बिहार में एक बार फिर से चुनाव की विसात बिछने लगी है। विधानसभा चुनाव को लेकर हर दल और राजनीतिक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से मैदान मारने के फिराक में है। हर के अपने-अपने दांव है और अपनी-अपनी चाल, लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ अलग हट के भी बातें हो रही हैं। मसलन बिहार में वामपंथी ताकतों के उभार से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक बार फिर बिहार राजनीतिक प्रयोग के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है, जहां एक ओर वामपंथी ताकतें हैं, तो दूसरी ओर यूएस नियंत्रित कॉरपोरेट घराने, जो खूनी और क्रूर पूंजीवाद को लेकर विगत तीन दशकों से भारत में सक्रिय हैं।
हम थोड़ा पीछे चलते हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्व साम्राज्यवादी सोच पर आधारित विस्तार को समझने की कोशिश करते हैं। ऑटोमन साम्राज्य के बाद ब्रितानियों ने दुनिया में अपना पैर जमाया और लगभग पूरी दुनिया पर फिरंगियों का प्रत्यक्ष और परोक्ष कब्जा हो गया। दो यूरोपीय महायुद्ध के बाद ब्रितानी साम्राज्य का खात्मा हो गया लेकिन उसी के ध्वंस पर रूस में साम्यवादी साम्राज्य और अमेरिका में पूंजीवादी साम्राज्य का उदय हुआ। दोनों ने अपने-अपने तरीके से दुनिया को नियंत्रित और शोषित करने के लिए नए और हथियार विकसित किए। ब्रितान, अमेरिका और रूस ने मिलकर दुनिया को नए तरीके से गुलाम बनाने के लिए विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व व्यापार संगठन, यूएनओ जैसे संगठनों का निर्माण किया। फिर उसमें सुरक्षा परिषद का गठन किया और खुद मुख्तारी के लिए पांच प्रभावशाली देशों को उसका सदस्य बना दिया गया। आज ये पांचों देश दुनिया के बादशाह बन बैठे हैं लेकिन राज वो कर रही हैं जो अमेरिका के द्वारा नियंत्रित कॉरपोरेट कंपनियां हैं।
इन कॉरपोरेट कंपनियों ने पहले कोस्टारिका, पनामा, निकारागुआ, ग्वाटेमाला, मैक्सिको आदि देशों को अपने गिरफ्त में लिया। फिर लैटिन अमेरिका को गुलाम बनाया। इसके बाद अफ्रीकी देशों का आर्थिक शोषण प्रारंभ किया। इसके बाद अरब और मुस्लिम देशों को अपना निशाना बनाया और अब भारत जैसे देशों के संसाधनों पर उनकी नजर है। पाकिस्तान में बड़ी क्रूरता से शोषण करने के बाद अमेरिकी क्रूर पूंजीपरस्त व्यापारी भारत में प्रवेश कर गए हैं। उनकी गिद्ध दृष्टि हमारे संसाधनों पर है। उन्होंने 1990 के बाद से ही यहां अपनी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी थी। भाजपा के शासन काल में इन्होंने अपने प्रभाव की गति और तेज कर दी है। लेफ्ट पार्टियों को छोड़ कर लगभग सभी पार्टियों में इनके एजेंट घुसे हुए हैं। चूकि लेफ्ट पार्टियां किसी जमाने में रूसी साम्यवादी साम्राज्यवाद के अनुशासित सिपाही हुआ करते थे इसलिए अमेरिकी कॉरपोरेट इनसे डरते हैं और सशंकित रहते हैं। दूसरी बात यह है कि लेफ्ट पार्टियों के पास जो समर्थक वर्ग है, अमेरिकी कॉरपोरेट चिंतन में उसका कोई स्थान नहीं है। इसलिए भी यहां लेफ्ट के अस्तित्व का सवाल खड़ा हो रहा है। लेफ्ट इसलिए भी इनकी जद में नहीं आ पा रहा है।
लेफ्ट को छोड़ कर सभी राजनीतिक दलों ने अपना राजनीतिक सलाहकार ऐसे खास व्यक्ति को रख लिया है, जिसकी पढ़ाई अमेरिकी विश्वविद्यलयों से हुई है। या फिर वह अमेरिकी साम्राज्यवादी कॉरपोरेट कंपनियों के सहयोग से चल रही वैश्विक संस्था में नौकरी कर चुका है। विश्व बैंक, आईएमएफ, यूएन, डब्लूटीओ आदि में रह चुका है। यहां मैं अमेरिकी हिट मैन की थ्योरी का जिक्र करना चाहूंगा। अमेरिकी पूंजीवादियों ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए इस सिद्धांत को गढ़ा था। ये अपने कुछ लोगों को पहले आर्थिक दृष्टि से गुलाम बनाने वाले देशों में भेजते हैं और उसको वहां की विभिन्न पार्टियों में घुसाकर अपनी नीतियों को लागू करने की दिशा में माहौल बनवाते हैं। ये लोग, राजनीतिक व्यक्ति, टेक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट, ज्यूडिशियरी आदि सत्ता प्रतिष्ठानों को भ्रष्ट करने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन हिट मैनों में कुछ तो उसी देश के होते हैं और कुछ हार्डकोर सीआईए के द्वारा प्रशिक्षित होते हैं। इसमें अमेरिकी कॉरपोरेट के कुछ अधिकारियों के रूप में भी विभिन्न देशों में काम करते देखे गए हैं।
यह हिरावल दस्ता पहले अमेरिकी महाद्वीप में अपना खेल किया। इसके बाद उसने अपना वैश्विक विस्तार प्रारंभ किया। हमारा पड़ोसी पाकिस्तान उसी का मारा है। चीन में भी कोशिश हुई लेकिन चीनी पहले सतर्क हो गए थे। न तो रूसी साम्यवादी साम्राज्य का हिस्सा बने और न ही अमेरिकी पूंजीवाद का हिस्सा बने। अपने फायदे और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख चीन ने अपनी अच्छी ताकत एकत्रित कर ली है और आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती दे रहा है लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो पा रहा है।
इन दिनों भारत में वही अमेरिकी हिट मैन सभी पार्टियों में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर चुके हैं। इन हिट मैनों को सबसे पहले कॉग्रेस ने रास्ता दिया। इसके बाद समाजवादी दलों ने अपने यहां रखा और जब से भाजपा में नरेन्द्र मोदी का उभार हुआ है तब से ये हिट मैन यहां भी प्रभावशाली हो गए हैं। संघर्षों से पैदा होने वाले नेताओं के सामने 25-30 साल के युवकों को चुनाव लड़ाना, लोगों से बात करना, भाषण देना सिखा रहे हैं। चुनाव जीतने के लिए आज जनसंपर्क करने की जरूरत नहीं रह गयी है। अमेरिकी सॉफ्टवेयर लोगों को चुनाव लड़ा रहा है और उसे जिता भी रहा है। बाजार में धड़ल्ले से ये साफ्टवेयर मिल रहे हैं। इस बार के संसदीय चुनाव में भाजपा ने जो किया वह अद्भुत था। उससे प्रभावित होकर अन्य पार्टियां भी वही कर रही हैं। प्रशांत किशोर जैसे लोग हर पार्टियों में सक्रिय हैं और उन्हें चुनाव जीतने के गुर बता रहे हैं। यह ऊपर से देखने में चाहे जो लग रहा हो लेकिन अंदर से यह अमेरिकी क्रूर पूंजीवादी साम्राज्यवाद के हिरावल दस्ते के सदस्य मात्र हैं। जिसका परिणाम पाकिस्तान भुगत रहा है। आने वाले समय में भारत भी भुगतेगा।
बिहार राजनीतिक प्रयोग की भूमि रही है। ब्रितानी सामाज्यवाद को खत्म करने के लिए गांधी को चंपारण से संघर्ष प्रारंभ करना पड़ा था। रूसी साम्यवादी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। आज कन्हैया ने अमेरिकी क्रूर पूंजीवाद को चुनौती देने के लिए नए सिरे से संघर्ष प्रारंभ किया है। उसे समर्थन भी मिल रहा है। परिस्थितियां एक बार फिर से अनुकूल हैं। संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है। बिहार चूंकि दक्षिण-पूर्व एशिया का रास्ता खोलता और बंद करता है। बिहार अमेरिकी कॉरपोरेट कंपनियों के लिए बेहद जरूरी है क्योंकि बगल के प्रांत झारखंड में बड़े पैमाने पर संसाधन उपलब्ध है। उसका विदोहन भी उन्हें चाहिए। यह बिना बिहार पर कब्जा जमाए संभव नहीं है। इसलिए इस बार के विधानसभा चुनाव में केवल राजनीतिक दल ही चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उसके पीछे जहां एक ओर क्रूर अमेरिकी साम्राज्यवादी कॉरपोरेट कंपनियों की अपनी रूचि है तो दूसरी ओर उस जमात के अस्तित्व का सवाल है जो मानसिक और शारीरिक मेहनत कर अपना जीवन यापन करते हैं।
(गौतम चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और रांची में रहते हैं।)
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