क्या मोदी-शाह जोड़ी ‘गठबंधन धर्म’ निभाएगी?; क्या देश हित में संघ स्वयं को बदल सकेगा?

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आसमान साफ़ हो चुका है। भारत के इतिहास में 10 जून, 24 का दिन संघ परिवार के विलक्षण विरोधाभासों के रूप में दर्ज़ होगा; 1. दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अपने मंत्रिमंडल के विभागों के बंटवारे में स्वेच्छाचारिता का प्रदर्शन किया; 2. राजधानी से करीब एक हज़ार किलोमीटर दूर नागपुर में संघ सुप्रीमो मोहन भागवत परोक्ष रूप से मोदी-शाह जोड़ी को मर्यादा का पालन करने व अहंकार नहीं करने के उपदेश दे रहे थे और मणिपुर के लिए चिंता व्यक्त कर रहे थे!

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ परिवार की असंख्य भुजाएं और मुंह हैं। कौन सी भुजा और मुंह कब चैतन्य हो जाएं, इसका समय व स्थान संघ स्वयं तय करता है। क्या भागवत जी को आज ही अचानक ‘अहंकार, विपक्ष को शत्रु समझना, मणिपुर की हिंसा’ दिखाई दी है? क्या प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह संघ में दीक्षित नहीं हुए हैं? क्या पिछले एक दशक से मोदी-शाह जोड़ी की दंभभरी कार्यशैली दिखाई नहीं दी है? एक वर्ष से मणिपुर जल रहा है और मोदी जी बराये नाम भी वहां नहीं जा सके। क्या इसका ज्ञान भागवत जी कोअभी हुआ?  विपक्ष को किस-किस अशोभनीय तमगों से नवाज़ा गया, क्या संघ प्रमुख को दिखाई नहीं दिया?

पिछले एक दशक में देश की राजनीति कितनी मर्यादाहीन व निर्लज्ज बन चुकी है शिखर नेतृत्व ‘शर्म निरपेक्ष’ हो चुका है, क्या भागवत जी को दिखाई नहीं दे रहा था? इस तरह के सवाल संघ की विरोधाभासी, विडंबनापूर्ण और अवसरानुकूल कार्यशैली को उजागर करते हैं। आज जब भाजपा अल्पमत में है और अपनी सत्ता के अस्तित्व के लिए दूसरों की बैसाखियों पर टिकी हुई है, तब संघ सुप्रीमों को परोक्ष रूप से देश के शिखर नेतृत्व के चाल+चलन+ चेहरे में दोष दिखाई दे रहे हैं? विचित्र स्थिति है। वस्तुस्थिति यह है की मोदी+शाह जोड़ी की कार्यशैली से संघ की साख को आघात लगता जा रहा है। उसकी सार्थकता पर भी सवालिया निशान लगने लगे हैं। इसके बाद ही संघ अपनी निद्रा से जागा है। खैर, देर आये, दुरुस्त आये। संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किये गए विभागों के बंटवारे से बिल्कुल साफ़ है कि वे अपनी चौबीस साल पुरानी (2001-24 ) हुकूमत की फितरत को कतई बदलने वाले नहीं हैं; गुजरात में मुख्यमंत्री काल से दिल्ली में प्रधानमंत्री काल तक अपनी आत्मकेंद्रित व निरंकुश शासन शैली को बनाये रखेंगे। भाजपा के अल्पमत (303 से 240)  में खिसकने और गठबंधन के सहयोगी घटकों की बैसाखियों पर टिके होने के बावज़ूद प्रधानमंत्री मोदी ने प्रमुख व संवेदनशील मंत्रालयों के वितरण के मामले में अपने सहयोगी दलों के प्रति किसी भी प्रकार की उदारता नहीं दिखलाई है। उन्होंने सबसे विवादास्पद गृहमंत्रालय को अपने लंगोटिया यार अमित शाह को ही सौंपा है। ऐसा करके उन्होंने संकेत दे दिये हैं कि उनपर किसी का दबाव नहीं चलेगा।

4 जून को चुनाव परिणामों के आने के बाद समझा जा रहा था कि गृहमंत्रालय और वित्त मंत्रालय सहयोगी घटकों को दे दिए जायेंगे। क्योंकि पिछले पांच सालों में दोनों ही मंत्रालयों की कारगुज़ारियां काफी विवादास्पद रहती रही हैं। दोनों की कार्यशैलियों को आतंकी और डरावनी के रूप में देखा गया है; विपक्ष के खिलाफ सीबीआई, ईडी, इन्कम टैक्स एजेंसी और अन्य एजेंसियों का थोक के भाव इस्तेमाल किया गया; विपक्षी नेताओं को जेलों में डाला गया; छापे आदि से डरा-धमकाकर नेताओं को भाजपा में शामिल होने के लिए मज़बूर किया गया; शामिल होने के बाद उनके ख़िलाफ़ मुक़दमे वापस ले लिए गए, क्लीन चिट दी गई और कुड़की सम्पति को वापस कर दिया गया।

वित्त मंत्रालय द्वारा समय-समय पर ज़ारी घरेलू सकल उत्पाद (जीडीपी) से सम्बंधित आंकड़े हमेशा विवादास्पद बने रहे हैं। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण विवादों में घिरी रहीं। उन्हें एक ‘मुखौटा’ के रूप में देखा गया। गृहमंत्री अमित शाह भी विवादों के कटघरे में खड़े रहे हैं। विपक्ष की सरकारों को गिराने और भाजपा समर्थित सरकार बनाने में उन्हें सिद्धहस्त माना जाता है; मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार रही हो या महाराष्ट्र में शिवसेना की, शाह जी को दोनों प्रदेशों की सरकारों के पतन की पटकथा के लेखक के रूप में देखा जाता है।

विभिन्न प्रदेशों में पार्टी के टिकिट वितरण और प्रतिकूल नेताओं के हाशियाकरण में भी शाह जी की महत्वपूर्ण भूमिका मानी  जाती है। उत्तर प्रदेश में ‘भाजपा के भू-धंसान’ के लिए अमित जी को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। जब अमित शाह का ट्रैक-रिकॉर्ड गांधीनगर से दिल्ली तक विवादास्पद रहा हो, तब प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें फिर से शक्तिशाली मंत्रालय की कमान सौंपा जाना किस बात के संकेत देता है? निश्चित ही, प्रतिपक्ष और लोकतंत्र, दोनों के लिए सुखद संकेत तो नहीं मिलेंगे। अमित शाह के गृहमंत्री बनने से ऐसी शक्तियां मज़बूत होंगी जोकि भारतीय समाज का और भी गहराई से ध्रुवीकरण करना चाहती हैं। हिंदुत्व के एजेंडे को सख्ती के साथ लागू करना चाहती हैं।

अगले वर्ष राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने जन्म के सौ वर्ष पूरे करेगा। ज़ाहिर है, मोदी-शाह जोड़ी अपनी मातृ संस्था को कुछ नायाब उपहार देना चाहेगी। लेकिन, यह निर्विवाद है कि अब ब्रांड मोदी-शाह भाजपा संविधान तो बिलकुल नहीं बदल सकेगी और भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित नहीं किया जा सकेगा। लेकिन, आनेवाले महीनों में सब कुछ सुचारू रूपसे चलता रहेगा, इसकी सम्भावना धूमिल दिखाई देती हैं। इस निर्मम जोड़ी की आंखों में गैर- भाजपाई सरकारें (हिमाचल, तेलंगाना, कर्णाटक, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि) मोतियाबिंद की तरह चुभती हैं। चूंकि अमित शाह फिर से गृहमंत्री बन गये हैं, तो वे भाजपा विजय -अभियान की तैयारी में जुट जायेंगे।

हाल ही में संपन्न चुनावों में मोदी-शाह जोड़ी ने विकास के स्थान पर हिन्दू-मुसलमान के मुद्दे पर अपना वक़्त ज़्यादा खर्च किया था। कई अशोभनीय जुमले-फिकरे फेंके गए। अल्पसंख्यकों को ‘घुसपैठिया‘ तक बताया गया और प्रतिपक्ष की गतिविधियों को ‘मुज़रा’ से जोड़ा गया। यह सिलसिला अब बंद हो जायेगा, यह निष्कर्ष सरासर गलत होगा। बल्कि, समाज में नफरत फ़ैलाने का सिलसिला नए ढंग से शुरू हो भी चुका है।

भारी-भरकम मोदी -मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। देश की 140 करोड़ की आबादी में मुसलमाओं की आबादी करीब 20 करोड़ समझी जाती है। केंद्रीय सरकार में एक भी मुसलमान का न होना अस्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक है। इन दिनों व्हाट्सएप्प पर एक वीडियो चल रहा है। यह वीडियो बेहद अफ़सोसनाक, नफ़रती और आतंकी है। नारा दिया गया है: जागो हिन्दुओं जागो…। इस वीडियो के अनुसार पांच राज्यों से 98 मुस्लिम नेता सांसद के रूप में निर्वाचित हुए हैं। 98 लोगों के नाम भी दिये गए हैं। हिन्दुओं को डराया गया है कि आप लोगों की ‘आत्मा कांप जाएगी’। इन राज्यों में शामिल हैं: पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी।

इसके विपरीत असलियत यह है कि सिर्फ 24 मुस्लिम ही निर्वाचित हो कर 18 वीं लोकसभा में पहुंच सके हैं। जहां से चुने गए हैं वे राज्य हैं: उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, तमिलनाडु, केरल, बिहार और असम। कुल संख्या है चौबीस जिसकी पुष्टि चुनाव आयोग की वेबसाइट से की जा सकती है। हक़ीक़त में, मुस्लिम सांसदों की संख्या लगातार घटती जा रही है। उनकी आबादी के अनुपात में तो संसद और विधानसभा में प्रतिनिधित्व कतई नहीं हो रहा है। फिर भी दुर्भावनापूर्ण प्रचार किया जा रहा है कि 98 मुस्लिम सांसद चुने गए हैं और हिन्दुओं को जागने का आह्वान किया जा रहा है!

क्या यह समाज में नफरत फ़ैलाने और ध्रुवीकरण की कोशिश नहीं है? क्या भागवत जी और मोदी-शाह की सत्ता इस घिनौने प्रचार की रोकथाम करेंगे? क्या फेक न्यूज़ और अफ़वाहों के कारख़ानों की तालाबंदी की दिशा में ठोस कार्रवाई करेंगे? क्या मोदी जी अपनी आत्मरति और आत्मदंभ को त्याग कर अटलजी और मनमोहन सिंह के समान ‘गठबंधन धर्म’ का पालन करते हुए अपना कार्यकाल पूरा करना पसंद करेंगे? क्या भागवत और मोदी अपनी कार्यशैली में पारदर्शिता लाएंगे और सत्यनिष्ठा से देश के साथ व्यवहार करेंगे? चुनौती बन कर ये तमाम सवाल मोहन-मोदी-सत्ता को ललकारते रहेंगे।  

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं औऱ दिल्ली में रहते हैं)

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