजे में कहा कि “पहले आप पुलिस के आला अफसरों का परमीशन दिखाइए, तब ही मृतक राम गोपाल मिश्रा के परिवार से मिल सकेंगे। हम किसी भी सूरत में आपको उनके परिजनों से मिलने या बात करने का मौका नहीं देंगे। यह हमारे नौकरी का सवाल है।”

पुलिस की ऐसी सख्ती और हृदयहीनता ने गांव के लोगों के लिए अपने अपनों के साथ शोक साझा करना भी मुश्किल कर दिया है। हर ओर बस डर और खामोशी पसरी हुई है। राम गोपाल मिश्रा की मौत के बाद ये गांव शोक और खौफ में डूबा हुआ है, लेकिन इसके बावजूद पुलिस की बेरहमी और गांव में लगाए गए प्रतिबंध ने लोगों की उम्मीद को जैसे कुचल दिया है। हर रात गांव में होने वाली छापेमारी और पुलिस की इस कड़ी कार्रवाई ने गांववालों के दिलों में गहरे जख्म छोड़ दिए हैं।

इस माहौल में हर कोई यही सवाल पूछता है- क्या इस शोक और भय से उबरने का कोई रास्ता बचेगा? क्या राम गोपाल मिश्रा के परिवार को अपने दुख में थोड़ी भी राहत मिल सकेगी? क्या गांववालों को इंसाफ मिलेगा? रेहुवा मंसूर के इस दर्द और बेबसी की कहानी कोई नहीं सुन पा रहा, क्योंकि उनके होंठ सिले हुए हैं और आंखों में खौफ का साया है।

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। बहराइच से ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट)

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