दुनिया के शीर्ष अमीर देशों में शामिल अर्जेंटीना आज क्यों बर्बादी के कगार पर खड़ा है?

1930 से पहले विश्व के चोटी के 10 धनी देशों में से एक अर्जेंटीना में आज 40% लोग गरीबी रेखा में जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं। यह कोई एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि इसके पीछे एक अंतहीन कहानी छिपी है, जिसमें नव-साम्राज्यवादी डिजाइन के तहत अमेरिकी डिक्टेट पर विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शातिराना भूमिका देखी जा सकती है। जैसे रात के अंधियारे में दीपक की रोशनी को देखते ही पतंगा मतवाला होकर बार-बार झुलसने के बाद भी उसे चूमने की कोशिश में मारा जाता है, कुछ उसी प्रकार अर्जेंटीना की नियति उसे उन्हीं जालिम सूदखोरों और साम्राज्यवादियों की शरण में अपनी किस्मत बदल जाने की आशा में झोंक रही है।

दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जेवियर माइली ने 56% वोट हासिल कर अप्रत्याशित जीत दर्ज की है, जिसकी पूरी दुनियाभर में चर्चा हो रही है। इसे विश्व का छठा सबसे महत्वपूर्ण चुनाव माना जा रहा था, जिसमें विजेता राष्ट्रपति के पास देश में मौजूद दीर्घकालिक अति मुद्रास्फीति को दुरुस्त करने की चुनौती के साथ-साथ पिछले 10 वर्षों में छठी बार मंदी की मार से रोकने की बेहद दुरूह चुनौती है।

लेकिन जेवियर माइली, जिन्हें औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के लिए 10 दिसंबर तक का इंतजार करना होगा, ने अभी से कहना शुरू कर दिया है कि देश में पहले छह माह बेहद कठिन होने जा रहे हैं। लेकिन उन्होंने यह खुलासा नहीं किया है कि समाज के किन वर्गों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। अभी से राजनीतिक विश्लेषक अंदाजा लगा रहे हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र ही संभवतः उनके निशाने पर सबसे पहले आने वाला है, जिसमें धुर दक्षिणपंथी जेवियर माइली सरकार भारी कटौती करने जा रही है।

तीसरी दुनिया के देशों के लिए अर्जेंटीना का सबक

भारत जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र के 140 करोड़ लोगों के लिए अर्जेंटीना एक केस स्टडी के तौर पर है, जिसका इतिहास बेहद शानदार रहा है, लेकिन आज नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद परस्त नीतियों के घोर समर्थक सत्ताधारी वर्ग की बदौलत अर्जेंटीना की अर्थव्यस्था, व्यापक आबादी और उद्योग-धंधे पूरी तरह से तबाह हो चुके हैं। हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि यदि समाजवादी आदर्श के साथ कोई सेंटर-लेफ्ट समर्थक सरकार भी केंद्र में आ जाती है, तो उसके लिए भी हालात को सामान्य बनाने की गुंजाइश बहुत क्षीण रह जाती है। नतीजतन आम लोगों के बीच असंतोष बना रहता है, और कॉर्पोरेट-बड़े भू-स्वामी गठजोड़ की साजिश उस सरकार को बदनाम कर पहले से भी उग्र दक्षिणपंथी राष्ट्रपति के लिए आधार प्रदान कर देते हैं।

जेवियर माइली की जीत लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा हादसा

अपने चुनाव प्रचार में chain saw (डायमंड कटिंग मशीन) को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करने वाले जेवियर माइली ने अपनी जीत के बाद जो कहा है, वह अर्जेंटीना के आम जनता के लिए बहुत भारी पड़ने वाला है। देश पहले ही भारी महंगाई (hyper inflation) के दौर से गुजर रहा है। महंगाई अविश्वसनीय 140% के स्तर पर पहुंच चुकी है, लेकिन उनकी ओर से 3 घोषणाएं की गई हैं।

(1) अलोकप्रिय मितव्ययता (austerity) उपायों को अपनाने की वजह से अगले कुछ महीने “बेहद कठिन होने जा रहे हैं”।

(2) उनके प्रशासन की शुरुआत के लगभग दो साल बाद (यानी 2026 तक) मुद्रास्फीति में काफी गिरावट आएगी, अर्थात अगले दो वर्षों तक कड़वी गोली खाते हुए अच्छे दिनों का इंतजार करना होगा।

(3) कुछ राजकीय स्वामित्व वाली कंपनियों का निजीकरण किया जाएगा, जैसे वाईपीएफ (अर्जेंटीना की राजकीय ऊर्जा एवं गैस कंपनी), एरोलिनीस अर्जेंटीनास, सार्वजनिक मीडिया इत्यादि। इसके साथ ही, उन्होंने “चिली-शैली” वाले निजीकरण वाले पब्लिक वर्क मॉडल को प्रस्तावित किया है।

लेकिन ये तो वही बातें हैं, जिनके आधार पर उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मतदाताओं के सामने तकरीर की थी, और लोगों ने उन्हें भारी समर्थन दिया है? जिस प्रकार से जहर या अफीम किसी इंसान को मौत की नींद सुलाने के लिए कारगर साबित होते हैं, लेकिन यही तत्व यदि चिकत्सकीय परामर्श के साथ जीवनदायी साबित होते हैं, उसी प्रकार एक ही आर्थिक उपाय किसी भी अर्थव्यस्था के घातक या जीवनदायी साबित हो सकता है। यहां पर बड़ा सवाल यह रह जाता है कि उस्तरा किसके हाथ में है?

आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक से ऋण लेने या विदेशी निवेश को आकर्षित कर चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे देश तीव्र आर्थिक विकास के विभिन्न चरणों में मौजूद हैं, तो अर्जेंटीना, श्रीलंका, ग्रीस सहित दर्जनों देशों की कहानी इसके बिल्कुल उलट है। चीन और दक्षिण कोरिया के बीच भी कई भिन्नताएं हैं, और उसे गहराई से समझने के लिए उनके समाजों और पूंजी निर्माण को समझना होगा। लेकिन फिलहाल हम यहां अर्जेंटीना के माध्यम से एक क्लासिक केस को समझने की कोशिश करते हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में विकासशील देशों के लिए यही पटकथा लिखी गई है।

18 दिसंबर 2022 के जिओपोलिटिकलइकॉनमी.कॉम में एस्तेबन अलिमोरन ने अर्जेंटीना के 200 वर्षों के आर्थिक इतिहास का जायजा लेते हुए बेहद समीचीन लंबा लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने बताया है कि किस प्रकार दुनिया का सबसे अमीर देश अर्जेंटीना नव-साम्राज्यवादी एजेंडे के तहत आज दुनिया में भिखमंगे की हालत पर पहुंच चुका है। अर्जेंटीना के लिए कर्ज पिछले 200 वर्षों में दासता की नई पटकथा लिख रहा था, जिसकी शुरुआत पहले-पहल पौंड में कर्ज से हुई थी, और 1944 के बाद डॉलर की बादशाहत के बाद डॉलर ही सर चढ़कर बोल रहा है। शायद यही वजह है नए राष्ट्रपति के अर्जेंटीनी मुद्रा पेसो को डॉलर से स्थानापन्न करने की।

1824 में आजाद अर्जेंटीना कैसे नव-औपनिवेशिक दासता के चंगुल में फंसा

यह बात है 1824 की, जब स्पेनी साम्राज्य से मुक्ति के मात्र 8 साल हुए थे। अर्जेंटीनी गणराज्य ने बरतानवी बैंक, बरिंग्स बैंक से 10 लाख पौंड का कर्ज (ब्यूनस आयर्स पोर्ट के निर्माण) आज के हिसाब से 110 अरब पौंड लिया था, जिसे चुकाने में 80 वर्ष गुजर गये, जिसके पीछे की कहानी इतनी दिलचस्प और लोमहर्षक है, लेकिन उसे यहां पर बताना संभव नहीं है। संक्षेप में कहें तो आधी रकम तो कमीशन और कर्ज के लिए की गई वार्ताओं में खर्च हो गई, और बाकी की रकम में से बड़ा हिस्सा ब्राजील के साथ 3 वर्ष चले युद्ध में खर्च हो गया था। सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि इस युद्ध में ब्राजील के पीछे ब्रिटेन ही खड़ा था।

लेकिन अर्जेंटीना के इतिहास में पेरोन काल को बेहद महत्वपूर्ण रूप से याद किया जाता है। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति जुआन डोमिंगो पेरोन ने एक प्रगतिशील राष्ट्रवादी कार्यक्रम लागू किया, जिसके चलते देश में स्वतंत्रता और संप्रभुता को प्रोत्साहन मिला। उनके द्वारा दो पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से अर्जेंटीना में उद्योग को भारी बढ़ावा दिया गया, और उनके कार्यकाल में कुछ समय के लिए कर्ज के प्रभावों को बेअसर कर दिया। लेकिन 1955 में एक खूनी सैन्य तख्तापलट में पेरोन की सरकार को उखाड़ फेंका गया, और अर्जेंटीना में 1956 में तानाशाह पेड्रो यूजेनियो अरामबुरु के तहत आईएमएफ को प्रवेश करने का मौका मिला, जिसे पेरोन ने 1945 में ज्वाइन नहीं किया था।

अर्जेंटीना को दुनिया के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों में से एक माना जाता है, और इसके द्वारा अधिकांश निर्यात कृषि उत्पादों का किया जाता है। लेकिन इसी वजह से, अर्जेंटीना के जमींदार और उनके बेहद-रूढ़िवादी नागरिक संगठन और ग्रामीण समाज हमेशा से देश में बेहद शक्तिशाली रहे हैं।

अर्जेंटीना ने 1930 और 1950 के दशक के बीच जबरदस्त औद्योगिक विकास हासिल किया था। कुल सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से दुनिया के 10 सबसे अमीर देशों में अर्जेंटीना को शुमार किया जाता था। दीर्घकालिक आर्थिक विकास के आंकड़ों के अनुसार, प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से 1895 और 1896 में भी दुनिया में यह पहले स्थान पर था, हालांकि अर्जेंटीना की आबादी भी अपेक्षाकृत काफी कम थी। 1946 में जब पेरोन ने सत्ता संभाली, तो द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही के बीच यूरोप आर्थिक तौर पर तबाह था और अर्जेंटीना की प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सातवें पायदान पर थी।

1955 में, जब पेरोन को अमेरिका समर्थित सैन्य तख्तापलट में उखाड़ फेंका गया था, तब अर्जेंटीना 16वें स्थान पर था। दूसरी तरफ यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए वाशिंगटन की मार्शल योजना पर अमल किया जा रहा था, हालांकि तब भी 16वीं रैंकिंग बेहद उच्च कही जा सकती है, लेकिन यूरोप को वाशिंगटन की कृषि उत्पादों की मदद की नीति ने अर्जेंटीना के निर्यात पर बेहद नकारात्मक असर डाला था।

इसके बावजूद अर्जेंटीना की प्रति व्यक्ति जीडीपी लैटिन अमेरिका में सबसे अधिक थी, ब्राज़ील से लगभग पांच गुना अधिक, यहां तक कि औपनिवेशिक ब्रिटेन की तुलना में यह मात्र 19% कम और संयुक्त राज्य अमेरिका का 50% था। आज अर्जेंटीना की जीडीपी 600 बिलियन डॉलर है, जबकि अमेरिकी अर्थव्यस्था 32 ट्रिलियन डॉलर के पार जा चुकी है। 2016 तक अर्जेंटीनी अर्थव्यस्था गिरकर 63वें स्थान पर आ चुकी थी।

अमेरिकी उपमहाद्वीप में आर्थिक रूप से संपन्न देश, जिसकी स्वतंत्र आर्थिक एवं विदेश नीति हो और जो सोवियत संघ के साथ दोस्ती का हाथ बढाये, यह संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए अपने बैकयार्ड में एक ऐसे प्रतिद्वंदी को पालना था, जिसकी हर सफलता उसके आर्थिक साम्राज्य के लिए सीधी चुनौती थी। यही वजह है कि 1955 में पेरोन सरकार का तख्तापलट कर उग्र कम्युनिस्ट विरोधी, अरामबुरु के अनिर्वाचित सैन्य शासन को मान्यता दी गई, जिसने सोवियत गुट के साथ सभी प्रकार के संबंध तोड़ दिए और इस प्रकार शीत युद्ध के दौरान अर्जेंटीना को संयुक्त राज्य अमेरिका की नव-उपनिवेशवादी कक्षा में स्थानांतरित कर दिया।

20 सितंबर, 1956 में अर्जेंटीना ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की सदस्यता ग्रहण की, जिसके बाद से अब तक उसके द्वारा कुल 21 बार आईएमएफ से ऋण लिया जा चुका है। पहली स्टैंड-बाय व्यवस्था (एसबीए) 2 दिसंबर, 1958 को शुरू हुई। अर्जेंटीना द्वारा सबसे बड़ा ऋण 2018 में लिया गया, जो करीब 57 बिलियन डॉलर था। हालाँकि, 2006 में नेस्टर किर्चनर के नेतृत्व में, अर्जेंटीना ने अपने कर्ज के भुगतान की अदायगी कर खुद को आईएमएफ की डिफाल्टर लिस्ट में जाने से बचा लिया था।

लेकिन 2016 में दक्षिणपंथी मौरिसियो मैक्री के नेतृत्व में आईएमएफ और अर्जेंटीना के बीच फिर से संबंध स्थापित हो गये और देश की जीडीपी में लगातार गिरावट के कारण 2018 में डोनाल्ड ट्रम्प की सिफारिश पर एक बार फिर अर्जेंटीना को इतिहास का सबसे बड़ा कर्ज मुहैया करा दिया गया।

लेकिन जैसा कि हर नवउपनिवेशवादी लूट की योजनाओं से विकासशील देशों में प्रभाव देखने को मिलते हैं, अर्जेंटीना में भी इसे देखा जा सकता है। इसमें सबसे पहले, उस देश की अर्थव्यस्था से अर्जित मेहनत की कमाई को बैंकों और सट्टा फंड में स्थानांतरित करने की सुविधा प्रदान की जाती है, जो बड़े पैमाने पर संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप सहित सेफ हेवन्स वाले अपतटीय देशों में स्थित हैं।

दूसरा, ऐसे देशों में तानशाहों को सत्ता में स्थापित कर आईएमएफ जैसी संस्थाओं को अधिक से अधिक पहुंच की स्थिति में पहुंचाने और संप्रभु देशों के फंड्स को अमेरिकी अदालतों में घसीटकर इन ऋणग्रस्त अर्थव्यस्थाओं की आर्थिक, श्रम से लेकर विदेश नीति तक पर अपनी मजबूत दखल बनाने तक ले जाती हैं, जिसे वस्तुतः अर्ध-औपनिवेशिक स्थिति कहा जा सकता है। ऐसी अर्थव्यस्था में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारें भी अपनी जनता के लिए हितकारी नीतियों को लागू करने में वस्तुतः अक्षम साबित होने लगती हैं।

तीसरा, देश के बाहर से थोपी गई ये नीतियां स्थानीय परजीवी पूंजीवादी वर्ग को मजबूत करती हैं जो विदेशी नियंत्रण के शासन को बनाए रखने के लिए कारगर साबित होती हैं। ऐसा पूंजीपति वर्ग, अर्जेंटीना सहित समूचे लैटिन अमेरिका में हावी है, जिसे वामपंथी शब्दावली में दलाल पूंजी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जो विदेशी पूंजी के पिछलग्गू के तौर पर अपने ही देश के भीतर विदेशी शोषण से लाभ अर्जित करता है।

आज अर्जेंटीना के सामने करो या मरो की स्थिति है, राष्ट्रपति चुनावों से पहले ही देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा था। लेकिन जो मितव्ययी उपाय नवनिर्वाचित राष्ट्रपति लागू करने जा रहे हैं, उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि अर्जेंटीनी जनता के लिए श्रीलंका से भी कहीं बदतर स्थिति उत्पन्न होने जा रही है। नवउदारवादी नीति के तहत आइएमएफ से पहले ऋण और विदेशी निवेश और बाद में हल के नाम पर austerity measures की कड़वी गोली से देशवासियों को मारने के बीच में पश्चिमी देशों और विकासशील देशों के भीतर दलाल पूंजीपति वर्ग के संश्रय और सेफ हेवेंस में पूंजी के पलायन की यह कभी खत्म न होने वाली कहानी हर नए चरण में नई ऊंचाई को छूने लगती है। इसका नतीजा हर बार पहले से ज्यादा गरीबी, भुखमरी और नव-औपनिवेशिक लूट की ओर ही ले जाता है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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