क्या सरकार को इस समय चीन से कुछ नहीं सीखना चाहिए?

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चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने आज कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक में कोरोना से संघर्ष के चीन और दुनिया के अनुभवों को समेटते हुए आगे के कदमों की चर्चा की । 

इस चर्चा में उनका पूरा बल सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्रों को सुरक्षित करते हुए यथाशीघ्र पूरी तरह से खोल कर अर्थ-व्यवस्था को सक्रिय करने पर था। वे सार्वजनिक परिवहन के सभी माध्यमों, बाज़ारों और कल-कारख़ानों को खोलने पर बल दे रहे थे । सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को एक नई ऊँचाई तक ले जाने के लक्ष्य की बात भी कर रहे थे ।

ग़ौर करने की बात यह है कि शी जिन पिंग इन सारे क्षेत्रों को खोलने के साथ ही चीन की जनता को ग़रीबी से पूरी तरह से मुक्त करने के कार्यक्रम पर भी उतना ही बल दे रहे थे । 

चीन के इस रास्ते की पृष्ठभूमि में जब हम भारत की अभी की स्थिति पर विचार करते हैं, तब यहाँ सबसे पहले तो लॉकडाउन को खोला जाए या नहीं, यही सबसे अधिक चिंता का विषय बना हुआ है । कोरोना के मोर्चे से आ रही ख़बरों से कोई इसके बारे में अभी साफ दिशा-निर्देश नहीं खोज पा रहा है । 

इसके अलावा, जो सरकारें लॉक डाउन के चलते करोड़ों साधारण लोगों की बदहाली के हवाले से क्रमिक रूप में खास-खास क्षेत्रों में खोलने के बारे में विचार कर रही हैं, वे भी किसी प्रकार की सार्वजनिक सेवाओं को खोलने के बारे में सोच ही नहीं पा रही हैं । हाट-बाज़ार से लेकर शहरों के बाज़ारों और मॉल्स को बंद रखने के ही पक्ष में सब हैं । दुकानें खुल सकती हैं – वे भी ‘स्टैंड अलोन’, अर्थात् बाज़ारों के बाहर की दुकानें । उसमें भी, केंद्र सरकार के निर्देश के अनुसार आधे कर्मचारियों के साथ ।

अर्थात्, व्यापक स्तर पर जनता की आर्थिक परेशानियों का मुद्दा लगता है हमारे देश के शासकों के ज़ेहन में ही नहीं है । कर्मचारियों की संख्या कम कर दो, ऐसी सिफ़ारिशें करने में मोदी सरकार को रत्ती भर का भी समय नहीं लगता है । 

सार्वजनिक परिवहन सेवाओं, रेलवे और बस सेवाओं को खोलने का विचार भी इनसे कोसों दूर है । ये हवाई सेवाओं को खोलने के बारे में सोच सकते हैं, पर बस में इतनी सुरक्षा नहीं दे सकते हैं कि वे कम से कम अपनी सीटों की क्षमता के अनुसार यात्री के साथ चल सकें । 

और, इस पूरे संकट ने भारत के पहले से ही ग़रीबी की मार झेल रहे लोगों की कितनी बुरी दशा की है, इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है । शहरों के ग़रीबों का एक बड़ा हिस्सा अभी भिखमंगों की स्थिति में चला गया है, फिर भी केंद्र सरकार उन्हें कम से कम अपने गाँव और परिजनों के पास जाने तक की ज़िम्मेदारी लेने के लिये तैयार नहीं है । 

ये तमाम परिस्थितियाँ ही दिन के उजाले तरह साफ कर देती है कि चीन और भारत के शासकों के सोच की दिशा बुनियादी रूप से कितनी भिन्न है । चीन इस अवसर पर ग़रीबी को पूरी तरह से ख़त्म करने की बात पर बल दे रहा है, और हमारे यहाँ बैंकों से रुपये चुराने वाले बड़े लोगों को राहत देने के उपाय किये जा रहे है ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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