हिमालय को जानने के लिए 1150 किमी पैदल यात्रा

Estimated read time 1 min read

कहते हैं कि यदि आप समय-समय पर यात्राएं नहीं करते तो आप एक तरह से मरने लगते हैं। यात्रा किसी भी तरह की हो, वह ज्ञान और अनुभव के नये रास्ते खोलती है। यात्राएं जीवन को नया मकसद देती हैं और यात्राएं प्रेम और सद्भाव का संदेश भी देती हैं। यात्राओं को यदि हम सैर-सपाटा और तीर्थाटन भर न मानें, समाज और प्रकृति को जानने-समझने के नजरिये से यात्रा करें तो नतीजे और भी बेहतर और उत्साहवर्द्धक होने की संभावनाएं बनी रहती हैं। उत्तराखंड में हर 10 वर्ष में 45 दिन की एक ऐसी पैदल यात्रा होती है, जिसका मकसद होता है, हिमालय को और हिमालय की तलहटी में रहने वाले लोगों को जानना-समझना। इस यात्रा को नाम दिया गया है -अस्कोट-आराकोट अभियान’। वर्ष 1974 में अल्मोड़ा कॉलेज से निकले कुछ नौजवानों द्वारा शुरू की गई इस यात्रा को इस वर्ष 50 साल पूरे हो चुके हैं। इन दिनों यह यात्रा छठी बार आयोजित की जा रही है।

1974 में यह यात्रा चार युवाओं ने शुरू की थी। इनमें शामिल थे शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, कुंवर प्रसून और प्रताप ‘शिखर। यात्रा का मकसद था, हिमालय की तलहटी में रहने वाले लोगों को जानना। पहली बार यह यात्रा पिथौरागढ़ जिले के अस्कोट से शुरू की गई थी। बाद में हर 10 वर्ष में पिथौरागढ़ जिले के सुदूरवर्ती पांगू से शुरू करने का फैसला किया गया। इस तरह से 1984 के बाद से यह यात्रा हिमालय की तलहटी के अनेक दुर्गम क्षेत्रों से होकर 350 से ज्यादा गांवों को छूती हुई 1150 किमी की दूरी तय करती है और 45 दिन बाद उत्तरकाशी जिले के आराकोट में समाप्त होती है। यात्रा हर बार 25 मई को उत्तराखंड के महान शहीद श्रीदेव सुमन के जन्मदिन पर शुरू होती है और 8 जुलाई को संपन्न होती है। पहली बार यात्रा करने वाले युवाओं में से अब सिर्फ डॉ. शेखर पाठक हैं, जो लगातार छठी बार यात्रा का नेतृत्व कर रहे हैं। 74 वर्ष की उम्र में भी उनका जोश देखने लायक है।

डॉ. शेखर पाठक पहली यात्रा के चार सदस्यीय दल में भी शामिल थे। 74 वर्ष की उम्र में भी लगातार पैदल चल रहे हैं

मैं इस यात्रा में 16 जून को शामिल हो पाया, जब यात्रा अपने 23 पड़ाव पार कर चुकी थी। इनमें मुनस्यारी जैसा खूबसूरत इलाका भी शामिल था तो नामिक जैसा अंतिम छोर का गांव भी। कई खूबसूरत बुग्याल भी तो कुंवारी पास भी। हिमनी, घेस और आली वेदनी बुग्याल भी। मैं 16 जून की सुबह देहरादून से चलकर दोपहर को चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर पहुंचा। पता चला कि यात्रा दल बछेर गांव रवाना हो गया है। बछेर में पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट का आश्रम है। मेरे साथ सुप्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल और देहरादून के एक कॉलेज की प्रोफेसर डॉ. शिवानी पांडेय भी थे। हम तीनों गोपेश्वर से बछेर पहुंचे, जहां यात्रा दल के सदस्यों के साथ भेंट हुई। बछेर में चंडी प्रसाद भट्ट ने इस यात्रा के पुराने संस्मरण बताये और यह भी कि किस तरह से यह यात्रा हिमालय और हिमालय की तलहटी में रहने वाले लोगों को जानने में महत्वपूर्ण साबित होती रही है। रात को हम लोग गोपेश्वर लौट आये। भोजन से पहले गोपेश्वर में स्थानीय लोगों से विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई।

गोपेश्वर में बातचीत के वैसे तो कई महत्वपूर्ण मुद्दे थे, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा हुई इस साल गोपेश्वर जैसे ऊंचाई वाले शहर में पड़ रही गर्मी की। लोगों का कहना था कि पहले गोपेश्वर में कभी पंखे चलाने की जरूरत नहीं पड़ी, लेकिन इस बार लोगों को मजबूरन पंखे खरीदने पड़े। जंगलों में लगातार लग रही आग और स्थानीय फसलों की पैदावार में आ रही कमी पर भी यहां लोगों ने अपनी बात रखी।

ऊंचे हिमालयी बुग्यालों को ले लेकर कठिन चढ़ाई और तीव्र ढालों से गुजरता है यात्रा दल

17 जून की सुबह करीब 30 सदस्यों का यात्री दल गोपेश्वर से दो हिस्सों में रवाना हुआ। पहला दल गजेन्द्र रौतेला के नेतृत्व में मोटर मार्ग वाले रास्ते से रवाना हुआ तो दूसरा दल डॉ. शेखर पाठक के नेतृत्व में दूसरे रास्ते से। मैं दूसरे दल में शामिल था। गोपेश्वर से करीब 3 किमी नीचे उतर कर हमने बालखिला नदी पार की और पहुंच गये सिरोखोमा गांव। यह भोटिया जनजाति के लोगों का गांव है। भोटिया जनजाति के लोग गर्मियों में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थिति नीती, माणा, गमसाली आदि अपने ग्रीष्मकालीन गांवों में चले जाते हैं। सिरोखोमा गांव में हमें सिर्फ एक महिला मिली। भोटिया जनजाति की मौजूदा हालात पर उनसे चर्चा हुई तो पता चला कि इस जनजाति के लोग भी अब तेजी से अपने परंपरागत काम-धंधों, पशुपालन और रीति-रिवाजों से किनारा कर रहे हैं, यहां तक कि अपने परंपरागत गांवों से भी। इस जनजाति के ज्यादातर लोग अब शहरों में बस गये हैं। अब जनजातीय परिवारों के पशुओं के संख्या भी बहुत कम है। पहले निचले गांवों से उच्च हिमालयी गांवों तक पहुंचने के लिए वे कई दिनों की पैदल यात्रा करते थे, लेकिन अब गाड़ियों में जाते हैं। पशुओं को भी ट्रकों में लादकर ले जाया जाता है।

सिरोखोमा से हम नई खोदी गई कच्ची सड़क से होकर निकल पड़े बैरांगणा की तरफ, जहां हमें दूसरे दल से मिलना था। यह मेरे लिए पहली चढ़ाई थी। पीठ पर बैग लादे पुराने यात्री अपनी निर्धारित चाल से आगे बढ़ रहे थे, लेकिन मेरे लिए यह पहली चढ़ाई कुछ कठिन महसूस हो रही थी। जहां कहीं हम लोग कुछ देर सुस्ताने के लिए रुकते मैं वहां से सबसे आगे चलता, लेकिन कुछ ही देर में मैं सबसे पीछे होता। करीब 7 किमी चलकर हम बैरांगना पहुंच गये। पहला दल पहले से ही बैरांगना पहुंच चुका था और ग्रामीणों के साथ एक बैठक हो रही थी। मैं फिर से पीछे न रह जाऊं इसलिए मैं बैरांगना में नहीं रुका और गोपेश्वर-चोपता मोटर मार्ग पर आगे बढ़ता चला गया। हमें अभी 4 किमी दूर मंडल पहुंचना था और वहां से फिर 4 किमी बणद्वारा गांव।

यहां हम चार लोगों ने कुछ पैदल चलने की बजाय ग्रुप से छुपकर एक स्थानीय सवारी जीप पर बैठकर चार किमी की दूरी तय की और मंडल पहुंच गये। दल के बाकी सदस्य करीब 2 घंटे बाद यहां पहुंचे। मंडल स्थित जड़ी-बूटी शोध केन्द्र के प्रभारी डॉ. सीपी कुनियाल के सानिध्य में एक सभा हुई। डॉ. कुनियाल ने इस संस्थान द्वारा किये जा रहे कार्याें के बारे में बताया। हमें पता चला कि जड़ी बूटी निदेशालय और इस संस्थान में स्टाफ की कमी के चलते काम ठीक तरीके से नहीं हो पा रहे हैं। यहां तक कि लंबे समय से एक स्थाई निदेशक तक की नियुक्ति नहीं हो पाई है। संस्थान की ओर से किसानों को कई तरह से मदद करने, बीज, पौध आदि देने और फसलों में लगने वाली बीमारियों का उपचार करने का जिम्मा दिया गया है, लेकिन स्टाफ की कमी के कारण ये काम ठीक से नहीं हो पा रहे हैं।

मंडल से हम लोग 4 किमी दूर बणद्वारा पहुंचे। अब यात्री दल में 28 सदस्य थे। हम बणद्वारा ग्राम सभा के कांडा तोक पहुंचे, जहां सर्वोदयी कार्यकर्ता दरवान सिंह नेगी और कुछ अन्य नेगी परिवार रहते हैं। इन परिवारों का आतिथ्य सत्कार और प्रेम अभिभूत कर गया। इन परिवारों का हर सदस्य मानों हमारी सेवा में जुट गया। बणद्वारा आकर यह गलतफहमी दूर हुई कि पहाड़ के लोग उद्यमशील नहीं हैं। गांव के हर परिवार ने न सिर्फ सब्जी उगाई है, बल्कि नींबू, नारंगी आदि की पौध भी तैयार की हैं, जो बरसात में बेची जाएंगी। हर परिवार ने कीवी की खेती की है, जो सीजन में अच्छा बिजनेस दे रही है। लगभग सभी परिवारों के तालाब हैं, जिनमें मछली पालन हो रहा है। लेकिन संविधान में प्रदत्त दो प्रमुख अधिकारों शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार से इस गांव के लोग भी महरूम हैं। स्कूल दूर होने के कारण लोगों को गोपेश्वर शिफ्ट होना पड़ रहा है। प्राइमरी स्कूल कांडा से 2 किमी है तो इंटर कॉलेज करीब 8 किमी दूर बैरांगना। गांव तक कच्ची सड़क बन गई है, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव बना हुआ है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बैरांगना में है, जहां सुविधाएं पहाड़ के तमाम अस्पतालों की तरह ही हैं। मरीजों को अक्सर गोपेश्वर जिला अस्पताल रेफर कर दिया जाता है और वहां से श्रीनगर, फिर देहरादून। यह दरअसल पूरे पहाड़ की कहानी है।

18 जून को बणद्वारा से हम वापस मंडल पहुंचे और वहां से घने जंगल से होते हुए चोपता के लिए चढ़ने लगे। यह रास्ता किसी समय केदारनाथ से बदरीनाथ जाने का पैदल मार्ग था। अब यहां मोटर रोड है। मोटर रोड से होकर जाना काफी लंबा पड़ता, इसलिए हम पैदल रास्ते चले। यह काफी कठिन चढ़ाई थी। इस पैदल मार्ग पर कुछ साल पहले तक पानी के कई स्रोत थे। लेकिन, अब ज्यादातर स्रोत सूख गये हैं। करीब 10-12 किमी लंबे इस घने जंगल वाले रास्ते में हमें पानी के दो सिर्फ स्रोत ही मिले।

शाम 4 बजे दल के सभी सदस्य चोपता पहुंच गये। चोपता एक खूबसूरत बुग्याल है। यह ऊखीमठ-गोपेश्वर मोटर मार्ग पर है। यहां से तुंगनाथ के लिए पैदल ट्रैक है। उत्तराखंड में अव्यवस्थित पर्यटन का उदाहरण देखना हो तो उसके चोपता से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती। इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में रिजॉर्ट बनाने की अनुमति कैसे मिली, यह बड़ा सवाल है। हर रोज पर्यटकों की हजारों गाड़ियां यहां पहुंच रही हैं, लेकिन पार्किंग की कोई व्यवस्था नहीं है। सड़क किनारे दूर तक गाड़ियां अस्त-व्यस्त हालत में पार्क की जा रही हैं, नतीजा है सुबह से देर रात तक लगने वाला जाम। हमें दो घंटे यहां जाम में रहना पड़ा। गाड़ी वालों और रिजॉर्ट वालों की मनमानी ऐसी कि पर्यटकों के साथ लगातार उनकी झड़पें होना यहां आम बात हो गई है। इस रात यात्री दल को चोपता में ही रहना था, लेकिन पता चला कि यहां पानी की ठीक व्यवस्था नहीं है। लिहाजा रात हमें चोपता के ठीक नीचे मक्कू गांव जाना पड़ा।

शाम करीब 4 बजे जब हम लोग चोपता पहुंचे तो एक रिजॉर्ट वाले व्यक्ति से पहले ही खिचड़ी की व्यवस्था करवा दी गई थी। रिजॉर्ट में पहुंचते ही चोपता में मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। करीब तीन घंटे तक हम लोग रिजॉर्ट में ही फंसे रहे। ऊंचाई वाले क्षेत्र में होने के कारण चोपता में ठंड लगने लगी थी, लेकिन 40 डिग्री की गर्मी के बाद इस ठंडक में पहुंचना सुकून दे रहा था। अब चिन्ता नीचे मक्कूमठ गांव उतरने की थी। चोपता से ठीक नीचे करीब 10 किमी पर मक्कूगांव मिल जाता। लेकिन, जिस तरह से बारिश हुई थी, उसके बाद इस पैदल रास्ते पर चलना खतरे से खाली नहीं था। मोटर मार्ग से करीब 30 किमी चलना पड़ता। लिहाजा यहां से किराये के दो ट्रेकर की व्यवस्था करके हम लोग मक्कूमठ पहुंचे।

मक्कूमठ गांव तुंगनाथ का शीतकालीन पूजास्थल है। कुछ वर्ष पहले तक यह पहाड़ का एक परंपरागत गांव था, लेकिन अब चोपता पर्यटन स्थल बन जाने के बाद से मक्कूमठ भी एक पर्यटन विलेज की शक्ल अख्तियार कर चुका है। गांव में अब कुछ रिजॉर्ट भी हैं और कुछ होमस्टे भी। 18 जून की सुबह गांव के लोगों के साथ एक बैठक थी। बैठक में कुछ महिलाएं भी आई। यहां लोगों ने और खासकर महिलाओं ने शराब की समस्या को प्रमुखता से रखा। उनका कहना था कि चोपता उनकी वन पंचायत का हिस्सा है, लेकिन वन पंचायत पर पूरा कब्जा अब वन विभाग का है। वन विभाग नियमों का उल्लंघन करके चोपता में रिजॉर्ट बनाने की परमिशन दे रहा है, लेकिन स्थानीय युवक जब कोई छोटा-मोटा छप्पर बनाकर रोजी-रोटी कमाने का प्रयास करते हैं तो उनके छप्पर प्रशासन तोड़ देता है। महिलाओं का कहना था कि इस तरह के मामलों को लेकर उन्होंने चोपता में प्रदर्शन भी किया था। प्रशासन ने उनके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज किये हैं।

18 जून को मक्कूमठ की इस बैठक में कई मुद्दे सामने आये। इस तरह से बैठक दोपहर तक चली। दोपहर को यात्रा दल रवाना हुआ। इसके बाद पूरा दिन पैदल चलने में ही गुजरा। बीच में उषाड़ा गांव में ग्रामीणों के साथ एक बैठक हुई, लेकिन समय की कमी और लगातार बारिश के कारण बैठक में ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई। अंधेरा होने से पहले यात्रा दल ऊखीमठ पहुंचा। अगली सुबह मैं वापस देहरादून लौट आया। जैसा कि मैंने कहा यात्रा 8 जुलाई को संपन्न होगी।

(त्रिलोचन भट्ट वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments