क्या वाम-लोकतांत्रिक ताकतें नवउदारवादी अर्थनीति में बदलाव को राजनीतिक मुद्दा बनाएगी?

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फ्रांस के राजनीतिक घटनाक्रम में भारत के लिए भी महत्वपूर्ण संदेश है। इसने पूरी दुनिया में वाम लोकतांत्रिक ताकतों को उत्साहित किया है। नवउदारवादी अर्थनीति के रास्ते पर चलते मध्यमार्गी दल जब नव फासीवाद के उभार को रोकने में नाकाम हो गए तब वामपंथी प्रगतिशील लोकतांत्रिक ताकतों ने मोर्चा संभाला और उनके संयुक्त मंच न्यू पॉपुलर फ्रंट ने सटीक आर्थिक कार्यक्रम पेश कर उन्हें रोकने का काम किया। उन्हें पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला लेकिन वे सबसे बड़ा ब्लॉक बनकर उभरने में सफल हुए। और फासीवादी पार्टी को तीसरे स्थान पर धकेलकर उसे निर्णायक तौर पर सत्ता से दूर रखने में वे कामयाब रहे।

मरीन ला पेन की नव फासीवादी पार्टी को रोकने के लिए दूसरे राउंड में टैक्टिकल लेवल पर मैक्रॉन के दल और वाम के बीच जो समझदारी बनी और दोनों ने अपने दो सौ के आसपास कमजोर प्रत्याशियों को हटा लिया, उसने फासीवाद विरोधी मतों को एकजुट करने में मदद की।

यद्यपि वाममोर्चे में राजनीतिक मुद्दों पर मसलन यूक्रेन युद्ध और गजा पर इजराइली हमले पर वाम दिशा के अनुरूप स्टैंड नहीं लिए जा सके लेकिन आर्थिक मामलों पर वामपंथी दिशा के अनुरूप फैसले लिए गए। यह कहा गया है कि मजदूरों के न्यूनतम वेतन बढ़ाए जाएंगे, खाद्यान्न, बिजली, गैस, पेट्रोल के दाम की सीलिंग तय की जाएगी, कंपनियों के सुपर प्रॉफिट पर टैक्स लगाया जाएगा, कॉर्पोरेट और सुपर रीच तबकों पर संपत्ति कर, जिसे मैक्रॉन ने खत्म कर दिया था, फिर से लगाया जाएगा। उत्तराधिकार में मिली संपत्ति की सीमा तय की जाएगी। उसके ऊपर की संपत्ति को राज्य जब्त कर लेगा।

भारत में क्या वामपंथ इन सवालों पर जोरशोर से लड़ाई की पहल करेगा और अर्थनीति में बदलाव को राजनीतिक मुद्दा बनाएगा? यह साफ है कि मध्यमार्गी कांग्रेस पार्टी राहुल के सारे रेडिकल विचार के बावजूद यह मांग नहीं कर सकती। वर्ना जब सैम पित्रोदा ने चुनाव के दौरान उत्तराधिकार कर की बात उठाया और मोदी ने उसे सांप्रदायिक फासीवादी ट्विस्ट दे दिया, तभी कांग्रेस और इंडिया यह कह सकते थे कि हां हम उत्तराधिकार कर वसूलेंगे। यह बात जोर-शोर से उठाकर गरीब तबकों में विपक्ष वैसी ही लहर पैदा कर सकता था जैसी मोदी ने नोटबंदी के दौरान किया था। दरअसल राहुल गांधी द्वारा किए गए वायदे तब तक आकर्षित नहीं कर सकते। जब तक यह न बताया जाय कि इसके लिए पैसा कहां से आयेगा। लोगों को देने के लिए जिस विराट धनराशि की जरूरत है, उसे जुटाने का कोई और उत्पादक तरीका नहीं हो सकता।

दरअसल भारत में पहले जो संपत्ति कर लगता भी था, वह यह तर्क देकर खत्म कर दिया गया कि जितना कर मिलता है उससे अधिक खर्च हो जाता है उसकी वसूली की प्रशासनिक व्यवस्था में! भारत में टैक्स जीडीपी अनुपात मात्र 11.7% है, उसमें भी आम जनता से वसूला जाने वाला 5.6% अप्रत्यक्ष कर शामिल है। जबकि समकक्ष अर्थव्यवस्थाओं यूके में 24.9%, फ्रांस में 24.7%, इटली में 24.6%, दक्षिण अफ्रीका में 24.2 % है।

शायद यह सब फ्रांस के लिए जितना जरूरी है उससे लाख दर्जे अधिक भारत के लिए जरूरी है क्योंकि भारत न सिर्फ प्रति व्यक्ति आय और समृद्धि में फिसड्डी हैं बल्कि आर्थिक गैर बराबरी में भी वह दुनिया में अव्वल हैं। फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थामस पिकेटी ने भारत के लिए यह सवाल उठाया है कि यहां धनी तबकों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए। भारत के बड़े अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक लगातार इस सवाल को उठाते रहे हैं।

रोजगार और कृषि का संकट हमारे देश में आज जितना गंभीर हो गया है, फ्रांस की तरह ही इनके समाधान का दूसरा कोई रास्ता नहीं है। अब समय आ गया है कि आर्थिक सामाजिक लोकतंत्र चाहने वाली तमाम ताकतें इसको लेकर संसद से सड़क तक सक्रिय हों क्योंकि डॉक्टर अंबेडकर के शब्दों में इसके बिना हमारा राजनीतिक लोकतंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा।

कामरेड विनोद मिश्रा कहते थे कि जो परिस्थितियां फासीवाद को जन्म देती हैं वही संकट क्रांतिकारी उभार को भी जन्म दे सकता है। यह यूरोप के अतीत और वर्तमान दोनों से साबित होता है। आज भारत में भी वैसे ही हालात हैं।

लोकसभा चुनाव की आंशिक सफलता से हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय मार्का फासीवाद हार के जख्म के साथ अगले राउंड के प्रत्यक्रमण की तैयारी में है। लगातार माहौल को विषाक्त बनाने का प्रयास जारी है। उप्र में मॉब लिंचिंग की घटनाएं लगातार हो रही हैं। उल्टे नए कानून में उन्हीं की गिरफ्तारी हो रही है। दरअसल यह अब मुसलमानों को उकसाने और भड़काने की कार्रवाई है जिससे तनाव बढ़े, दंगाई माहौल बने और हिंदू ध्रुवीकरण हो जाय।

यह बात तय है कि एक रैडिकल कार्यक्रम बड़े पैमाने पर युवा पीढ़ी तथा मेहनतकश जनता, हाशिए के उत्पीड़ित हिस्सों को आकर्षित कर सकता है। यही समाज के वे दबे-कुचले हिस्से हैं जो फासीवाद के राज्यारोहण के भी आधार स्तंभ हैं।

फ्रांस के अनुभव से यह सीख मिलती है कि यह दो एजेंडा के बीच का भी संघर्ष है। फासीवाद जनता को सभ्यताओं के संघर्ष और पहचान की राजनीति की आड़ में संस्कृति और पहचान के सवाल में उलझाए रखना चाहता है। जबकि जनता अपने जीवन के ज्वलंत सवालों का समाधान चाहती है। अगर इसका प्रॉपर आर्टिकुलेशन हो और उसे संगठित आंदोलन का स्वरूप दिया जाय तो जनता वाम लोकतांत्रिक दिशा की ओर बढ़ सकती है। लेकिन अगर राजनीतिक ताकतें सांस्कृतिक पहचान के सवाल में ही उलझी रही तो यह फासीवाद की पिच पर ही खेलने के बराबर है। और फिर वह एक हारी हुई लड़ाई है।

हाल ही में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के धुरंधर खिलाड़ी ओम प्रकाश राजभर ने स्वीकार किया है कि जातियों के नेता अब अपनी जाति का वोट ट्रांसफर नहीं करवा पा रहे। दरअसल यह इसी सच्चाई की स्वीकृति है कि जनता अब पहचान की राजनीति के व्यामोह से मुक्त होकर अपने जीवन के मूलभूत सवालों के आधार पर वोट देने की ओर बढ़ रही है, वह रोजगार, महंगाई, लोककल्याण योजनाएं हों या संविधान की रक्षा का सवाल हो।

क्या आने वाले दिनों में भारत में भी राजनीति वैकल्पिक अर्थनीति और सामाजिक नीति पर केंद्रित होगी? फासीवाद से लड़ने का रास्ता एक बार फिर महान क्रांतियों की धरती फ्रांस ने दिखाया है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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