इस्तांबुल/नई दिल्ली। कुछ लोग तारीख़ नहीं बदलते, तर्ज़-ए-फ़िक्र बदलते हैं। कुछ नाम अपने वजूद से नहीं, अपने असर से ज़िंदा रहते हैं। और कुछ कामयाबियां ईनाम नहीं होतीं- वो दुआओं की मंज़ूरी होती हैं, जो सहर की पहली रौशनी बनकर दुनिया की पेशानी पर उतरती हैं।
आसिफ मुज़तबा, पेशे से सामाजिक कार्यकर्ता और Miles2Smile Foundation के संस्थापक हैं।
उन्होंने अपनी शुरुआती तालीम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हासिल की, और फिर IIT दिल्ली से उच्च शिक्षा लेकर उस रौशनी को अपने भीतर समेटा जो सिर्फ़ किताबों से नहीं, क़लम की ज़िम्मेदारी से पैदा होती है।
ग्लोबल डोनर्स फोरम 2025 में, जब Miles2Smile को “सतत प्रथाओं में नवाचार” (Innovation in Sustainable Practices) की श्रेणी में दूसरा स्थान और $20,000 की ईनामी राशि मिली — तो ये महज़ एक NGO की जीत नहीं थी, ये इंसानियत की आवाज़ की तसदीक़ थी।

“मैंने ग़ाज़ा की जीत के लिए दुआ की थी… और ये ईनाम उन ग़मज़दा आंखों का है जो मुस्कराना सीख रही हैं।”
जब आसिफ ने माइक थामा, तो पूरी महफ़िल में ख़ामोशी पसर गई- एक ऐसी ख़ामोशी जिसमें तहज़ीब की सिसकियां थीं और इंक़लाब की गूंज।
उनके लफ़्ज़ों ने आईने की तरह दुनिया को दिखाया कि:
“हम आंकड़े नहीं हैं – हम उस स्याही की आख़िरी बूंद हैं जिससे अब भी मोहब्बत लिखी जाती है।
हम वो सवाल हैं जो हर सुबह अपनी सलामती का जवाब मांगते हैं।
और याद रखिए- कत्लेआम गोलियों से नहीं, ख़ामोशियों से शुरू होते हैं।”
Miles2Smile: जहां राख से उम्मीद की कलियां फूटती हैं

2020 में दिल्ली दंगों के बाद जन्मी ये तहरीक, सिर्फ़ राहत पहुंचाने तक सीमित नहीं रही- इसने तालीम, सेहत, पुनर्वास और मुस्कराहट लौटाने का बीड़ा उठाया।
आसिफ और उनकी टीम ने सिर्फ़ ज़ख़्म नहीं देखे, बल्कि मरहम भी बनाए- और सबसे बड़ी बात, उन्होंने हर मुस्कराहट को नफ़रत के जवाब में पेश किया।
आसिफ मुज़तबा: जब तालीम तहज़ीब में ढल जाती है
अलीगढ़ और IIT की गलियों से निकला ये नौजवान, जब शाहीन बाग़ में संविधान की तहरीर को अपनी आँखों में लेकर खड़ा हुआ, तो लोगों ने देखा कि कैसे एक पढ़ा-लिखा शख़्स इंक़लाब को अदब के लहजे में ढाल सकता है।
आज भी जब वो किसी स्कूल की दीवार पर बच्चों के नाम टांगते हैं, तो NGO का निशान नहीं, एक बड़े भाई की छांव उनके चेहरे पर होती है।
इस जीत का नाम- इंसानियत
जब इस्तांबुल की महफ़िल तालियों से गूंज रही थी, तो आसिफ का सिर झुका हुआ था।
क्योंकि उनके लिए ये इनाम एक तमगा नहीं, एक तस्बीह था- जिसमें हर दाना किसी मज़लूम की मुस्कराहट से रौशन था।
“जहां लोग नफ़रत की दीवारें उठाते हैं,
वहां हम मोहब्बत की ज़मीन तैयार करते हैं।
और अगर एक मासूम मुस्कराहट बच जाए-
तो समझो इंक़लाब मुकम्मल हुआ।”
और उस मुस्कराहट का सबसे रौशन नाम है- आसिफ मुज़तबा।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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