मणिपुर में उग्रवाद की क्रोनोलॉजी और उसे स्वघोषित प्रधान सेवक का मौन समर्थन

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27 मार्च को मणिपुर उच्च न्यायालय की एकल पीठ द्वारा राज्य सरकार को प्रदेश के मैतेई समुदाय को चार सप्ताह के भीतर अनुसूचित जनजाति (एसटी) सूची में शामिल करने पर विचार करने और केंद्र सरकार को विचार के लिए सिफारिश भेजने का निर्देश देने के साथ ही वहां स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी। तब से राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति लगातार बिगड़ती गई। उसके बाद वहां जो कुछ भी होता रहा उस पर प्रधानमंत्री ने अज्ञात कारणों से चुप्पी साध ली और अपने गृहराज्य में हुए 2002 के साम्प्रदायिक कत्लेआम की तरह मौन-समर्थन देकर उपद्रवियों को मनमर्जी करने की छूट दे दी। इसकी पुष्टि उक्त ऐतिहासिक घटनाक्रम पर सिलसिलेवार एक नजर डालने से हो जाती है।   

(i) 4 मई को आठ जिलों में कर्फ्यू लगाने के साथ ही मणिपुर के गृह विभाग के आयुक्त द्वारा उग्रवाद से प्रभावित दस जिलाधिकारियों को उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश जारी किये गये। जबकि पीड़ित महिलाओं का आरोप है कि उन्हें पुलिस ने ही दंगाइयों के हवाले कर दिया था।

(ii) 5 मई को हिंसा को रोकने के लिए राज्य में केंद्रीय सुरक्षाबलों RAF, CRPF और BSF की 55 टुकड़ियों ने मोर्चा संभाल लिया और चप्पे-चप्पे पर जवानों की तैनाती कर दी गई।

(iii) 7 मई को आयुक्त (गृह), ज्ञान प्रकाश ने सोशल मीडिया में चल रहे कुछेक वीडियो व टिप्पणियों को प्रतिबंधित करने की जरूरत बताई।

(iv) 11 मई को बिष्णुपुर में कुकी उग्रवादियों के साथ मुठभेड़ में मणिपुर पुलिस का एक कमांडो मारा गया।

(v) 12 मई को राज्य के दस आदिवासी विधायकों के प्रतिनिधिमंडल, जिसमें सात भाजपा के, दो कुकी पीपुल्स एलायंस के और एक निर्दलीय थे, ने मुख्यमंत्री से स्पष्ट शब्दों में पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग प्रशासनिक इकाई के गठन की जरूरत बताई क्योंकि 3 मई को हिंसा शुरू होने पर राज्य उनकी रक्षा करने में बुरी तरह विफल रहा था। उनका कहना था कि मणिपुर सरकार ने चिन-कुकी-मिज़ो-ज़ोमी पहाड़ी आदिवासियों के खिलाफ बहुसंख्यक मैतेई समुदाय द्वारा ‘निरंतर हिंसा’ का मौन समर्थन किया, जिसने पहले ही राज्य को विभाजित कर दिया है और मणिपुर राज्य से पूरी तरह अलग हो गया है।

इन दस आदिवासी विधायकों ने कहा कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के बीच रहना “हमारे लोगों के लिए मौत के समान है”, विधायकों ने कहा, “हमारे लोग अब मणिपुर के अधीन नहीं रह सकते क्योंकि हमारे आदिवासी समुदाय के खिलाफ नफरत इतनी ऊंचाई पर पहुंच गई है कि विधायकों, मंत्रियों, पादरी, पुलिस और नागरिक अधिकारियों, आम लोगों, महिलाओं और यहां तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। पूजा स्थलों, घरों और संपत्तियों को नष्ट करने का तो जिक्र ही नहीं किया गया।”

यह भी कहा गया, “चूंकि मणिपुर राज्य हमारी रक्षा करने में बुरी तरह विफल रहा है, हम भारत संघ से भारत के संविधान के तहत एक अलग प्रशासन की मांग करते हैं और मणिपुर राज्य के साथ पड़ोसियों के रूप में शांति से रहना चाहते हैं।”

(vi) 14 मई को राज्य की ताजा स्थिति सहित आदिवासी विधायकों की अलग प्रशासनिक इकाई के गठन की मांग पर बातचीत करने के लिए मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने दिल्ली पहुंचकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पूरी रिपोर्ट सौंपी। जिसमें उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश जारी किये जाने की जानकारी भी शामिल थी।

(vii) 3 जून को खबर आई कि मणिपुर में शुरुआती हिंसा के समय 1,000 हथियार और 10,000 से अधिक गोलियां आदि लूट लिये गये थे। उसके बाद जब मई के अंतिम सप्ताह मे दोबारा हिंसा हुई, तो पुलिस और राज्य के शस्त्रागार से ‘लूटे गए’ हथियारों की कुल संख्या 4,000 से अधिक हो गई।

(viii) 14 जून को मणिपुर की एकमात्र महिला मंत्री नेमचा किपगेन के घर में आग लगाई गई और सुरक्षा बलों ने घर-घर तलाशी अभियान शुरू किया। 

(ix) 25 जून को प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह दूसरी बार दिल्ली आये और प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री से भेंट कर सारी स्थिति से अवगत कराया। उन्होंने बताया कि 14 मई तक राज्य के उपद्रवग्रस्त इलाकों में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की एक सौ से भी अधिक रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज की हैं।

(x) 20 जुलाई को मणिपुर में हिंसा के दौरान दो युवतियों की नग्न परेड के वीडियो पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लेते हुए घटना को बेहद परेशान करने वाला और अस्वीकार्य करार देने के साथ ही केंद्र व राज्य सरकार को तत्काल सशक्त कदम उठाने और ऐसा करने में असफल रहने पर अपने स्तर से उचित कार्रवाई की धमकी देने के बाद उसी दिन मीडिया के सामने प्रधानमंत्री ने मणिपुर को लेकर पहली बार मुंह खोला। जबकि अमेरिका के ह्वाइट हाउस समेत यूरोपीय संसद तक में मणिपुर की घटनाओं पर चिंता व्यक्त की गई लेकिन इसके बावजूद नरेंद्र मोदी उपद्रवियों के विरुद्ध कठोर निषेधात्मक कार्रवाई करने के विपरीत उन्हें न जाने क्यों मौन-समर्थन देते रहे। 

इस पर कांग्रेस का कहना है कि प्रधानमंत्री बोले तो ज़रूर, लेकिन जो बोले, वो नाकाफी है। मणिपुर में आर्टिकल 355 लागू है। यानी ‘लॉ एंड ऑर्डर’ अब सीधे केंद्र सरकार देख रही है, वहां केंद्रीय एजेंसियां सक्रिय हैं। यानी वहां जो कुछ भी हुआ, उसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है। तो ये जो वीडियो वायरल हुआ है, वो घटना हुई कैसे, किन परिस्थतियों में हुई? जो प्रधानमंत्री का बयान आया है, क्या वो देर से आया और आया भी तो कितना दुरुस्त आया है? और मणिपुर में जिस तरह की स्थिति बनी हुई है, क्या ये सही मौका नहीं है राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाए?

यह कितना दुखद है कि प्रधानमंत्री व गृहमंत्री को मणिपुर की लगातार बिगड़ती स्थिति व अन्य सभी तरह से हो रहे दिन-प्रतिदिन के घटनाक्रम लूटपाट, आगजनी, हिंसा, बलात्कार व हत्या के बारे में पल-पल जानकारी थी, यह कतई नहीं माना जा सकता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन परिस्थितियों के बारे में अवगत नहीं कराया गया।   

मणिपुर में जारी हिंसा को लेकर 20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के स्वत: संज्ञान लेने और केंद्र सरकार को तत्काल स्थिति संभालने की चेतावनी देने के बाद अब 28 जुलाई को फिर से सुनवाई करने से पहले क्या केंद्र सरकार कोई सकारात्मक कार्रवाई करेगी? क्या सरकार मणिपुर में हिंसा के कारणों और उससे उपजे ऐतिहासिक उपद्रव की विस्तृत रिपोर्ट न्यायालय के सामने रखेगी ताकि देश को भी पता चल सके कि आखिरकार वे कौन-से कारण थे, जिनके चलते पूरे 78 दिनों के बीच प्रधानमंत्री देश-दुनिया घूमते रहे लेकिन उन्होंने मणिपुर का ‘म’ तक बोलने से परहेज किया?

(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल नैनीताल में रहते हैं।)

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