उत्तराखंड सरकार को अदालत से ज्यादा लोकायुक्त का डर?

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देहरादून। उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन करने के लिये नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा 8 सप्ताह के अल्टीमेटम की अवधि भी निकल ही गयी है। हाईकोर्ट ने गत 27 जून को राज्य सरकार को 8 सप्ताह के अन्दर लोकायुक्त का गठन करने का आदेश जारी किया था, जिसकी अवधि 22 अगस्त को पूरी हो रही है। मगर राज्य सरकार ने गठन करना तो रहा दूर उसकी प्रक्रिया तक शुरू नहीं की। इसके लिये पहले सर्च कमेटी का गठन होना है और फिर सर्च कमेटी द्वारा तैयार पैनल पर चयन समिति द्वारा विचार कर उस पैनल में से लोकायुक्त बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष का चयन किया जाना है।

इस चयन का अनुमोदन राज्यपाल से लेना होता है। विभिन्न चरणों की इस प्रक्रिया में सरकार ने एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। जबकि सरकार विधानसभा के आने वाले सत्र में उस समान नागरिक संहिता के कानून को लाने की बात कर रही है जिसकी न तो उत्तराखंड को जरूरत है और ना ही यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। अब राज्य सरकार के पास एक ही विकल्प है कि वह किसी भी बहाने अदालत से समय सीमा बढ़ाने की प्रार्थना करे। उससे पहले सरकार ने हाईकोर्ट में तैनात अपर महाधिवक्ता समेत 6 विधि अधिकारियों को हटा कर नये विधि अधिकारियों की टीम खड़ी कर दी है।

राज्य सरकार दो बार अदालत के आदेशों और स्वयं भाजपा के 2017 के चुनावी वायदे का पालन करने के बजाय समान नागरिक संहिता के पीछे पड़ी हुयी है जबकि नागरिक संहिता की जिम्मेदारी अनुच्छेद 44 के अनुसार संसद और केन्द्र सरकार की है। इस दिशा में विधि आयोग कसरत कर भी रहा है। जब तक सारे देश में एक ही नागरिक संहिता लागू नहीं होती तब तक उसे समान कैसे माना जा सकता है। राज्य सरकार ने समान नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करने वाली जस्टिस देसाई कमेटी के लिये 5 करोड़ का बजट रखा है। जबकि सन् 2013 से बिना लोकायुक्त के चल रहे लोकायुक्त कार्यालय पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जे.एस.केहर और जस्टिस डी.वाइ. चन्द्रचूड की बेंच ने उत्तराखंड सरकार द्वारा समय सीमा बढ़ाने की प्रार्थना को स्वीकार करते हुये 5 जुलाई 2017 को राज्य सरकार को 6 माह के अन्दर कानून में जरूरी संशोधन करते हुये लोकायुक्त का गठन करने का आदेश दिया था। इस सम्बंध में जनहित याचिका दायर होने पर उत्तराखंड की नयी सरकार का अदालत में तर्क था कि सन् 2011 का लोकायुक्त कानून मौजूदा कानून (सन् 2014 का कानून) से बेहतर था इसलिये उसी की तर्ज पर सरकार नया कानून बनाना चाहती है।

लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई 6 माह की अवधि में न तो नया कानून बना और ना ही मौजूदा कानून के अनुसार लोकायुक्त का गठन हुआ तो प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच के समक्ष 10 जनवरी 2018 को तर्क दिया गया कि सरकार ने नये कानून के लिये विधानसभा में बिल पेश कर दिया है और उसके पास होते ही नया कानून बन जायेगा और उसके आधार पर लोकायुक्त का गठन हो जायेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के वायदे पर विश्वास करते हुये तत्काल लोकायुक्त का गठन कराने की मांग को लेकर दायर याचिका का डिस्पोजल कर दिया था। लेकिन उसके बाद खण्डूड़ी सरकार द्वारा पारित कराये गये लोकायुक्त के आधार पर न तो नया कानून बन सका और ना ही सरकार ने लोकायुक्त का गठन करने का प्रयास किया।

दरअसल तत्कालीन सरकार ने नया कानून बनाने की आड़ में लोकायुक्त बिल को इस तरह विधानसभा में फंसाया ताकि कहा जा सके कि सरकार तो गठन करना चाहती है लेकिन यह तभी संभव है जब विधानसभा नये कानून का विधेयक पास करे। त्रिवेन्द्र सरकार ने बड़ी चालाकी से बिल विधानसभा में फंसाया था ताकि सुप्रीम कोर्ट में जवाबदेही से बचा जा सके। सुप्रीम कोर्ट सरकार को तो आदेश दे सकता है मगर विधायिका को कोई आदेश नहीं दे सकता।

चूंकि भाजपा सरकार का दावा था कि खण्डूड़ी सरकार द्वारा 2011 में पारित कराया गया लोकायुक्त कानून संसद द्वारा 2013 में पारित कराये गये कानून से बेहतर है, इसलिये सरकार खण्डूड़ी का ही कानून वापस लाना चाहती है। इसके लिये वैसे ही कानून का मजमून विधेयक के तौर पर 2017 में विधानसभा में तत्कालीन सरकार ने पेश किया तो उसे पारित करने के बजाय बिना विपक्ष की मांग के स्वयं ही उस विधेयक को प्रकाश पंत वाली विधानसभा की प्रवर समिति को सौंप दिया।

हैरानी का विषय यह है कि जिस कानून को भाजपा 2011 से ही भारत का सबसे बेहतर और आदर्श कानून बता कर राजनीति कर रही थी। उसी कानून को वापस लाने के बजाय उसे प्रवर समिति को सौंप दिया और प्रवर समिति ने उस कानून के बिल की कुल 63 धाराओं में से 42 में संशोधन की और 7 धाराओं को हटाने की सिफारिश कर डाली। सवाल उठता है कि जिस कानून में इतने संशोधनों की सिफारिश की गयी उसे किस आधार पर सत्तारूढ़ दल भारत का आदर्श कानून बता रही थी।

उसके बाद जब भी लोकायुक्त के गठन का भाजपा सरकार पर दबाव पड़ा तब-तब कहा गया कि मामला विधानसभा में है इसलिये सरकार के बस में कुछ नहीं है। तर्क था कि अदालत की ही तरह सरकार भी विधानसभा को निर्देश नहीं दे सकती। ये भी तर्क दिया गया कि विधानसभा की प्रवर समिति विधेयक पर विचार कर रही है। जबकि 7 सदस्यीय समिति संशोधनों सहित 15 जून 2017 को अपनी रिपोर्ट विधानसभा अध्यक्ष को सौंप चुकी थी। भाजपा के बहुमत वाली इस समिति में अध्यक्ष प्रकाश पन्त सहित 4 सदस्य भाजपा के थे, जिनमें मुन्ना सिंह चैहान, महेन्द्र भट्ट और केदार सिंह रावत भाजपा के विधायक थे।

जब विधानसभा भंग हो जाती है तो उसकी समितियां और विधेयकों के बारे में तब की समितियों की सिफारिशें भी निष्प्रभावी हो जाती हैं। जो विधेयक त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल में विधानसभा में पेश हुआ था वह कालातीत हो गया। आज की तारीख में उसका अस्तित्व ही नहीं रह गया। लेकिन नयी सरकार और सत्तारूढ़ दल से जब भी लोकायुक्त के बारे में सवाल किया जाता है तो जवाब मिलता है कि विधेयक विधानसभा में है और जब तक वह पास नहीं हो जाता तब तक सरकार कुछ नहीं कर सकती।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद गत 27 जून 2023 को हल्द्वानी के रविशंकर जोशी की याचिका पर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस विपिन सांघी और जस्टिस राकेश थपलियाल की पीठ ने उत्तराखंड सरकार को 8 सप्ताह के अन्दर लोकायुक्त का गठन करने के निर्देश दिये थे। याचिकाकर्ता जोशी की ओर से पैरवी करते हुये एडवोकेट राजीव सिंह बिष्ट ने अदालत को बताया था कि सन् 2013 से राज्य में लोकायुक्त नहीं है जबकि उस कार्यालय में राज्य सरकार ने निगरानी के लिए 24 लोगों को नियुक्त किया हुआ है और लोकायुक्त के बजट में अब तक 36 करोड़ रुपये में से 29 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।

दरअसल सरकार के पास लोकायुक्त कानून भी है और उसका कार्यालय भी है, मगर लोकायुक्त नहीं है, जिसे लाने में सरकार हिचक रही है। दरअसल पिछली भाजपा सरकार ने नया कानून लाने का प्रयास अवश्य किया, मगर 26 फरवरी 2014 को राज्यपाल द्वारा स्वीकृत और गजट में नोटिफाइड लोकपाल अधिनियम संख्या 6, वर्ष 2014 को रिपील या समाप्त नहीं किया। इसका मतलब साफ है कि उत्तराखंड का फरवरी 2014 का लोकायुक्त कानून अस्तित्व में है।

अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद लोकायुक्त कानून का ड्राफ्ट लोकसभा के बाद राज्यसभा ने 17 दिसम्बर 2013 को पारित किया और इसे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की मंजूरी 1 जनवरी 2014 को मिली। इसके तत्काल बाद उत्तराखंड विधानसभा ने 22 जनवरी 2014 को यह विधेयक पास किया जिसे राज्यपाल की मंजूरी 26 फरवरी को मिली। इसलिये यह दावा सही नहीं है कि उत्तराखंड में लोकायुक्त कानून नहीं है। यह वह कानून है जिसे संसद ने पास कर भेजा था और उत्तराखंड ने देश में सबसे पहले अपनाया।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तराखंड में रहते हैं।)

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  1. 1
    Rajendra Singh Bisht

    लोकायुक्त के गठन में इतना टाल-मटोल सरकारों की मनसा पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, लोकायुक्त कार्यालय है, बजट है, खर्च हो रहा है, य़ह तो वही हुआ जीन है घोड़ा गायब.

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