दो विधानसभा चुनावों में हार के साथ ही इंडिया गठबंधन हिचकोले खाने लगा या माजरा कुछ और है?

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इंडिया गठबंधन के नेतृत्व में बदलाव की मांग करने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी की एक छोटी सी कोशिश का असर इतनी दूर जायेगा, ये उन्होंने खुद सपने में भी नहीं सोचा होगा। लेकिन यह हकीकत है।

इंडिया गठबंधन के तमाम घटक दलों ने लगभग एक सुर में कहना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस और विशेषकर राहुल गांधी के नेतृत्व के बजाय इंडिया गठबंधन के कामकाज को ममता बनर्जी के सुपुर्द कर देना चाहिए। 

ऐसा जान पड़ता है जैसे इसके घटक दल इस विषय पर पहले ही कई बार गुपचुप बैठक कर सब कुछ तैयारी के साथ बोल रहे हों। इधर जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला ने हालांकि इंडिया गठबंधन के नेतृत्व में बदलाव को लेकर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है, और माना है कि 100 सीटों पर जीत करने वाली कांग्रेस ही स्वाभाविक रूप से विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की हकदार है।

लेकिन ईवीएम के सवाल पर उन्होंने नया मोर्चा खोलकर लगभग उतने ही बड़े स्तर पर गठबंधन को पलीता लगाने का काम कर दिया है। 

ईवीएम से चुनाव पर कांग्रेस के विरोध पर हाल ही में पीटीआई को दिए अपने जवाब में उमर अब्दुल्ला का साफ़ कहना है कि लोकसभा चुनाव में 100 सीट जीतने पर कांग्रेस को ईवीम से कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ना कहां तक उचित है।  

इसके लिए उन्होंने लोकसभा में अपनी हार का उदाहरण सामने रखते हुए यहां तक कह डाला कि उन्होंने तो कोई शिकायत नहीं की, और कुछ माह बाद उसी ईवीएम से हुए विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने जीत दर्ज की।  

अब उमर अब्दुल्ला से आगे बढ़कर जब यही प्रश्न तृणमूल कांग्रेस सांसद और ममता बनर्जी के उत्तराधिकारी, अभिषेक बनर्जी से किया जा रहा है तो उन्होंने भी ईवीएम पर शंका जताने के बजाय कांग्रेस को दो-चार नसीहत दे डाली है। ये इंटरव्यू संयोग से ANI द्वारा लिया गया है।

इस प्रकार ANI, PTI और आज तक एवं इंडिया टुडे के पत्रकार बड़े ही चुनिंदा तरीके से इंडिया गठबंधन के नेताओं को लक्षित कर वो सवाल पूछ रहे हैं, जिससे कांग्रेस और खास तौर पर राहुल गांधी को अलग-थलग किया जा सके।  

यह अनायास नहीं है कि इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के अंतिम सत्र में न्यूज़ चैनल के स्टार एंकर, राहुल कंवल को गृह मंत्री अमित शाह से जोर देकर जानने की इच्छा होती है कि नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी हर 6 माह पर विदेश के दौरे पर क्यों जाते हैं। 

इसके जवाब में अमित शाह खुद जवाब न देकर भीड़ से पूछने के लिए कहते हैं, जैसे मीडिया और कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बीजेपी से भी ज्यादा कॉन्क्लेव में आई भीड़ पपराजी में महारत हासिल किये हो।  

फिर दर्शक-दीर्घा से राहुल गांधी की विदेश यात्रा का राज जानने के लिए राहुल कंवल आवाज लगाते हैं, और अमित शाह इशारा करके बताते हैं कि फलां व्यक्ति को माइक भिजवाइये। फलां व्यक्ति बताता है कि विदेश में राहुल गांधी कि मिसेज हैं, और दर्शक दीर्घा में यह सूचना हंसी-ठट्ठे और राहुल गांधी के मजाक बनाने में इस्तेमाल हो जाती है।

कांग्रेस पार्टी ने हालांकि एक बार फिर से राहुल कंवल को ब्लैक-लिस्ट सूची में डाल दिया है, लेकिन कांग्रेस खुद अपने वचन पर कब तक कायम रहती है को लेकर कोई भरोसा कर पाना कठिन है। 

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये सब स्वाभाविक रूप से हो रहा है, या इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति काम कर रही है?

जून माह में लोकसभा चुनाव परिणाम से सत्ता पक्ष काफी मायूस नजर आ रहा था। ऐसा माना जा रहा था कि चुनाव के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी के भाषण और आम लोगों के बीच अपील में तेज गिरावट देखने को मिल रही है। 

वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी की लोकप्रियता में तेजी से इजाफा देखने को मिल रहा था, विशेषकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे हिंदीभाषी प्रदेशों में तो यह पीएम मोदी के समानांतर या अधिक चला गया था। 

इन तीनों राज्यों में चुनाव परिणाम इसके अनुरूप दिखे। फिर कुछ माह बाद जब 4 राज्यों, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव की बारी आई तो यहां पर भी नरेंद्र मोदी के भाषणों को सुनने के लिए किसी भी प्रदेश में लोग नहीं आये। 

हरियाणा और महाराष्ट्र में तो साफ़ देखने को मिला कि प्रधानमंत्री दो-चार सभाओं के बाद खुद को चुनाव प्रचार से दूर कर चुके हैं, या अपने विदेशी दौरों पर फोकस बना चुके हैं। 

लेकिन लोकसभा के विपरीत विधानसभा के नतीजों ने सबको हैरत में डाल दिया है। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि झारखंड को इस बार बीजेपी आसानी से अपने कब्जे में ले सकती है और जम्मू-कश्मीर में भी थोड़ी-बहुत मुश्किल के बाद अपने काबू में करना उसके लिए बेहद आसान होगा। 

दूसरी तरफ, हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने में कोई परेशानी नहीं होने जा रही है, और दोनों राज्यों में विपक्ष को बंपर जीत मिलने जा रही है। 

चुनाव आयोग ने चारों राज्यों में चुनाव को एक बार न कराकर निश्चित रूप से किसी रणनीति पर काम किया। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम के बाद सारे एग्जिट पोल और गोदी मीडिया तक की आगे कोई निष्कर्ष निकालने के नाम पर घिग्घी बंध गई। 

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव में पुर्वानुमान लगाना अब काफी मुश्किल हो गया था।  बहरहाल महाराष्ट्र में लगभग सभी एग्जिट पोल में महायुती को बढ़त दिखाई गई, लेकिन जो परिणाम आये उसकी तो किसी ने भी कल्पना तक नहीं की थी। 

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों को आज भी कोई निष्पक्ष चुनाव समीक्षक ही नहीं बल्कि दोनों राज्यों के आम मतदाता तक स्वीकार कर पाने की हालत में नहीं हैं। लेकिन इस परिणाम से कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे का खेमा तो निश्चित रूप से बुरी तरह से हिला हुआ है।  

हमारे देश में चुनाव विश्लेषकों, गोदी एंकरों की एक पूरी जमात है, जिसने बीजेपी के पक्ष में यथासंभव आंकड़े जुटाए थे, लेकिन उनकी उम्मीदों से बेहतर चुनाव परिणामों ने उन्हें बमुश्किल से कुछ समय तक ही हैरत में डाला। उन्होंने फ़ौरन अपने आकलन को चुनाव आयोग के रिजल्ट और बीजेपी के बयानों के आधार पर व्यवस्थित कर लिया।  

प्रधानमंत्री मोदी की कम रैलियों को रणनीति का हिस्सा बताया जाने लगा, और महाराष्ट्र चुनाव में भारी सफलता के लिए आरएसएस की भूमिका को अचानक से इतना फुलाया जाने लगा कि वह अपच की सीमा से बाहर चला गया था।  

इसका कुल नतीजा या निकला है कि जमीन पर भले ही मतदाता अपने बूथ पर वोटिंग से सहमत न हों, लेकिन महाविकास अघाड़ी के घटक दलों की सोच पर पूरी तरह से लकवा मार गया है। कभी उसके जीते हुए उम्मीदवार शपथ ग्रहण से इंकार कर देते हैं, तो अगले दिन खुद आगे जाकर चुपके से शपथ लेने पहुंच जाते हैं।  

आज उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को लगता है कि शायद महाविकास अघाड़ी में सहयोगी दल के वोट उसके पक्ष में सहजता से नहीं आ सके। अब उसे फिर से हिंदुत्व की याद सताने लगी है।

मतलब लोकसभा में विपक्ष को मिली बंपर जीत जब विधानसभा में पूरी तरह से उलट जाये तो ऊपर-ऊपर से चुनाव आयोग, ईवीएम पर दोष दो लेकिन भीतर ही भीतर किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत अब ये दल उसी को दोषी ठहराने से बाज नहीं आ रहे हैं, जिसने कहीं न कहीं विपक्ष को एकजुट होकर निडरता के साथ लोकसभा के रणक्षेत्र में उतरने के लिए तैयार किया था। 

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जिस अमेरिकी अदालत के अडानी समूह के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट को देश में बेहद महत्वपूर्ण समझा जा रहा था, और राहुल गांधी ने जिसे बेहद संजीदगी के साथ एक बार फिर से सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश की, आज उसी मुद्दे पर वे कहीं न कहीं इंडिया गठबंधन में अकेले पड़ते जा रहे हैं। 

सोलर एनर्जी के ठेके में 2200 करोड़ की घूस जिन पांच राज्यों के बीच बांटी गई है, उसमें अधिकांश विपक्षी या ओडिशा और आंध्रप्रदेश की पूर्व राज्य सरकारों से संबंधित है। इसके अलावा शरद पवार तो खुद यह बताने से नहीं चूकते कि अडानी को सबसे पहले उन्होंने ही संरक्षण प्रदान किया था। 

इसी तरह, अडानी के व्यावसायिक हित पश्चिम बंगाल से लेकर कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ से लेकर केरल की पिनाराई विजयन सरकार तक को अपने घेरे में लिए हुए है। 

विपक्षी एकता में जो सेंधमारी सत्तारूढ़ दल के लिए बड़ी बाधा बनी हुई थी, वह अडानी के निर्णायक रुख के बाद पूरी तरह से सहज और सुगम हो चुकी है। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भारतीय राजनीति एक ऐसे मुकाम पर आ चुकी है, जहां पर क्या राष्ट्रीय दल और क्या क्षेत्रीय क्षत्रप, सभी बड़े कॉर्पोरेट घरानों की छत्रछाया के तहत ही अपनी दुकान चला रहे हैं।  

देश का क्रोनी पूंजीपति इतना सशक्त हो चुका है और उसके नागफांस में तमाम दल इतने अंदर तक धंस चुके हैं कि वे उसका कृपापात्र बनने के लिए विपक्ष में कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच सबसे लोकप्रिय नेता को भी किनारे कर देने और अपनी चमड़ी सुरक्षित रखने के लिए किसी भी तरह की बयानबाजी करने में कोताही नहीं बरत रहे हैं। 

बहुत संभव है कि एक के बाद एक आरोपों की झड़ी के दबाव को दिखाकर कांग्रेस पार्टी के भीतर मौजूद लॉबी राहुल गांधी को भी राजी करा पाने में समर्थ हो जाये कि अडानी के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल पहले विपक्ष में पार्टी की सुपरमेसी को कायम रखने पर फोकस रखा जाये। 

राहुल गांधी भी इस कटु यथार्थ से निश्चित रूप से परिचित होंगे कि सिर्फ संसद के भीतर या प्रेस कांफ्रेंस के जरिये मौजूदा व्यवस्था को पलटना तो दूर खरोच लगाना भी नामुमकिन है। इसके लिए जो काम किए जाने चाहिए, उसके लिए कांग्रेस पार्टी का प्लेटफार्म सर्वथा अयोग्य है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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