अंततः दालमंडी के चौड़ीकरण का फैसला सरकारी स्तर पर लगभग ले लिया गया है, पीडब्ल्यूडी, नगर निगम और सदर तहसील प्रशासन की ओर से संयुक्त सर्वे रिपोर्ट जल्द ही कमिश्नर और जिलाधिकारी के समक्ष पेश की जानी है। लगभग 900 मीटर लंबी इस गली को 17 मीटर चौड़ा किए जाने की बात बताई जा रही है। कॉरिडोर के लिए पीडब्ल्यूडी की ओर से सर्वे पूरा कर लिया गया है, जिसमें 600 से ज्यादा भवन, कई धार्मिक स्थल व सरकारी भवन भी आ रहे हैं। बताया तो यह भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री खुद इस परियोजना की निगरानी कर रहे हैं। इसलिए इसी महीने के अंत तक इस प्रोजेक्ट को कैबिनेट द्वारा मंजूरी मिल जाने की संभावना बताई जा रही है।
सरकार कह रही है कि विकास होगा, विश्वनाथ मंदिर की ओर जाना आसान होगा, दर्शनार्थियों की सुविधा बढ़ जाएगी, पर सरकार यह जवाब नहीं दे रही है कि दसियों हज़ार दुकानों और उनसे जुड़े पचास हज़ार नागरिकों का क्या होगा जिनकी दुनिया ही उजड़ जाएगी।
क्या यह सिर्फ एक गली को चौड़ा करने भर का मामला है, या क्या सरकार सचमुच बस दर्शनार्थियों की सुविधाएं बढ़ाने के लिए यह सब कर रही है।
पर शायद अगर सिर्फ इतनी सी बात रहती तो दालमंडी गली के पास ही, नयी सड़क से कोदई चौकी होते हुए विश्वनाथ मंदिर तक जाने का रास्ता मौजूद था जिसे और बेहतर बनाया जा सकता था, और इस ऐतिहासिक गली को बनारस के इतिहास से गहरा रिश्ता है, को बचाया जा सकता था, पर ऐसा नहीं किया जा रहा है।
फिर आखिर किन वजहों से इस ऐतिहासिक गली को उजाड़ देने की योजना आनन-फानन में बना ली गई है।
एक बाज़ार जिसकी पहचान, बनारस के इतिहास के साथ इतना जुड़ा हुआ, और जिसे पूर्वांचल के आम लोगों का सुपर मार्केट तक माना-जाना जाता है, उसे अचानक क्यों इस तरह से निशाने पर लिया जा रहा है।
यह भी सोचने की बात है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, खुद इस परियोजना में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं, वो जब भी बनारस आते हैं, दालमंडी को उजाड़ने की परियोजना पर चर्चा तेज क्यों हो जाती है,
अब इन सब पहलुओं पर विस्तार से बातचीत करने की जरूरत और बढ़ गई है। पर सबसे पहले इस समृद्ध विरासत वाली गली दालमंडी के इतिहास को जानना ज़रूरी है।
इतिहास के आईने में दालमंडी….
दालमंडी कोई सामान्य गली नहीं है, बनारस के इतिहास के साथ ही दालमंडी का इतिहास भी जुड़ा हुआ है, इतिहास के अलग-अलग काल में दालमंडी की भी पहचान अलग-अलग रही है।
दाल की मंडी से शुरू होकर जल्दी ही दालमंडी की पहचान नृत्य व संगीत केंद्र के बतौर होने लगी, ठुमरी, दादरा और पुरबी की धुन चौतरफ़ा गूंजने लगी।
बिस्मिल्लाह खाँ साहब जिनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसी दालमंडी की एक गली, हड़हा सराय में गुज़रा, वो बार-बार कहा करते थे कि अगर ये कोठे न होते, ये नृत्य व संगीत न होते तो बिस्मिल्लाह खाँ भी नहीं होता।
बनारस घराने से जुड़े मशहूर तबला वादक लक्ष्मी महाराज भी जिस हवेली में रहते व रियाज़ करते हुए लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचे, वो हवेली भी दालमंडी में ही थी, जो अभी भी विराजमान है।
असल में लंबे समय तक दालमंडी की ताकतवर पहचान, नृत्य-संगीत व साहित्यिक केंद्र की ही बनी रही।
लंबे समय तक ठुमरी दादरा, पूरबी व हर तरह के राग, दालमंडी में गूंजते रहे, शहनाई शारंगी व तबले की धुन ही दालमंडी की पहचान बनती गई।
इसी लिए प्रख्यात सितारवादक उस्ताद विलायत खाँ ने बनारस को संगीत की ख़राद मशीन बताया जहां कलाकार की घिसाई होती है तब वह निखर कर सामने आता है।
साहित्यकारों के लिए भी दालमंडी बराबर आकर्षण का केंद्र बना रहा है, जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र तक ने अपने साहित्य में दालमंडी का बार-बार जिक्र किया है, जिस विदुषी महिला, मल्लिका को भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ जोड़ा जाता है, उनका भी मूल ठिकाना दालमंडी ही रहा है, जहां अक्सर भारतेंदु हरिश्चंद्र का आना-जाना बना रहा।
इसी रिश्ते को विषय बनाकर बाद में मनीषा कुलश्रेष्ठ ने एक बेहतरीन उपन्यास भी लिख डाला। जिसके जरिए और भी जानकारियां मिलती हैं कि मल्लिका मूलतः बंगाल की थी, बाल विधवा थी, और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की दूर की बहन भी थी।
देश व समाज में चल रहे तत्कालीन हलचलों से भी दालमंडी का गहरा रिश्ता रहा है, आज़ादी के आंदोलन में इस गली की यानि कि तमाम कलाकारों, नृत्यांगनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, उस दौर के तमाम क्रांतिकारियों को सुरक्षित शरण भी यहां मिलता रहा है, और ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र में स्थित राजेश्वर बाई, जद्दन बाई और रसूलन बाई के कोठों पर अंग्रेजी राज के खिलाफ, तमाम रणनीतियां भी बनाई जाती रहीं।
यही नहीं बाद में आपातकाल के दौरान भी दालमंडी का नाम सुर्खियों में रहा जब प्रख्यात तबला वादक पंडित लच्छू महाराज को उनके प्रतिवाद के चलते जेल यात्रा भी करनी पड़ी।
और अब आज़ के समय में भी दालमंडी, केवल बनारस ही नहीं पूरे पूर्वांचल के लिए थोक मंडी और आम लोगों का सुपर मार्केट बना हुआ है।
तो क्या दालमंडी के बहाने निशाने पर ज्ञानवापी है…
यह सवाल सबके ज़ेहन में घूम रहा है कि दालमंडी के शानदार इतिहास को देखते हुए और वर्तमान में भी जो बाज़ार, बनारस व पूर्वांचल की ज़रूरत बना हुआ है, सत्ता इस मशहूर गली को क्यों निशाना बना रही है।
जब हम इस पर विचार करते हैं तो बातें धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगती हैं, और बनारस में लगातार बढ़ रही सांप्रदायिक घटनाओं की ध्यान जाने लगता है।
अभी ठीक होली के पहले भी बनारस में जगह-जगह मुस्लिम समूहों या व्यक्तियों को लिंच करने की ख़तरनाक कोशिश की गई, बनारस स्थित कोटवां में 9 नाबालिग बच्चों को जो निशाना लगाने का खेल, खेल रहे थे, उन्हें हिंदू घरों पर हमला करने का गंभीर आरोप लगा कर एक सप्ताह के लिए सुधार गृह भेज दिया गया, वहां भी उन्हें पाकिस्तान भेज देने या धर्म केंद्रित गालियां भी दी गई।
उसी तरह गोलगड्डा के पास स्थित बखरिया खुर्द के रहने वाले एक मुस्लिम नौजवान को रेवड़ी तालाब के पास ब्लेड से हमला किया गया।
बनारस में ही स्थित दीनदयाल पुर में जय श्रीराम का नारा लगाते हुए दो और मुस्लिम नौजवानों के सिर पर हमला कर गंभीर रूप से घायल कर दिया गया।
पीली कोठी के पास स्थित अंबिया मंडी में भी जांच टीम ने पाया कि छेड़खानी का ग़लत आरोप लगाकर एक नौजवान से पहले मारपीट की गई, और पुलिस के हवाले कर दिया गया, साथ ही पुलिस से पूछताछ करने गए 13 और मुस्लिम नौजवानों को भी जेल भेज दिया गया।
बनारस के नागरिक समाज की तरफ़ से इन सब जगहों पर गए टीम को एक ही ट्रेंड हर जगह दिखी, हर जगह पुलिस, मुस्लिम पक्ष पर एकतरफा कार्रवाई करती दिखी, हर मसले के जड़ में हिंदू संगठनों से जुड़ा कोई काडर मिला।
यानि कहीं भी जनता मोबलाइज नहीं हुई, पीड़ित पक्ष ने भी कहीं भी उत्तेजना का प्रदर्शन बिल्कुल ही नहीं किया, और हिन्दू समाज का भी बड़ा हिस्सा, संघ-भाजपा की इन कोशिशों को नकारात्मक कार्रवाई के बतौर ही देखता रहा।
समूचे तंत्र और संगठन के इक्का-दुक्का नकारात्मक तत्वों के बल पर कोशिश थी कि होली को तनावग्रस्त किया जाए, हालांकि ऐसा नहीं हो पाया।
असल में लंबे समय से संघ-भाजपा के लिए मुख्य निशाना ज्ञानवापी है, जिसे पिछले दिनों पूजा स्थल एक्ट 1991 का खुलेआम उल्लंघन करते हुए, लोकल कोर्ट के जरिए नए सिरे से विवाद के केंद्र में लाया गया है।
विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के जरिए, ज्ञानवापी मस्जिद के आस-पास 10-20 हज़ार लोगों के इकट्ठा होने के लिहाज़ से पर्याप्त जगह भी बना दी गई है, जहां कभी कारसेवा जैसी कोई परिघटना निर्मित की जा सकती है, और इसलिए भी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के बाद से, जानबूझ कर व सचेतन अभियान के ज़रिए ज्ञानवापी मस्जिद की नकारात्मक उपस्थिति को बहुप्रचारित किया जा रहा है।
अभी हाल ही में एक बार फिर से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सबसे वरिष्ठ पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबाले ने संघ के मुखपत्र कन्नड़ पत्रिका, विक्रम को दिए गए अपने बयान में कहा है कि अगर उसके सदस्य मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद विवाद से संबंधित प्रयासों में भाग लेते हैं तो संगठन को कोई आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने यह भी कहा कि अयोध्या, मथुरा व काशी तो पहले से ही संतों व द्रष्टाओं के एजेंडे में है। और हमारा कार्यकर्ता अगर इन तीनों मसलों पर इकट्ठा होना चाहता है, तो हम उन्हें रोकेंगे नहीं।
होसबाले का नया बयान असल में उस पुराने नारे को ताज़ा करने जैसा है, जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर से ही दोहराया जा रहा है कि “अयोध्या तो अभी झांकी है, काशी मथुरा बाकी है”।
आज जब दालमंडी को निशाना बनाया जा रहा है तो इसके पीछे एक बेहद ख़तरनाक योजना है। दालमंडी की एक और पहचान ये भी है कि वो मुस्लिम बहुल है, ज्ञानवापी मस्जिद के बिल्कुल पास है, और उस मस्जिद के प्रति न केवल आध्यात्मिक बल्कि भौतिक सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी भी इसी गली के वाशिंदों के पास ज्यादा रहती है। और जब भी ऐसा अवसर आता है, वो लोग अपनी जिम्मेदारी बेहद लोकतांत्रिक तरीके से, बखूबी निभाते भी रहे हैं।
अब इस सुरक्षा कवच पर ही हमला बोलना है, और शहर को बड़े तनाव की तरफ़ ले जाना है, और बड़ी सांप्रदायिक गोलबंदी करनी है, जो तमाम नकारात्मक कोशिशों के बावजूद, अब तक नहीं हो पा रही थी, आज दालमंडी प्रकरण को इस नजरिए से भी देखने की जरूरत है।
हिंदुत्ववादी राजनीति इस तरह की ख़तरनाक खेल क्यों खेल रही है ।।।।
2024 लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व के गढ़ माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा को जोर का झटका लगा था, राम मंदिर का भव्य उद्घाटन भी काम नहीं आया, अयोध्या सीट भी भाजपा हार गई, बनारस में प्रधानमंत्री की जीत भी सम्मानजनक नहीं रह गई, और सीटों की संख्या लगभग आधी रह गई।
जनता में और खासकर उत्तर प्रदेश की जनता में यह परसेप्शन बनता चला गया कि भाजपा संविधान, सामाजिक न्याय व आरक्षण आदि के लिए ख़तरा है, नतीजतन 400 पार का नारा देने वाली भाजपा 240 पर सिमट गई।
इन नतीजों से भाजपा ने ख़ासकर उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा ने यह निष्कर्ष निकाला कि सामाजिक न्याय का जवाब और ज्यादा हिंदुत्व के रास्ते पर ही बढ़कर दिया जा सकता है।
पर चूंकि अयोध्या अपना असर खो चुका है, सो नए-नए केंद्र की तलाश तेज कर दी गई, मस्जिद-मस्जिद, मंदिर तलाशे जाने लगे हैं, त्यौहारों को तनाव में तब्दील किया जाने लगा है, और यह सब कुछ लोक के बल पर कम, तंत्र के बल ज्यादा, किया जा रहा है।
खोजबीन की इसी प्रक्रिया के दौरान अब पश्चिम में संभल व मथुरा और पूर्वांचल में वाराणसी, ज्ञानवापी व दालमंडी पर फोकस कर दिया गया है।
पर अब देखना ये है कि सांप्रदायिक सियासत को फिर से नया विस्तार मिलता है या समाज का ताना-बाना व भाईचारा और मजबूत होकर सामने आता है।
(मनीष शर्मा पोलिटिकल एक्टिविस्ट और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं।)
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