पुस्तक समीक्षा: बाबा पोते के बालमन की गुनगुनाहट है ‘वासुनामा’ 

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साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में बहुमुखी प्रतिभा के बहुत से लोग हुए और उनके काम को यश भी मिला और उन्हें अनुकरणीय भी माना गया लेकिन हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर जगदीश गुप्त सिर्फ बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि लगभग सभी कलाओं में उनकी कला विशेष की आवाजाही सरल और सहज ही महसूस की गई। वह अक्सर कहा करते थे कि कलाएं एक दूसरे की पूरक हैं और डॉक्टर जगदीश गुप्त ने एक सिद्ध कलाकार की तरह शब्द और चित्र के बीच एक आत्मीय रिश्ता कुछ इस तरह से पैदा किया कि उसके चलते सोच के स्तर पर पाठक, श्रोता और दर्शकों के बीच बेहद आत्मीय संबंधों को जगह मिली।

डॉक्टर जगदीश गुप्त की प्रतिभा और सृजन जिंदगी के सच को तलाशने की बेहद ईमानदार कोशिश कही जा सकती है। उनकी बहुमुखी प्रतिभा से कला की बहुत सी मर्मस्पर्शी विधाएं पैदा हुईं। उनके बात कहने के अंदाज से साहित्य कला के क्षेत्र के लोगों ने बहुत कुछ सीखा और उसका अनुकरण किया। कोई सोच भी नहीं सकता था कि डॉक्टर जगदीश गुप्त का बालमन इतनी पवित्रता के साथ उनके अपने भीतर खेल रहा था और उनकी पारखी नजर के सामने भविष्य की खूबसूरत दुनिया आकार ले रही थी। डॉ जगदीश गुप्त बहुमुखी प्रतिभा के कमल थे।

जिंदगी को देखने का उनका नजरिया बिल्कुल अलग था और वह विभिन्न माध्यमों के जरिए इतना कुछ कहना चाहते थे, रचना चाहते थे जिसकी कल्पना भी आज कर पाना बहुत मुश्किल है। परिश्रम करना डॉक्टर जगदीश गुप्त की आदत में शुमार था लेकिन अनुभव अनुभूतियां और विचारों को नए आकारों में ढालकर एक नई रचना पैदा कर देना, केवल और केवल डॉ जगदीश गुप्ता को आता था। उन्होंने कभी वह सब नहीं लिखा जो उनके समकालीन किसी रवायत के चलते लिख रहे थे। साहित्य में उनकी प्रतिस्पर्धा भी किसी के साथ नहीं थी। ज्यादा लिखने में उनका भरोसा नहीं था।

वह सिर्फ और सिर्फ अच्छा लिखना चाहते थे और इस अच्छे की तलाश में उन्होंने बहुत सारे नए प्रयोग किए जिसने साहित्य और कला के क्षेत्र को समृद्ध किया और आश्चर्य में भी डाल दिया। कविताओं की जितनी वैरायटी डॉ जगदीश गुप्त के कविता संसार में मिलती है, उतनी उनके समकालीन अन्य कवियों में नहीं दिखाई देती। सुप्रसिद्ध आलोचक रवि नंदन सिंह के हवाले से अगर हम कहें तो डॉक्टर जगदीश गुप्त किसी दौड़ में शामिल नहीं थे। यह बात इसका भी प्रमाण है कि डॉ जगदीश गुप्त के लिए साहित्य सृजन किसी गंभीर साधना के बीच से गुजर कर समाज के लिए एक दुनिया को खूबसूरत बनाने वाली जमीन तैयार करना था। डॉ जगदीश गुप्त का सृजन किसी जल्दबाजी या अतिरिक्त उत्तेजना से पैदा हुआ सृजन नहीं है बल्कि बहुत गंभीरता से उन्होंने इसे सोच को सार्थकता और विस्तार देने की विनम्र कोशिश की। 

पिछले दिनों डॉक्टर जगदीश गुप्त के बड़े पुत्र और राष्ट्रीय सहारा अखबार के वरिष्ठ फोटो पत्रकार विभू गुप्त ने बड़ी मेहनत करके एक-एक मोती चुनकर यथोचित संपादित कर ‘वासुनामा’ टाइटल से लगभग 600 पेज की जगदीश गुप्त की एक और कविता पुस्तक प्रकाशित करके हिंदी कविता जगत को समृद्ध किया है। पुस्तक में जिन कविताओं का संकलन किया गया वे सभी कविताएं डॉ जगदीश गुप्त की एक और कविता विशेषता को हमारे सामने लाती हैं। जैसा कि हम सब लोग जानते हैं कि डॉक्टर जगदीश गुप्त ने समाज के हर वर्ग के लिए बहुत सुंदर कविताएं लिखी हैं।

‘वासुनामा ‘ में संकलित कविताएं डॉ जगदीश गुप्त ने अपने पौत्र वासु के बचपन के खेल, उसकी जिज्ञासाएं, कवि के साथ उसका आत्मीय रिश्ता और चीजों के साथ वासु का रिश्ता बनाने के प्रयास को सहेज कर वासु के बचपन को यादगार बनाने की कोशिश की है। डॉ जगदीश गुप्त ने यह सारा काम कब किया, इसकी कभी किसी को खबर नहीं हुई। यहां तक कि परिवार में भी किसी को नहीं पता चला की इतना महत्वपूर्ण काम डॉ जगदीश गुप्ता सब की नजरों से बचकर चुपचाप कर रहे थे। आज यह ‘वासुनामा ‘डॉक्टर जगदीश गुप्त की तमाम प्रकाशित किताबों में अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें बच्चों के प्रति डॉक्टर जगदीश गुप्त के भावनाओं का हरहराता समुद्र देखा जा सकता है। डॉक्टर जगदीश गुप्त को बच्चे बहुत प्रिय थे इसलिए उनके द्वारा किया गया यह लेखन हमें आश्चर्य में नहीं डालता बल्कि बड़ा स्वाभाविक लगता है।

जगदीश गुप्त तो सड़क पर चलते, घूमते बच्चों को भी गले लगा लेते थे। उनको खिलाते पिलाते थे और उन्हें बेहद प्यार करते थे, फिर वासु तो उनका अपना पौत्र है। उसके लिए तो उनका सब कुछ उसी का था। अब वासु बड़े हो गए हैं लेकिन उनके बाबा जहां भी होंगे, उन्हें नहीं भूल पाए होंगे और वासु भी अपने बाबा को कहां भूल पाए। बाबा पोते का यह रिश्ता साहित्य में पहली बार इस तरह पहली बार रेखांकित हुआ है और इस ‘वासुनामा’ ने न जाने कितने लेखकों और पाठकों को प्रेरणा दी है कि बाबा कैसे अपने पोते के जीवन में जाकर सुरक्षित हो जाते हैं। इस तरह की किताब हिंदी में पहली बार आई है और इसमें 262 ऐसी कविताओं को शामिल किया गया है जिसमें पोते का बचपन और बाबा का बालपन तमाम खूबियों के साथ अनुभूतियों के स्तर पर एक चित्रकार की दृष्टि से हमें देखने को मिलता है। हिंदी में इस तरह की कविताएं बहुत कम कवियों ने लिखी हैं।

पोते की एक-एक हरकत पर कवि की नजर है और कोई बच्चा बड़ों की दुनिया में कैसे शामिल होता है और क्या सोचता है, मीठी मीठी भाषा में इसकी बहुत सी तस्वीर हमें देखने को मिलती हैं। डॉ जगदीश गुप्त की किताबों में यह किताब हमेशा याद रखी जाएगी जिसने पहली बार साहित्य में बाबा और पोते के रिश्ते को, प्यार को इस तरह से सहेजा है कि पढ़ते समय मन मयूर हो जाता है। डॉ जगदीश गुप्त जब कुछ लिखा करते थे तो बहुत प्यार से सबको सुनाते थे और मुझे बहुत आश्चर्य है कि डॉक्टर जगदीश गुप्त ने इन कविताओं को लिखते समय कैसे सबसे इसे छुपा कर रखा। कविता में बाबा और पोते के प्रेम को एक लंबी आयु मिली है। वासु भाग्यशाली हैं जिनके बाबा आज भी उनके साथ हैं।

इस शानदार पुस्तक के लिए मैं व्यक्तिगत रूप से डॉक्टर जगदीश गुप्त के पूरे परिवार, उनके मित्रों और उनके हजारों हजार पाठकों को बहुत सारी बधाइयां देता हूं। हिंदी में इस तरह का काम पहली बार हुआ है और हमें यह एहसास करवा गया कि रिश्ता कोई भी छोटा नहीं होता और बाबा और पोते का रिश्ता तो सबसे बड़ा होता है। मां बेटे के रिश्ते के बाद डॉ जगदीश गुप्त ने इस रिश्ते को हमेशा के लिए अमर बना दिया। जिस भी घर में बड़े बुजुर्ग हैं और उनके पास एक पोता है, उसे घर में यह पुस्तक प्यार का एक नया संसार रचेगी।

हम कह सकते हैं कि इस किताब के साथ बाबा भी हमेशा जिंदा रहेंगे। विभु को इस किताब के संपादन के लिए बहुत सारी बधाई। योग्य बेटे अपने पिता की स्मृति को सहेजने का अवसर खोजते ही रहते हैं और विभु ने यही किया है। यहां पर इस बात का उल्लेख करना मुझे बहुत जरूरी लग रहा है कि पिछले दिनों यश मालवीय की भी ‘चिया की साइकिल’ शीर्षक से बाल कविताओं का एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। इस कविता संग्रह में वरिष्ठ गीतकार यश मालवीय ने अपनी पोती चिया के लिए बहुत प्यारे प्यारे गीत लिखे हैं।

(अजामिल प्रख्यात कवि, चित्रकार और रंगकर्मी हैं।)

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