विनोद दुआ को पत्रकारिता का भीष्म पितामह कहे जाने पर प्रतिक्रियाएं लगातार मिली हैं। असहमति के सुर अधिक मुखर हैं। मगर, जो प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं उनमें सहमति के स्वर की नाद मैं ढूंढता हूं। सवाल उठाने वालों ने विनोद दुआ की पत्रकारिता पर भी उठाए हैं और उन्हें भीष्म पितामह कहने की इस लेखक की सोच पर भी। जवाब देने से पहले भीष्म पितामह के बारे में कुछ याद दिलाने की आवश्यकता है।
भीष्म पितामह यानी सम्माननीय, देशभक्त, राजभक्त, राजधर्मी, कर्तव्ययोगी, वचनबद्ध, योद्धा, पराक्रमी।
भीष्म पितामह यानी अनुभव की विराटता, विपरीत परिस्थितियों में अपने को स्वाभाविक रूप में जिन्दा रखने की क्षमता, हमेशा खुद में प्रेरणा के तत्व को जिन्दा रखने का गुण।
भीष्म पितामह मतलब अतीत नहीं, वर्तमान।
भीष्म पितामह महाभारत काल के ही योद्धा नहीं थे जिन्हें कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ना पड़ा था जबकि उनका दिल पांडवों के साथ था। भीष्म पितामह महाभारत काल के पहले से यशस्वी रहे हैं और इच्छा मृत्यु के बाद भी यशस्वी हैं।
आधुनिक पत्रकारिता द्रौपदी का चीरहरण देख रही है। विनोद दुआ भी बेबस हैं। विनोद दुआ की निष्ठा पत्रकारिता के सिद्धांतों के सिंहासन से बंधी है। मगर, अब पत्रकारिता का सिद्धांत ही बदला जाने लगा है। शासक से नहीं, सवाल उनसे पूछे जाते हैं जो शासकों से पूछते हैं। द्रौपदी का चीरहरण करने वाली सत्ता से सवाल नहीं पूछे जाते। कहा जाता है कि गलती युधिष्ठिर की थी। उसने जुआ ही क्यों खेला? वे द्रौपदी को क्यों हारे? द्रौपदी के चीरहरण पर प्रश्न उठाने वालों को खामोश कर दिया जाता है।
विनोद दुआ पूछना चाहते हैं कि दिल्ली दंगे में एकतरफा कार्रवाई क्यों हुई? दंगे में सत्ताधारी दल के नेताओं कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं की भूमिका पर पुलिस खामोश क्यों है? मगर, आज की पत्रकारिता ऐसे सवाल पूछने वालों को जुए का समर्थक, जुआरियों को बढ़ावा देने वाला और राष्ट्र विरोधी बताने लग गयी है। ये सवाल शासक वर्ग की ओर से पूछे जाते हैं, उनके बचाव में पूछे जाते हैं। दिल्ली पुलिस बीजेपी नेता के कहने पर उल्टे विनोद दुआ पर ही एफआईआर दर्ज कर लेती है।
हालांकि विनोद दुआ को जमानत मिल चुकी है और उन्होंने कहा है कि वे इसके खिलाफ ऊंची अदालत तक जाएंगे और वे हार मानने वाले नहीं हैं। निश्चित रूप से विनोद दुआ हार मानने वाले पत्रकारों में नहीं हैं। भीष्म पितामह कभी हार नहीं माना करते। पत्रकारिता की जिन्दगी उनकी इच्छा से ही खत्म होगी, किसी संघर्ष में हारकर नहीं।
दुर्योधन ने हमेशा भीष्म पितामह की देशभक्ति पर संदेह किया। यही संदेह आज पत्रकारिता के भीष्म पितामह पर की जा रही है। क्या पत्रकारीय धर्म से विचलित हो गये हैं विनोद दुआ? ऐसा कोई एक उदाहरण सामने नहीं रख सकता। महाभारत काल में हस्तिनापुर के रहते इंद्रप्रस्थ का उदय हो गया था। भीष्म पितामह ने मृत्यु ग्रहण करने से पहले कहा था कि किसी भी सूरत में राष्ट्र का विभाजन हमें स्वीकार नहीं करना चाहिए था। आज पत्रकारिता में भी हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ के रूप में दो खेमे बन चुके हैं। ऐसा विनोद दुआ जैसे भीष्म पितामह की मौजूदगी में हुआ है मगर वे बेबस हैं।
अब हम विनोद दुआ जी के बारे में बात करते हैं। विनोद दुआ मूलत: टीवी पत्रकार हैं। दूरदर्शन के जमाने से हैं। विनोद दुआ नाम आते ही प्रणव राय का नाम सामने आ जाता है। दोनों ही चुनाव विश्लेषक के तौर पर छोटे पर्दे के बादशाह हुआ करते थे। टीवी पत्रकारिता में रजत शर्मा, स्वर्गीय एसपी सिंह जैसे पत्रकारों ने भी दूरदर्शन में स्वतंत्र पत्रकारिता की नींव रखी। मगर, इन सबसे दो कदम आगे रहे विनोद दुआ और प्रणव राय। एसपी को पत्रकारिता में अभिमन्यु की तरह अल्पकालीन, मगर स्थायी यश मिला। वहीं, रजत शर्मा और प्रणव राय पत्रकार से टीवी घराने के मालिक हो गये।

विनोद दुआ ने कभी पत्रकार से मीडिया हाऊस का मालिक बनने की कोशिश नहीं की। उन्हें भी इन्वेस्टर मिल सकते थे और वे भी सरकार की मदद से जमीन पा सकते थे, मीडिया में ही अपना कोई व्यवसाय बढ़ा सकते थे। मगर, उन्होंने पूंजी और सत्ता दोनों को ठुकराया। वे जीवन भर पत्रकार बने रहे।
दूरदर्शन और एनडीटीवी का चेहरा बन गये थे विनोद दुआ। मगर, पत्रकारिता के करियर में विनोद दुआ के लिए कोई मीडिया संस्थान छोटा नहीं रहा। जिस जगह उनके कदम पड़ते, वही बड़ा हो जाता। द वायर जैसे संस्थान हों या फिर सहारा समय और फोकस ग्रुप जैसे संस्थान, हर जगह शुरूआत में ही जुड़े और कहीं भी उन्होंने काम करने में संकोच नहीं दिखाया।
दूरदर्शन में रहते हुए सत्ताधारी दल कांग्रेस की आलोचना विनोद दुआ ही कर सकते थे। आज कोई ऐसा पत्रकार है जो दूरदर्शन में बैठकर सत्ताधारी दल से सवाल पूछ सके?
विनोद दुआ के कंटेंट में हमेशा शासन-प्रशासन और व्यवस्था का विरोध हावी रहा है। मगर, तथ्यों की विश्वसनीयता को लेकर उनकी चिंता भी उनके साथ काम करने वाले लोग जानते हैं। एक-एक शब्द उनके लिए महत्वपूर्ण होते हैं और गैरजरूरी शब्द तो वे बोलते ही नहीं।
एनडीटीवी पर ‘जायका इंडिया का’ को लोग आज भी याद करते हैं। आलोचक कहते हैं कि जब सत्ता का विरोध करना था तो वे देश को जायका बता रहे थे। अगर इसे सही भी मान लिया जाए तो हर पत्रकार के जीवन में ऐसा वक्त आता है जब उसे खुद को बचाना पड़ता है। मगर, क्या कोई ये कह सकता है कि विनोद दुआ ने पत्रकारिता के मूल्य से कभी कोई समझौता किया? अपने तेवर में कोई बदलाव लाया? उल्टे ‘जायका इंडिया का’ कार्यक्रम के माध्यम से उन्होंने पत्रकारिता को एक नयी राह दिखा दी कि भारतीय संस्कृति की एकजुटता को सामने लाने का धर्म ऐसे भी निभाया जा सकता है।

विनोद दुआ की सोच प्रगतिशील, उदारवादी, स्त्रीवादी, दलित-वंचित समर्थक, लोकतंत्रवादी और सांप्रदायिकता विरोधी, जातिवाद विरोधी रही है। यह सोच उनकी मजबूती है न कि कमी! इस सोच से डिगते हुए उन्हें कभी किसी ने देखा हो, तो उदाहरण सामने रखे।
विनोद दुआ ने माना कि बाबरी मस्जिद को गिराना गलत था। कभी सत्ता के लोभ में इस सोच में उन्होंने बदलाव किया हो, तो यह मान लिया जाए कि उन्होंने सिद्धांत से समझौता किया। आरक्षण विरोधी आंदोलन के समय विनोद दुआ ने वीपी सिंह सरकार पर सवाल उठाए, तो लालू यादव के भ्रष्टाचार पर भी खुलकर बोला। कांग्रेस के समय में भ्रष्टाचार के मामलों पर भी वे चुप रहे हों, ऐसा कोई नहीं कह सकता। अन्ना आंदोलन का उन्होंने समर्थन किया, मगर यह भी आगाह किया कि इस आंदोलन के पीछे आरएसएस का हाथ है। बाद के दौर में भी कई विश्लेषणों में उन्हें इस आशय के विचार के साथ देखा गया।
कई टीवी पत्रकार बोल नहीं पाते हैं इसलिए टीपी रीडर होते हैं, मगर कई इसलिए होते हैं ताकि कोई तथ्यात्मक गलती न हो, इसे लेकर सजग रहते हैं। अगर कोई विनोद दुआ को टीपी रीडर एंकर बोले तो उनकी सोच पर हंसी आती है। टीपी रीडर सुधीर चौधरी भी हैं, मगर उन्होंने यह विनोद दुआ से सीखा है।
अब ऐसे एंकर पत्रकारिता के मैदान में आ गये हैं जिनकी जुबान ही टीपी यानी टेली प्रॉम्प्टर है। वो जो बोल दें वही पत्रकारिता है। ऐसे लोग पत्रकारिता के नाम पर शासकीय देवता की चालीसा पढ़ रहे हैं। चालीसा पढ़ने के लिए टीपी सामने रखने की कोई जरूरत होती है क्या?
पत्रकारिता में कई नाम हैं जो अब इस दुनिया में नहीं हैं और उन्हें भी भीष्म पितामह की श्रेणी में रखा जा सकता है मगर जीवित पत्रकारों में विनोद दुआ के अलावा किस नाम को सामने रखा जाए जिनमें हम भीष्म पितामह का गुण पाते हैं! पत्रकारिता की दुनिया के राजा तो कई लोग हैं जो मनमाफिक तरीके से पत्रकारिता और उसकी दुनिया को गढ़ रहे हैं, बदल रहे हैं। मगर, भीष्म पितामह कौन है जो पत्रकारिता की दुनिया को उसके वास्तविक रूप में जिन्दा रहने के लिए तमाम कुर्बानियां देने को तत्पर है? निश्चित रूप से विनोद दुआ का नाम सबसे आगे है।
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न चैनलों में उन्हें पैनल के बीच बहस करते देखा जा सकता है।)
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