दोस्तो, सबसे पहले एक सीधा सवाल-
क्या मैच रेफरी या अंपायर, खिलाड़ी की भूमिका में आ सकते हैं?
यानी एक रेफरी या अंपायर की जगह वह अपने देश के प्रतिनिधि के तौर पर मैदान में खड़े हो सकते हैं।
निश्चित ही आपका जवाब होगा– नहीं। और अगर कोई करता भी है तो नहीं करना चाहिए। यह खेल के नियमों के विरुद्ध है।
रेफरी या अंपायर का काम है नियमों के हिसाब से खेल खिलाना, सही फ़ैसला देना। ना कि किसी पक्ष की तरफ़ से बैटिंग यानी पक्षपात करना।
लेकिन क्या यही नियम दो देशों के संघर्ष के दौरान पत्रकारों के लिए भी लागू होते हैं या हो सकते हैं?
क्या पत्रकारिता के भी कोई नियम-नैतिकता होती है। कोई नियंत्रण रेखा या लक्ष्मण रेखा होती है, या होनी चाहिए?
क्या पत्रकार सरहद पर ‘नो मैन’ज़ लैंड’ (No Man’s Land) जैसे स्थान पर खड़े होकर वस्तुपरक रिपोर्ट कर सकता है?
(No Man’s Land यहां एक रूपक है। हालांकि यह बॉर्डर की वह जगह होती है जो दोनों देशों को बीचो-बीच में आती है, उन्हें मिलाती भी है और अलग भी करती है यानी वह जगह जो किसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती है। जैसे आपने वाघा बॉर्डर पर देखी होगी)
या हम महाभारत के संजय की तरह अपने राजा (सरकार) या जनता को युद्ध का हाल सुना सकते हैं!
यह सवाल अक्सर मेरे ज़ेहन में आता है। लेकिन भारत-पाक संघर्ष के दौरान इस सवाल ने मुझे बार-बार परेशान किया।
यहां आप शायद मुझसे कहें कि ऐसे में मुझे अपने देश के साथ खड़े होना चाहिए। लेकिन क्या ऐसा करते हुए मुझे सच छुपा लेना चाहिए। तथ्य तोड़-मरोड़ देने चाहिए। और वो भी किसके हित में, ‘धृतराष्ट्र’ (हुक्मरान) के या जनता के!
राज्य बनाम राष्ट्र
मैं यूपी का रहने वाला हूं। यह मेरी जन्मभूमि है और मुझे सबसे प्रिय। कल अगर यूपी और बिहार के बीच किसी बात को लेकर झगड़ा हो तो मुझे किसका पक्ष लेना चाहिए, किसकी तरफ़ खड़े होकर रिपोर्टिंग करनी चाहिए?
या हरियाणा और पंजाब के सतलुज-यमुना लिंक (SYL) नहर विवाद में पंजाब और हरियाणा के पत्रकारों को किसके साथ खड़ा होना चाहिए! इसी तरह कर्नाटक-तमिलनाडु और आंध्र-तेलंगाना के बीच पानी का विवाद है। तो वहां के पत्रकार किसका पक्ष लेंगे।
क्या आप इसकी सराहना करेंगे कि मणिपुर के पत्रकार भी मैतई और कुकी समुदाय में बंट कर घटनाओं की रिपोर्टिंग करें।
क्या हिंदू-मुसलमान के झगड़े में मुझे हिंदू पत्रकार बन जाना चाहिए?
हालांकि आज इस मामले में तो ऐसा ही हो रहा है। हिंदी पत्रकारिता लंबे समय से हिंदू पत्रकारिता में बदल गई है। और अब तो अंग्रेज़ी का भरम भी टूट चुका है।
आप कहेंगे कि ऊपर के उदाहरण तो एक ही देश के मामले हैं। इसलिए तो इसमें आपको तथ्यात्मक और निष्पक्ष रिपोर्टिंग ही करनी चाहिए।
लेकिन यही बात दो देशों के संदर्भ में क्यों नहीं लागू होती?
युद्धकाल और पत्रकार का धर्मसंकट
हालांकि पत्रकार भी एक देश का नागरिक होता है और उसमें भी अपने देश के लिए भावना होती है। यह बेहद स्वाभाविक है। लेकिन क्या फिर हमें सही ख़बर, सही स्थिति जानने के लिए किसी तीसरे पक्ष पर निर्भर होना पड़ेगा। क्योंकि सही स्थिति न जानना, अंधेरे में या भ्रम में रहना, अपनी कमियों को छुपाना भी हमें जीवन और युद्ध हर मैदान में नुकसान पहुंचा सकता है।
हालांकि यह तीसरा पक्ष भी पूरी तरह विश्वसनीय और निरपेक्ष नहीं होता क्योंकि इस तीसरे पक्ष या तीसरे देश के भी किसी मसले को लेकर अपना रुख़ और हित निहित होते हैं। यह हम फ़िलिस्तीन में इज़रायल के नरसंहार और रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भी पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टिंग में देख सकते हैं।
फिर भी कई मामलों में हमें उन देशों की अपेक्षा जो संघर्ष में होते हैं, किसी तीसरे पक्ष यानी अंतरराष्ट्रीय मीडिया के ज़रिये कुछ सच्ची तस्वीरें मिल जाया करती हैं।
पत्रकारिता के लिए सबसे ज़रूरी
पत्रकारिता की परिभाषा में एक पत्रकार के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ है सच के प्रति जवाबदेही और
निष्पक्षता।
हालांकि मैं यह भी मानता हूं कि सच का मतलब सिर्फ़ “दोनों पक्ष दिखाना” नहीं होता, बल्कि यह जानना होता है कि कौन झूठ बोल रहा है, कौन तथ्य छिपा रहा है, और किसे बोलने नहीं दिया जा रहा।
“निष्पक्षता” का मतलब भी ये नहीं कि शोषक और शोषित को बराबर एक तराज़ू में रख दिया जाए। अगर कोई सत्ता और ताक़त का ग़लत इस्तेमाल कर रहा है, तो पत्रकार का कर्तव्य है कि वह शोषित की आवाज़ बने।
मेरे हिसाब से यही पत्रकारिता की परिभाषा है और इस आधार पर रिपोर्टिंग हो, तो उसमें क्या ग़लत है! और दो देशों के संदर्भ में मेरा ‘No Man’s Land’ रूपक का यही आशय है।
न्यूनतम नियम और नैतिकताएं
जो देश युद्ध या आपदा में हैं, उसके पत्रकार के सामने बड़ा धर्मसंकट रहता है (देशभावना के साथ सरकार की सेंसरशिप का भी डर)।
फिर भी ऐसे संकटकाल में भी कुछ न्यूनतम नियम और नैतिकताएं तो तय होती हैं या होनी चाहिए, अगर हम देशहित या देश की सुरक्षा के मद्देनज़र युद्धकाल में पूरा सत्य और तथ्य नहीं बता सकते तो कम से कम उसमें झूठ तो न मिलाएं। यानी भले ही कम रिपोर्ट करें, संयम से रिपोर्ट से करें, लेकिन उसे तोड़-मरोड़कर एक झूठे या भ्रामक प्रचार में न बदल दें।
भारत-पाकिस्तान के हालिया संघर्ष के दौरान भारतीय गोदी/ कॉरपोरेट मीडिया ने अपनी साख मिट्टी में मिला दी है। वैसे ही हम 2025 में भी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में 151वें स्थान पर हैं।
कुछ इसी तरह का व्यवहार पाकिस्तान मीडिया में भी देखने को मिला और दोनों तरफ़ से पत्रकारिता के एथिक्स और विवेक को ताक पर रखकर झूठ और युद्धोन्माद परोसा गया।
हालांकि यहां यह भी उल्लेखनीय है 2008 के 26/11 के मुंबई हमले के दौरान एकमात्र ज़िंदा पकड़े गए आतंकवादी अज़मल आमिर कसाब के पाकिस्तान स्थित घर तक हमें पाकिस्तानी मीडिया ही ले गया था और पूरी दुनिया ने सुबूत देखा था कि इस हमले में सीधे तौर पर पाकिस्तान का हाथ था, जिससे पाकिस्तान भी इंकार नहीं कर पाया था।
तो क्या उसे पाकिस्तान में देशद्रोही मीडिया कहा गया। मेरी जानकारी में नहीं। और क्या हम उसे देशद्रोही मीडिया कहेंगे, नहीं, हमने तो उसकी तारीफ़ की।
इसी तरह 1999 में मई से लेकर जुलाई तक भारत-पाकिस्तान के बीच चले करगिल युद्ध के दौरान बिल्कुल बीच के समय जून के अपने अंग्रेज़ी संस्करण में इंडिया टुडे ने कवर स्टोरी की- “Blunders in Kargil” और तत्कालीन केंद्र की अटल सरकार और खुफिया एजेंसियों की चूक पर सवाल उठाए थे।
ऐसे ही मुंबई में 2008 के 26/11 हमलों के बाद, मीडिया ने सुरक्षा एजेंसियों की विफलताओं और राजनीतिक नेतृत्व की निष्क्रियता पर सवाल उठाए। जिसके चलते तत्कालीन मनमोहन सरकार में गृहमंत्री शिवराज पाटिल को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
लेकिन इस समय अपने देश में उल्टा ही हिसाब चल रहा है। कॉरपोरेट मीडिया दिन-रात मोदी सरकार की डुगडुगी बजा रहा है, और सवाल पूछने वाले जनवादी-वैकल्पिक मीडिया को देशद्रोही तक कहा जा रहा है।
फ़ेक और हेट न्यूज़ में बदलती पत्रकारिता
भारत-पाकिस्तान संघर्ष ही नहीं इससे पहले भी चाहे वह नोटबंदी का समय हो, या कोविड का। सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन का समय हो या किसान आंदोलन का। लंबे समय से ख़ासकर 2014 के बाद तो हर बार भारत के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया ने न केवल निराश किया है, सत्ता का भोंपू बना बल्कि जनता के ख़िलाफ़ ही खड़ा नज़र आया।
अल्पसंख्यक ख़ासकर मुसलमानों के मामले में तो यह बुरी तरह इस्लामोफोबिक है यानी मुसलमानों से डर और नफ़रत की राजनीति का एक टूल बन गया है।
एक लाइन में कहूं तो भारतीय मीडिया अब हिटलर के प्रचार मंत्री (Minister of Propaganda) जोसेफ गोएबेल्स की भूमिका में है, जिसका कहना था कि-“अगर आप एक झूठ को बार-बार दोहराते हैं, तो वह सच लगने लगता है।”
और इतना ही नहीं इस समय तो हम “रेडियो रवांडा” से होड़ लेते दिख रहे हैं {1994 में रवांडा जनसंहार (Rwandan Genocide) के दौरान रेडियो ने हज़ारों लोगों की हत्या में सीधी भूमिका निभाई, और इसे “हेट रेडियो” यानी “नफ़रत फैलाने वाला रेडियो” कहा गया।}।
कोई तो मानदंड हो
अब इन सब उदाहरणों को सामने रखते हुए आप देश-धर्म, नैतिकता और पत्रकारिता के मापदंड तय कीजिए और बताइए कि आपको क्या चाहिए।
आपको एक झूठी ख़बर चाहिए जो आपको वास्तविक ख़तरों से आगाह करने की बजाय एक काल्पनिक दुनिया में ले जाए जैसे इस्लामाबाद पर कब्ज़ा, जनरल मुनीर हिरासत में या सच्ची और सवाल पूछने वाली जो भले ही कड़वी गोली की तरह हो पर आपके देश, आपके लोकतंत्र की सेहत के लिए ज़रूरी हो।
सही समय पर सही सवाल
आप कह सकते हैं कि सवाल पूछना ग़लत नहीं है लेकिन ज़रूरी है कि सही समय पर सही सवाल पूछे जाएं। लेकिन यह सही समय कौन तय करेगा?
सवाल के मामले में सरकार के लिए हर समय ग़लत है। उन मोदी जी के लिए भी जो आज भी हर समस्या के लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को दोष देते हैं।
कब पूछें सवाल
आप बताइए 22 अप्रैल को हुए पहलगाम हमले को लेकर यह सवाल पूछना कब ग़लत था कि उसके दोषी आतंकवादी कहां से आए और कहां गए। और क्या एक महीने बाद भी भारतीय मीडिया यह सवाल पूछ रहा है? नहीं तो क्यों नहीं!
10 मई को हुए सीज़फायर को लेकर आपकी नज़र में किस तारीख़ के बाद ये सवाल पूछे जा सकते हैं कि इस संघर्ष में हमने क्या खोया-क्या पाया। क्या मोदी जी को रैलियां और रोड शो करने की बजाय विशेष सत्र बुलाकर संसद का सामना नहीं करना चाहिए!
और अगर पत्रकारिता और पत्रकार देश-समुदाय में इस तरह बंट जाएगी तो वो क्या पत्रकारिता बचेगी? और कोई भी सत्य और तथ्य सामने आ पाएंगे, या आ पाते कि खाड़ी युद्ध क्यों हुआ या इराक को किस झूठ की बुनियाद पर नष्ट किया गया।
क़ीमत जनता ही चुकाती है
याद रखना चाहिए कि युद्ध दो देशों के बीच नहीं दो हुक्मरानों के बीच होता है, लेकिन उसकी क़ीमत अंतत: आम जनता को ही चुकानी पड़ती है। चाहे वो रूस-यूक्रेन का मुद्दा हो या ट्रंप साहब की टैरिफ़ वॉर का। टैरिफ़ बढ़ाने से अमेरिका को ज़्यादा टैक्स तो मिलेगा लेकिन सामान की बढ़ी क़ीमतें अंतत: अमेरिकी जनता ही चुकाएगी। इसलिए जनता को पूरा सच जानने का अधिकार होना चाहिए।
ईमान की बात
मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे”। यही सवाल आज सभी लेखक-बुद्धिजीवियों के साथ-साथ पत्रकारों के सामने यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है।
प्रेमचंद के ही शब्दों में- “सच्चा साहित्य राजनीति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि राजनीति के आगे मशाल लिए चलता है।”
क्या यही बात पत्रकारिता के लिए कही जा सकती है?
(लेखक मुकुल सरल क़रीब तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।)