Thursday, April 25, 2024

छत्तीसगढ़ः एक छोटी सी शुरुआत बन गया इमली आंदोलन

छत्तीसगढ़ राज्य के बेलियापाल नामक एक दूर के गांव में, सुहानी सुबह थी, लगभग चार बजे होंगे। लगभग 40 वर्ष की एक आदिवासी महिला शिव कुमारी, जंगल में जाने के लिए तैयार थीं। वह एक टोकरी लेकर घने जंगल के अंदर लगभग 5-6 किलोमीटर पैदल चलकर जाएंगी, जिससे वह गौण वन-उपजों (एमएफ़पी) को इकट्ठा करेंगी। इसके आस-पास के क्षेत्रों में साल के बीज और इमली आमतौर पर पाए जाते हैं। अपनी कुछ आदिवासी महिला मित्रों के साथ मिलकर, वह घने जंगल में जाती हैं और ये वन उपज इकट्ठा करके सिर पर उठा कर अपने घर लाती हैं। हर दिन वह अपनी क्षमता के अनुसार लगभग 10 किलो वजन अपने सिर पर उठाकर लंबी दूरी तय करती हैं।

लगभग 7-8 बजे तक, वह घर वापस आ जाती हैं। गौण वन-उपज रखती हैं और अपने पति और बच्चों को खाना खिलाती हैं। कुछ घरेलू कामों को निपटाने के बाद, वह बैठकर गौण वन-उपज की सफाई करती हैं, जैसे कि इमली से छिलके उतारना और रेशे दूर करना। यह गौण वन-उपज अब बाजार में बिक्री के लिए तैयार है। दोबारा, वह प्राथमिक तौर पर सुधारी हुई इस गौण वन-उपज को सिर पर उठाकर सबसे करीबी बाजार में बेचने के लिए 10 किमी तक चलकर जाती हैं। तब तक लगभग दोपहर का समय हो जाता है और जगदलपुर जिले के बाहर से आए व्यापारी इन महिलाओं से ‘व्यक्तिगत रूप से’ इनकी गौण वन-उपज खरीदने के लिए अपने वाहन के साथ इंतजार कर रहे होते हैं।

उनके मिनी ट्रक में बोरे और देसी तराजू पहले से ही मौजूद रहते हैं। व्यापारी का संचालक शिव कुमारी के सिर से गौण वन-उपज की पोटली उठा लेता है और उसे तराजू पर रख देता है। गौण वन-उपज की गुणवत्ता और शिव कुमारी की हताशा को देखते हुए, दोनों के बीच कुछ मधुर-संवाद होता है और फिर शिव कुमारी पैसे लेकर घर की तरफ लौट आती हैं। कभी-कभी, शिव कुमारी अपनी गौण वन-उपज के बदले, दैनिक आवश्यक वस्तुएं जैसे नमक या चीनी जैसा सामान बिना कोई मोल-भाव किए ले लेती हैं। यह वस्तु-विनिमय प्रणाली दोनों के लिए एक आम बात है। नमक और चीनी जैसी आवश्यक खाद्य वस्तुएं सुदूर गांवों में आसानी से उपलब्ध नहीं होती हैं और केवल इन व्यापारियों के माध्यम से ही आदिवासियों द्वारा खरीदी जाती हैं।

शिव कुमारी की नकदी की सख्त जरूरत को देखते हुए, व्यापारी बहुत कम मूल्य निर्धारित करके या गौण वन-उपज की निम्न गुणवत्ता बताकर शिव कुमारी (और अन्य आदिवासी महिलाओं का) का शोषण करता है। शिव कुमारी अन्य व्यापारियों के पास नहीं जा सकती, क्योंकि वह लंबे समय से इस व्यापारी को अपनी गौण वन-उपज देती आई हैं और वह उससे कर्ज भी ले चुकी हैं।

इसके अलावा, व्यापारियों ने एक उत्पादक संघ का गठन किया हुआ है, जिसकी वजह से कोई भी व्यापारी इन गौण वन-उपजों का खरीद मूल्य नहीं बढ़ाता है और शिव कुमारी को मजबूरन उनके मूल्य पर ही बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। शिव कुमारी को यह भी एहसास नहीं है कि उनके अनुचित तरीकों और उनके द्वारा उसकी गौण वन-उपज को बेहद सस्ते मूल्य पर खरीदने से उसका शोषण किया जा रहा है। इनका वजन करने का तरीका भी पूरी तरह से व्यापारी के नियंत्रण में रहता है, और जिसमें किसी तरह की कोई पारदर्शिता नहीं है।

इस तरह का एक-तरफा ‘व्यापार’ लगभग एक सदी से अब तक हर रोज़ अनगिनत बार हो रहा है। इन गौण वन-उपजों का अनुमानित मूल्य प्रति वर्ष 2,00,000 करोड़ रुपये माना गया है। आदिवासी शिव कुमारी जैसी भारत में अनुमानतः पांच करोड़ महिलाएं हैं, जो हर दिन इन गौण वन-उपजों को इकट्ठा करती हैं और इन्हें बिचौलियों द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित बाजार में सस्ते दामों पर बेचती हैं। ये जो गौण वन-उपज शिव कुमारी जैसी आदिवासी महिलाओं के घर-आंगन से निकलती है, वह अंततः स्वास्थ्य सेवा, सौंदर्य-देखभाल, आदि जैसी दैनिक आवश्यकताओं में प्रयुक्त की जाती है। हालांकि, इन सभी शिव कुमारियों को, जो कि इन गौण वन-उपजों की असली मालिक हैं, उन्हें इन गौण वन-उपजों के अंतिम मूल्य का 10% से भी कम मूल्य मिलता है।

पंचायती प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996, या पेसा-पीईएसए के अनुसार जंगलों में निवास करने वाले लोगों का इन गौण वन-उपजों पर वास्तविक स्वामित्व है। हालांकि, इस अधिनियम ने इन गौण वन-उपजों को परिभाषित नहीं किया है, जिससे ये लोग इस अधिनियम की तकनीकी कमियों को भुगत रहे हैं। पारंपरिक वन, पेड़ों, फलों, फूलों, जड़ों आदि का मिश्रण थे, जो आजीविका और आय सृजन के लिए पर्याप्त थे। हालांकि, स्थिति को देखकर यह पता चला कि अधिकारों की मान्यता की कमी इन वनवासियों को कृषि मजदूरों की तरह आय के अन्य स्रोतों से दूर कर रही है।

एक और मुद्दा जो आता है वह यह है कि वन विभाग द्वारा अति-निकासी से बचने के लिए प्रतिबंध। यह व्यापक रूप से ज्ञात तथ्य है कि भारत के वनों में अधिकांशतः ऐसे वन जीवित हैं जिन क्षेत्रों में उच्च प्रतिशत में आदिवासी रह रहे हैं, लेकिन इन आदिवासियों का हमेशा से एक ही तरीके से या दूसरे अन्य तरीकों से शोषण होता रहा है। इससे आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता देने और बढ़ती आय के साथ आजीविका का एक निरंतर स्रोत प्रदान करने और उन्हें बिचौलियों द्वारा शोषण से बचाने की एक बड़ी आवश्यकता देखी गई है।

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा जो सामने आया, वह यह था कि मुख्यधारा के व्यापारियों के साथ समान रूप से मोल-भाव करने और बातचीत करने के लिए आदिवासियों के बीच सामूहिक मजबूती की कमी थी। इसलिए, स्वयं सहायता समूहों और निष्पक्ष-व्यापार के तरीकों के रूप में सामूहिक लचीलापन इन शिव कुमारियों की आय को बढ़ाने में मदद कर सकता है, जो उनके परिवार में केवल एकमात्र कमाने वाली हैं।

आदिवासी जंगलों के साथ सहजीवी संबंध साझा करते हैं। शहरी आबादी से अलग, आदिवासी अपनी दैनिक आय के लिए वनों पर ‘संपूर्ण निर्भर’ रहते हैं। असमान बाजार और वनवासी संबंध राज्य द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं। वन प्रकृति की देन हैं और इन पर पल रहे समुदाय इनके वास्तविक मूल्य और इनको बनाए रखने तथा संरक्षित करने की क्षमता को जानते हैं। वे पेड़ उगाने और प्राकृतिक जंगलों के बीच अंतर कर सकते हैं। आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में, जबकि उनके द्वारा बनाए गए उत्पादों की विलासिता का आनंद लेते हुए, आदिवासियों को वनों के अति-दोहन के लिए दोषी ठहराया जाना समाज के पाखंडपन को दर्शाता है।

प्राकृतिक वनों के क्षेत्र में सतत आजीविका के लिए समुदाय के उत्थान और बिचौलियों द्वारा शोषण को रोकने के लिए उनके अधिकारों की बहाली की आवश्यकता रहेगी। गैर-इमारती लकड़ी, वन उपजों या गौण वन-उपजों पर आय को किसी विकेन्द्रीकृत तरीके से कुछ न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद एजेंसियों को सुनिश्चित करके संरक्षित करने की आवश्यकता है, ताकि गांव के स्तर पर आदिवासी समुदायों द्वारा महसूस किए जाने वाले अभाव को रोका जा सके। एक सफल हस्तक्षेप के लिए, तौर-तरीकों को ध्यान से देखने की आवश्यकता है, जबकि अनुचित अपराधों जैसे कि गलत मूल्य निर्धारण और तौल के अनुचित तरीकों आदि को तुरंत रोकने करने की जरूरत है।

और ठीक ऐसा ही उस समय हुआ था। वर्ष 1997 में, घटना के दिन, बस्तर के जिला कलेक्टर, प्रवीर कृष्ण, 1987 बैच (मध्य प्रदेश कैडर) के आईएएस अधिकारी, ने बाजार में इन असामान्य तरीकों को देखा। एक आदिवासी महिला को ‘महुआ’ के कीमती ढेर के बदले नमक का पैकेट लेते हुए देखा गया या 0.5 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर बेचते हुए देखा गया, जबकि उसका बाजार मूल्य पांच रुपये प्रति किलोग्राम था। प्रवीर कृष्ण इन व्यापारियों के इस लूटने वाले भ्रष्ट व्यवहार को बर्दाश्त नहीं कर सके।

उनके शब्दों में बताएं तो, उन्होंने महसूस किया कि इस तरह के तरीकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना भी एक अपराध ही होगा। आदिवासी अत्याचार अधिनियम की धारा 144 इस तरह के सभी तरीकों को गैरकानूनी मानती है और इस क्षेत्र में बिचौलियों को पकड़ने के लिए इसे लागू किया गया था। अधिनियम का स्वरूप अभियुक्तों पर सबूत का बोझ डालता है, और इसलिए इसने व्यापारियों के उत्पादक संघ के भीतर एक हड़कंप मचा दिया, जिससे तब कलेक्टर के खिलाफ कई अदालती केस (35) दर्ज किए गए, जैसा कि प्रवीर कृष्ण ने हमारे साथ बातचीत में याद किया। हालांकि, वे एक मिशन पर चलने वाले व्यक्ति थे जो इतनी आसानी से थककर बैठने वालों में से नहीं थे।

जब उनके वकील ने हिम्मत नहीं दिखाई तब उन्होंने खुद की वकालत की और इसे धीरे-धीरे गति देना शुरू कर दिया। प्रवीर कृष्ण ने प्रधानमंत्री कार्यालय और राज्य मंत्रालयों को अंतहीन पत्र और ज्ञापन लिखे। व्यापारियों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया और उन्होंने इस बार कानूनी सुरक्षा और समर्थन की मांग के साथ फिर से शीर्षस्थ उच्चतम अधिकारियों के साथ पत्राचार किया। एक पूरी टीम का गठन किया गया और नई दिल्ली में वरिष्ठ अधिकारियों के सामने एक रिपोर्ट पेश की गई। यह मुद्दा आखिरकार काफी आगे बढ़ गया था और उन जगहों पर इस पर चर्चाएं होने लगी थीं, जहां वास्तव में होनी चाहिए थी।

प्रवीर कृष्ण, अपने प्रयासों के माध्यम से, जो इमली पहले केवल 0.50 रुपये प्रति किलो पर खरीदी जाती थी उस इमली के लिए लगभग छह रुपये प्रति किलो की न्यूनतम खरीद मूल्य सुनिश्चित कराके आदिवासियों के कल्याण के लिए 50 करोड़ रुपये (उस समय में) की निधि का निर्माण एवं स्वीकृत कराने में सक्षम रहे। साथ ही, वस्तु-विनिमय प्रणाली को अत्याचारी माना गया और इसके खिलाफ सख्त कदम उठाए गए।

इन सभी की सुविधा के लिए, एक विस्तृत निगरानी और नियंत्रण प्रणाली स्थापित की गई थी, जिसमें सभी सरकारी अधिकारियों (जिला वन अधिकारियों, उप मंडल अधिकारियों आदि) को वॉकी-टॉकी जैसे वायरलेस उपकरणों के माध्यम से जोड़ा गया था और आस-पास के क्षेत्रों में इस तरह के किसी भी व्यवहार की रिपोर्टिंग करने का काम सौंपा गया था। जमीनी स्तर पर, आदिवासियों के सामूहिक प्रयासों को इस तरह के शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए 2400 स्वयं सहायता समूह बनाए गए।

स्वयं सहायता समूहों ने यह सुनिश्चित करने में मदद की थी कि व्यापारी कुछ आदिवासियों को बाहर निकालकर उनका शोषण न कर सकें। बाजारों में सभी लेन-देन, जिन्हें ‘हाट बाजार’ के रूप में जाना जाता है, इनको दर्ज किया गया और लेनदेन की रिपोर्ट ऑडिट के लिए उपलब्ध कराई गई। आदिवासियों को उचित मूल्य दिलाने के लिए एक व्यक्ति द्वारा शुरू किए गए मिशन ने, अब धीरे-धीरे एक आंदोलन का रूप ले लिया था।

लेकिन, व्यापारी इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थे और जल्द ही तत्कालीन मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप करने का फैसला किया। प्रवीर कृष्ण याद करते हुए बताते हैं कि मुख्यमंत्री का हेलिकॉप्टर कोंडागांव में कैसे उतरा और तब तुरंत उन आदिवासियों द्वारा उनका स्वागत किया गया, जिन्होंने ‘इमली आंदोलन’ और ‘इमली पुरुष’ की अत्यधिक बातें की थीं। साक्षात्कार किए जाने पर, आदिवासी महिलाओं में से एक महिला ने अपने हाथों के इशारों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा, “साहब, पहले हम इतना (बहुत कम) कमाते थे। इस साल हम इतना (बहुत ज्यादा) कमाए हैं।” इतना तो सभी को समझाने के लिए पर्याप्त था, और धीरे-धीरे, बिचौलियों को नई प्रणाली के साथ रहना सीखना पड़ा!

प्रवीर कृष्ण याद करते हुए बताते हैं, “मुझे याद है कि मेरे एक दौरे पर, इन गांवों में से एक में आदिवासियों ने मुझे अपने कंधों पर उठा लिया था और मेरे नाम के नारे लगाने शुरू कर दिए थे, मुझे इमली पुरुष के रूप में संबोधित किया गया था। तब मुझे एहसास हुआ कि यह काम एक पहल से शुरू होकर अंत में एक आंदोलन में तबदील हो गया था। मुझे अंततः राहत महसूस हुई कि मैं इन आदिवासियों को कुछ न्याय दिलाने में सफल रहा हूं। इसका मतलब यह भी था कि यह एक ऐसी लड़ाई थी जिसे मैं नहीं हार सकता था। मैं केवल अपने या अपने धर्म के लिए नहीं बल्कि इन आदिवासियों के जीवन तथा इनकी कई पीढ़ियों की आजीविका के लिए लड़ रहा था।”

प्रवीर कृष्ण के काम से खुश होकर, मुख्यमंत्री ने 1999 में 100 करोड़ रुपये की निधि का विस्तार किया, जिसमें मूल्यवर्धित सुविधाएं स्थापित करने के लिए एक जनादेश जारी किया गया, जो बिचौलियों को पूरी तरह से खत्म कर देगा, जिससे आदिवासियों की आय में वृद्धि होगी और उनके किए गए अच्छे काम को मजबूती प्रदान करेगा। प्रवीर कृष्ण ने एक बड़े स्तर का और कई छोटे स्तर के संयंत्र स्थापित करने में मदद की, जहां ग्रामीण गौण वन-उपजों को तैयार और संशोधित कर सकेंगे, जबकि सरकार विपणन, ब्रांडिंग और बिक्री का ध्यान रखेगी।

सब तब तक ठीक चल रहा था, जब तक कि एक बाहरी झटका नहीं लगा। 1 नवंबर, 2000 को छत्तीसगढ़, भारत का 26वां राज्य बना और मध्य प्रदेश से अलग कर दिया गया। इसके साथ ही नया प्रशासन आया, जो कि अन्य सरकारों की तरह, पिछली सरकार द्वारा शुरू किए गए काम को कम करना और बंद करना चाहता था। इससे अन्य प्रशासनिक मुद्दों के साथ मिलाकर प्रवीर कृष्ण की प्रगति को रोक दिया गया। निधियां अटक गईं। प्रवीर कृष्ण की स्वायत्तता कम हो गई और अंत में कई अन्य अच्छे इरादों वाले नौकरशाहों की तरह, उन्हें भी लाइन में नहीं रहने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया।

यह तो प्रवीर कृष्ण का हस्तक्षेप था कि ग्रामीणों के जीवन में सुधार को नजरअंदाज नहीं किया जा सका और अंत में, पूरे देश में इस मॉडल को दोहराने के लिए, 2006 में भारत सरकार ने वन अधिकार अधिनियम (इसके बाद एफ़आरए, 2006) पारित किया गया, जिससे ग्रामीणों को ‘पारंपरिक रूप से या गांव से बाहर अथवा गांव की सीमाओं के भीतर एकत्र किए गए गौण वन-उपजों के संग्रह की पहुंच, स्वामित्व, उपयोग और निपटान का अधिकार’ मिला। यह अधिनियम 1996 पेसा-पीईएसए अधिनियम में एक सुधार था, क्योंकि इसने बांस, बेंत, कोकून, शहद, मोम, तेंदू पत्ते, और अन्य औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों जैसे पौधों से उत्पन्न गैर-वन उपज, वन उपज या गौण वन-उपजों (एमएफ़पी) द्वारा ग्रामीणों की आय बढ़ाने की क्षमता के महत्व को मान्यता दी थी।

एफ़आरए, 2006 में भारत के वनों की अनुमानित 85.6 मिलियन एकड़ भूमि (पांच उत्तर-पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) में सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों (इसके बाद सीएफ़आर) को मान्यता देकर वन प्रशासन का लोकतांत्रिकरण करने की क्षमता है, जिससे 1,70,000 गांवों के 20 करोड़ से अधिक वनवासियों का सशक्तिकरण होता है। यह न केवल आजीविका सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन (आर्थिक लाभ) सुनिश्चित कर सकता है बल्कि स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाकर लैंगिक न्याय (सामाजिक लाभ) और वन संरक्षण (पर्यावरण लाभ) में सुधार कर सकता है।

एफ़आरए से व्यावहारिक लाभ सिद्धांत के रूप में अच्छे हैं, हालांकि, खराब कार्यान्वयन के कारण मूक बने रहे हैं। वर्ष 2016 तक, सीएफ़आर अधिकारों की क्षमता का केवल 3% हासिल किया जा सकता था, जबकि महाराष्ट्र, ओडिशा और केरल जैसे कुछ राज्यों ने अच्छा प्रदर्शन हुआ है, तो दूसरी तरफ अधिकांश राज्यों का प्रदर्शन खराब रहा है। अगर हम छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो इसने व्यक्तिगत वन अधिकारों (आईएफ़आर) और सामुदायिक अधिकारों (सीआर) को लागू किया है, लेकिन सीएफ़आर की अनदेखी की है।

सीएफ़आर विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे ग्राम सभा के अधिकारों और जिम्मेदारी की पहचान करते हैं, ताकि स्थायी उपयोग के लिए और बाहरी खतरों के खिलाफ अपने वनों की रक्षा, प्रबंधन और संरक्षण कर सकें। राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, केंद्रीय नोडल एजेंसी (जनजातीय मामलों का मंत्रालय) की क्षमता निर्माण के प्रयास में कमी और केंद्र और राज्य दोनों सरकारों द्वारा कार्यान्वयन और निगरानी में अपर्याप्त निवेश ने इस अधिनियम को केवल कागजों तक सीमित कर दिया है।

लेकिन, 2017 के मध्य में, यह बात घूम फिर कर फिर से वहीं और उसी व्यक्ति के सामने आकर ठहरी, जिसने इसे शुरू किया था। प्रवीर कृष्ण को भारतीय आदिवासी सहकारी विपणन विकास संघ (टीआरआईएफ़ईडी-ट्राइफ़ेड) के प्रबंध निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया, जो आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास के बारे में प्राथमिक जनादेश के रूप में एक राष्ट्रीय स्तर की सहकारी संस्था है। कई मायनों में, ट्राइफेड आदिवासी उत्पादों के लिए एक बाजार विकासक और सेवा प्रदाता के रूप में काम करता है, यह वैसी ही पहल थी जैसी पहल पर स्थानांतरित होने से पहले 100 करोड़ की निधि के साथ प्रवीर कृष्ण बस्तर में काम कर रहे थे।

प्रवीर कृष्ण के अब तक के संक्षिप्त कार्यकाल के तहत, ट्राइफ़ेड का कारोबार चार गुना हो गया है, इसलिए, 2.5 लाख से अधिक आदिवासियों, हथकरघा और हस्तशिल्प उत्पादकों को लाभ मिला है। इतना ही नहीं, इसके साथ अन्य बदलाव भी हुए हैं। जनजातीय मामला मंत्रालय लगभग 50 किस्मों के गौण वन-उत्पादों (एमएफ़पी के लिए एमएसपी, क्योंकि यह नाम अधिक प्रसिद्ध है) के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के साथ आगे आया है, जो फिर से कुछ ऐसा है जिसका आधार प्रवीर कृष्ण ने काम के लिए 20 साल पहले बनाया गया था।

एमएसपी के अलावा, ट्राइफ़ेड उच्च मूल्य पर बाजार में अपने उत्पादों को बेचने के लिए आदिवासियों को मूल्य बढ़ाने में मदद कर रहा है। उदाहरण के लिए, अपने कच्चे रूप में इमली बाजार में लगभग 30 रुपये में बिकती है। हालांकि, यही इमली यदि बिना बीज और रेशे निकाली हुई हो तो लगभग 120 रुपये में बिकेगी। इसके अलावा, अधिक परिष्कृत रूप जैसे पाउडर, चटनी या सॉस लगभग 400 रुपये में बिकेंगे।

ये प्राथमिक स्तर के मूल्यवर्धन गांव में ही किए जा सकते हैं। जैसा कि प्रवीर कृष्ण स्वयं कहते हैं, “हम पहले आदिवासियों को उनकी वन उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रदान करना चाहते हैं और फिर उन्हें मूल्यवर्धन की सुविधाओं तक पहुंच प्रदान करते हैं और फिर बहुत अधिक कीमत पर बेचते हैं।”

प्रवीर कृष्ण और ट्राइफेड की नवीनतम परियोजना ‘वन धन’ जनजातीय स्टार्ट-अप योजना है। इसके साथ, इसका उद्देश्य जनजातीय लोगों के लिए आजीविका उत्पन्न करना और उनके लिए सामुदायिक स्वामित्व वाले वन धन विकास केंद्रों की स्थापना करके उद्यमियों में बदलना है। प्रत्येक केंद्र को 15 आदिवासी स्वयं सहायता समूहों के गठन के लिए सूची बनाने के लिए कहा गया है, जिनमें प्रत्येक में लगभग 20 आदिवासी शामिल होंगे, इस तरह से प्रत्येक केंद्र के लाभार्थियों की संख्या को 300 तक ले जाना है। प्रत्येक केंद्र को केंद्र सरकार द्वारा 15 लाख रुपये प्रदान किए जाएंगे।

इन केंद्रों का उद्देश्य उपकरणों की खरीद, मूल्य संवर्धन और उद्यम प्रबंधन में आदिवासियों को प्रशिक्षित करना है। कोरोना वायरस महामारी के कारण अपने शहर की नौकरी खोने के बाद कई आदिवासी अपने गांवों को लौट गए हैं, इस योजना में अल्प और दीर्घकालिक राहत और रोजगार सृजन दोनों प्रदान करने की क्षमता है। हालांकि, क्या यह योजना अपने सैद्धांतिक लाभों को व्यावहारिक कल्याण में तबदील कर सकती है या नहीं यह देखना बाकी है। प्रवीर कृष्ण के साथ पतवार पर, चलो हम यही आशा करें की ऐसा ही हो।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्रवीर कृष्ण ने ’50 सबसे प्रभावशाली भारतीय 2020′ फेम इंडिया पत्रिका, एशिया पोस्ट और पीएसयू वॉच में अपनी जगह बनाई है। ट्राइफ़ेड की सूची और प्रबंध निदेशकों में उनका समावेश दोनों ही एक-दूसरे के परस्पर कारण हैं। वनों के व्यापार-चक्र में एक स्थायी बदलाव के लिए उनका जुनून अधिकारपूर्ण आदिवासियों के पक्ष में पैदा हुआ है, जो ट्राइफेड के साथ जारी उनके कार्यकाल में दिखाई दे रहा है।

  • अमन राठी, आशुतोष रूंगटा, दर्पण जैन

(लेखकगण भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद में द्वितीय वर्ष के पीजीपी छात्र हैं।)

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