पिछले करीब 48 घंटों से देश का हर संवेदनशील इंसान व्याकुल और बेचैन है। 50 मरे, 70 मर गए, 100 मर गए, अब तक 120 मर गए। मरने वालों के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। सबसे ज्यादा महिलाएं और बच्चे मरे यह और मर्माहत कर दे रहा है। पछाड़ मार कर रोते परिजन, पत्नी और बच्चे खो चुका बेबस पति, मां-बाप और बहन-भाई खो चुकी लड़किया और लड़के, बहु-बेटा खो चुकी मां, कुछ गांवों के कई-कई परिवार। दुख और मातम का ऐसा दृश्य जो किसी को भी एक गहरे अवसाद में डाल दे, रातों की नींद और दिन का चैन छीन ले। अस्पतालों में जीवन-मृत्यु से जूझते लोग और अस्पतालों की दुर्दशा और अव्यवस्था की तस्वीरें खुद पर और अपने देश के प्रति एक कोफ्त से भर देती हैं। इसके साथ ही कुछ न कर पाने की बेबसी। फिर कभी ऐसा नहीं होगा, इस बात के लिए आश्वस्त होने का कोई कारण न होना।
ऐसा पहले भी हुआ है, कई बार हुआ है, फिर होगा। यह निर्मम तथ्य जीना और भी मुहाल कर देता है। सरकारों और विपक्ष के वही घड़ियाली आंसू और वही बार-बार दोहराए जाने वाले शब्द। दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। मामले की गहराई से जांच होगी। जो भी दोषी पाया जाएगा, उसे दंडित किया जायेगा। मरने वालों और घायलों को कुछ लाख की क्षतिपूर्ति की घोषणा। कुछेक के निलंबन और कुछ के तबादले होंगे। विपक्ष सरकार और प्रशासन को दोषी ठहरायेगा। राजनेता अफसोस और दुख जता रहे हैं। सरकारी पक्ष हर तरह से यह बताने में लगा है कि सरकार की इसमें कोई गलती नहीं, विपक्ष यह बता रहा है कि सारी गलती वर्तमान सरकार की।
हो सकता है, प्रवचनकर्ता बाबा गिरफ्तार हो जाएं, पहले भी गिरफ्तार होते रहे हैं, जेल भी जाते रहे हैं। फिर मौत के हृदय विदारक दृश्य और परिजनों की चीखें दृश्यपटल से कुछे दिनों में गायब हो जाएंगे। मीडिया और दर्शकों के लिए कुछ नया नहीं रह जाएगा। फिर फोकस कहीं और शिफ्ट हो जाएगा। फिर सबकुछ रूटीन पर लौट आएगा। पूरा देश सबकुछ भूल जाएगा। फिर हम ऐसी घटना या इसी तरह की घटना होने तक तक चुप रहेंगे। हमारी जड़ संवेदना मौतों और हत्याओं के बाद थोड़ी देर के लिए जगती है, फिर अपना वास्तविक सतह ग्रहण कर लेती है।
जो इन मौतों से क्षुब्ध और मर्माहत दिख रहे हैं, सचमुच में जो लोग मारे गए और जिन्होंने परिजन खोए हैं, उनकी संवेदना उनके साथ है। लेकिन उनमें से अधिकांश इस बात के लिए उन लोगों को ही दोषी ठहरा रहे हैं, जो बाबा के शरण में गए। जो अपने ऐसे बाबाओं के पास अपने दुख-दर्दों का निवारण खोजने जाते हैं, अपने लिए सुकून खोजने जाते हैं। जिंदगी में किसी चमत्कार की उम्मीद में जाते हैं। कुछ लोग उन्हें पाखंंड और अंधविश्वास का शिकार कह रहे हैं। कुछ जाहिल और गंवार कह रहे हैं। कुछ लोग शायद इस स्थिति से धुब्ध होकर यहां तक कह रहे हैं कि इन लोगों की मौत से हमें कोई दुख नहीं, ऐसे लोगों के प्रति हमारी कोई हमदर्दी नहीं। कुछ लोग ऐसे बाबाओं के चंगुल से लोगों को बचाने के लिए अंधश्रद्धा उन्मूलन कार्यक्रमों की जरूरत बता रहे हैं। कुछ ऐसे बाबाओं को दंडित करने की बात कर रहे हैं।
प्रश्न यह है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग हाथरस के इस नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा के पास गए क्यों थे? हालांकि इस बात का जवाब तो ठीक-ठीक तभी दिया जा सकता है, जब वहां गए लोगों के कुछ लोगों से मुकम्मिल बात की जाती। मेरी किसी वहां गए लोगों से बात नहीं हुई है। लेकिन मीडिया में जो देखा- सुना, उससे समझ में आता है कि ज्यादातर लोग मेहनतकश निम्न मध्यवर्ग और गरीब वर्ग लोग थे। गांव-देहात और कस्बों के लोग थे। चेहरा-मोहरा और बोली- बानी देखकर साफ लग रहा था कि जिंदगी से रोज जद्दोजहद करने वाले साधारण लोग थे। शायद कोई खाते-पीते मध्यवर्ग का रहा हो। उच्च मध्यवर्ग और बड़े शहर-मेट्रो सिटी का होने की तो कोई बात ही नहीं।
यूट्यूब पर बाबा के तथाकथित प्रवचनों-बातों को सुनकर साफ लग रहा था कि बाबा भी इन्हीं तरह के लोगों के बीच से निकला है। उसकी बातों में को दार्शनिक-वैचारिक या आध्यात्मिक तत्व नहीं, चाहे वह झूठ ही क्यों न होता हो? भोंडी और बहुत ही स्थूल बातें करने वाला बाबा। करीब-करीब निरक्षर और भोल-भाले लोगों को मूर्खतापूर्ण चमत्कार दिखाने वाला। लेकिन जिन लोगों को संबोधित करता है, उनकी बोली-बानी समझता है। उनसे उन्हीं की शब्दावाली में बात करता है। उनकी मानसिकता और संवेदना को समझता है। ऐसे लोगों की दुखती रग पर उसकी पकड़ है।
क्या बात उनको भायेगी, रिझाएगी, उसका भक्त बनायेगी, उसे दुखहर्ता समझेगी, उसके प्रति पूरी तरह समर्पित कर देगी। यह सब उसको पता है। ऐसे लोगों के दुख-दर्दों, सपनों और चाहतों का कैसे अपने लिए इस्तेमाल करना है उसे बहुत अच्छे से ज्ञात है। उसको उनके सतह पर दिखने वाले दुख-दर्दों और आशाओं-आकांक्षाओं का ठीक-ठीक पता है। वह उनके मर्ज का अच्छा
डॉक्टर है, उन्हें इसका इसका असहसास दिलाने में काबिल है।
अगला प्रश्न यह है जो लोग गए थे, वे किस चमत्कार की खोज में इस चमत्कारी बाबा की खोज में गए थे? इसका चरणरज लेने की लोगों में इतनी होड़ क्यों थी? इस चरण रज को पाकर अपने जीवन में लोग क्या हासिल करना चाहते थे या हैं? पहली तो यह कि जिनता में यूट्यूब पर इस बाबा को सुना या उसके चाहने वालों को सुना उसमें एक बात साफ थी कि वह मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग या जन्नत की बात बहुत कम करता है, वह इसी लोक में लोगों के जीवन में चमत्कारी परिवर्तन की बात करता है।
वह लोगों को आश्वस्त कर देता है कि वह उनके जीवन से दुखों का खात्मा कर देगा, उनकी सारी परेशानियों का निवारण कर देगा। असाध्य से असाध्य समस्या, यहां तक बीमारी को भी ठीक कर देगा। वह अपने भक्तों को, शिष्यों को हर तरह के दुख से मुक्त कर देगा। उनके जीवन को सुखों से भर देगा। बस बाबा पर सच्ची आस्था रखने की जरूरत, सिर्फ बाबा के आशीर्वाद को किसी तरह हासिल करने की जरूरत है। वह यह भी पक्का विश्वास दिला देता है कि आपका दुख दूर नहीं हुआ तो इसका कारण बाबा नहीं है, इसका कारण यह है कि आपकी बाबा में सच्ची आस्था नहीं थी, सच्चा विश्वास नहीं था। लोग दुख दूर न होने पर बाबा को नहीं खुद को दोषी ठहराते हैं, खुद को अपराधी पाते हैं।
फिर भी मूल सवाल बचा हुआ कि लोग किसी चमत्कार की आस में बाबा के पास क्यों गए? चमत्कार देखने नहीं, बिलकुल नहीं, वे इस चमत्कार से, बाबा के आशीर्वाद से, बाबा के प्रसाद से चाहे वह चरणरज की क्यों न हो, अपने दुख-दर्द दूर करना चाहते हैं। वह दुख दर्द क्या है, क्यों पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी, तंगहाली और बदहाली से मुक्ति क्यों नहीं मिल रही है? हाड़तोड़ परिश्रम के करने बाद भी जिंदगी खुशहाल क्यों नहीं हो रही है। क्योंकि अपनी छोटी खेती-बारी या दूसरे के खेतों-खलिहानों और फैक्ट्रियों-मकानों में रात-दिन बारहो-महीना कमरतोड़ मेहनत करने के बाद भी बेटी की शादी-दहेज लायक पैसा नहीं जुट पा रहा है?
सब कुछ दे-लेके शादी करने के बाद भी बेटी ससुराल में खुश क्यों नहीं है? क्यों मकान बनवाने की चाह पूरी नहीं हो रही है। क्यों थोड़ा खेत खरीदने लायक पैसा नहीं जुट पा रहा है। क्यों भगवान ने इतनी जमीन नहीं दी कि दूसरे के यहां मजदूरी न करना पड़े? क्यों पति को सालों-साल घर-गांव छोड़कर किसी दूर देश जाना पड़ता, ज्यादातर समय वहीं रहना पड़ता। क्यों सारी कोशिशों के बाद बीमारी ठीक नहीं हो रही? क्यों बेटा ठीक से पढ़ा नहीं, क्यों इतना होनहार नहीं निकला कि घर के दुखों को दूर करने लायक नौकरी पा सके।
क्यों सारी कोशिशों के बाद भी उसे कोई कायदे की नौकरी नहीं मिली? पति या बेटा क्यों शराबी बन गए? क्यों अपने लिए गहना-गुड़िया नहीं बनवा पाई? क्यों बहू मन लायक नहीं मिली? क्यों सास-ननद तंग करती है। क्यों देवरानी या जेठानी का जीवन इतना सुखी है, मेरे जीवन में इतना दुख क्यों है? क्यों पति पीटता है? क्यों दूसरी औरतों के चक्कर में पड़ा रहता है? बहुत सारे दुख और बहुत सारे सवाल?
ऐसा नहीं लोग अपनी जिंदगी से दुख-दर्दों को दूर करने और अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए सिर्फ बाबाओं के पास जाते हैं या सिर्फ बाबाओं के पास गए। सबसे अधिक लोग राजनेता रूपी बाबाओं के पास गए। हां जानबूझकर राजनीतिक बाबा कह रहा हूं। सबसे पहले लोग अपने दुख-दर्दों और आशा-आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी बाबा के पास गए। उन्होंने पूरा भरोसा दिया कि आजादी के बाद आपके सारे दुख-दर्द दूर हो जाएंगे। लोग लाखों करोड़ों की संख्या में गांधी बाबा के साथ हो लिए। गांधी बाबा के साथ मार्क्स बाबा के अनुयायी लोग आए, लोगों से कहा, गांधी बाबा नहीं हम आपका दुख-दर्द दूर करेंगे और आपकी उम्मीदों को पूरा करेंगे। एक बड़ी संख्या उनके साथ हो ली।
आजादी मिली नेहरू जी ने लोगों की गरीबी और दुख-दर्दों को दूर करने का भरोसा दिलाया। नेहरू से नहीं हो पाएगा यह कहते लोहिया आए। लोगों ने उन पर भी भरोसा किया। फिर हमेशा-हमेशा के लिए गरीबी और दुख-दर्द दूर करने के वादे के साथ इंदिरा जी आईं, लोग उनके साथ हो लिए। राजीव आए, उनके साथ भी हो लिए। फिर लालू यादव और मुलायम सिंह और मान्यवर कांशीराम राम आए, फिर मायावती, लोग उनके साथ हो लिए। बीच में बीपी सिंह आदि भी आए, लोग उनके साथ भी हुए। फिर अटल बिहारी-आडवाणी आए।
इन सब लोगों ने कुछ लोगों के कुछ दुख-दर्द दूर किए, लेकिन इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि बहुसंख्य लोग करीब जहां के तहां पड़े रहे हैं। हां कुछ लोग अमीर से अमीर होते गए, कुछ नए अमीर इसमें शामिल हो गए। एक छोटा सा मध्यवर्ग बन गया। कौन कितना दोषी है या नहीं है। मैं इसका यहां विश्लेषण नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच है एक बड़े हिस्से को रोजी-रोटी, घर- मकान, बीमारी-पढ़ाई जैसे बुनियादी दुख-दर्द से भी छुट्टी नहीं मिली। इन दुख- दर्दों के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दुख-दर्दों के मेल ने उनके जीवन को हमेशा असहनीय बनाए रखा।
इस बीच भारत के इतिहास का सबसे बड़ा चमत्कारी बाबा नरेंद्र मोदी के रूप में आया। जिसने हाल में खुद को भगवान का अवतार घोषित किया है। इस बाबा ने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर तरह के दुख से निजात दिलाने का जोर-शोर से वादा किया। इस बाबा ने कहा अब तक जो भी इलाज हुए हैं, सब बेकार हैं, नाकाफी हैं, ईमानदारी से नहीं किए गए हैं। वह हर समस्या का इलाज कर देगा। उसके पास हर समस्या का इलाज है। इस बाबा पर भी लोगों ने विश्वास किया। इस चमत्कारिक बाबा की बातों पर विश्वास किया। इसने कहा हमारा साथ दीजिए हम आपके दुख-दर्दों को चुटकी बजाते दूर कर देंगे। लोग उसका प्रवचन सुनने लाखों-लाख की संख्या में जाते थे, आज भी बहुत सारे लोग उसके प्रवचनों पर विश्वास करते हैं, उससे चमत्कार की उम्मीद करते हैं। हालांकि उस बाबा का चमत्कार कुछ फीका पड़ा रहा है। इस राजनीतिक बाबा ने अन्य सभी राजनीतिक बाबाओं की तुलना में लोगों को खूब ठगा। इस बड़े बाबा का एक छोड़ा संस्करण यूपी में आया, जो घोषित तौर योगी है, चमत्कारिक नाथपंथ का योगी है, जहां हाथरस घटित हुआ।
आजादी के 75 सालों बाद भी किसी राजनीतिक बाबा ने बहुसंख्य लोगों के दुख-दर्दों का कोई कारगर समाधान नहीं किया। एक बड़ी आबादी को इस स्थिति में छोड़ दिया गया कि उन्हें लगने लगा कि कोई चमत्कार ही उनकी जिंदगी को बदल सकता है। लोगों को चमत्कारों के भरोसे छोड़ दिया गया और लोग चमत्कारी बाबाओं की तशाल करने करने लगे। उनके पास चमत्कार की उम्मीद में गए। इनमें से एक बाबा नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा है।
हां एक अंतिम सवाल बचा है, वह यह कि जिन मनोवैज्ञानिक परेशानियों के चलते लोग इस तरह के बाबाओं के पास जाते हैं, उसका क्या इलाज है? यह विषय थोड़े विस्तार की मांग करता है, लेकिन फिलहाल तो यह कहा जा सकता है कि, पहली तो यह कि अक्सर मनोवैज्ञानिक परेशानियों की बुनियादी आर्थिक परेशानियां होती हैं, दूसरी सांस्कृतिक-अध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान ज्ञान-विज्ञान के औपचारिक और अनौपचारिक ढांचे तर्कसम्मत और विज्ञानसम्मत बनाकर दूर किया जा सकता है। तीसरी बात लेकिन सबसे जरूरी बात यह कि बहुसंख्यक दुखी जन को सलाह, नेतृत्व और उससे भी बढ़कर एक सहानुभूति की जरूरत होती है, जो समाज को सचेत और थोड़ा फुरसत वाला तबका दे सकता है।
लेकिन इस देश और बहुसंख्यक जन का दुर्योग यह है कि ऐसे लोग उनसे घनिष्ठ तौर जुड़ने की जगह उसने दूर-बहुत दूर होते जा रहे हैं। हां समय-समय पर उनको खरी-खोटी, कभी गाली जरूर सुना देते हैं। जैसे कुछ लोग हाथरस में मरने वाले लोगों अंधविश्वासी और जाहिल कह कर सुना रहे हैं। किसी ने ठीक कहा था देश में उदारीकरण-निजीकरण के बाद आत्महत्या करने वाले लोगों के आंसू पोछने और उनके दुख-दर्दों को सुनने वाले लोग होते तो इनमें से बहुत सारी आत्महत्याओं को रोका जा सकता था।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक औऱ पत्रकार हैं)