देश की विश्वविख्यात बावड़ी: एक सुबह चांद बावड़ी के आंगन में

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अक़्सर होता है। हम बेदूर आकर्षण के केंद्रों के प्रति उदासीन भाव बनाये रखते हैं। दिल्ली के मयूर विहार स्थित मेरे घर से ‘अक्षरधाम मंदिर’ दूर नहीं, तीन किलोमीटर पर है। वर्षों से यह दुनिया भर का आकर्षण- केंद्र बना हुआ है। तक़रीबन दो-तीन दिनों में इसके सामने से मैं वाहन से गुजरता हूं। लेकिन, मन और वाहन मंदिर के विशाल परिसर की ओर मुड़ ही नहीं पाते हैं। घर की छत से यमुना के मुहाने दिखाई देते हैं। बीच के मैदान में फैले खेत-खलिहान रहते हैं। पता नहीं क्यों, बालियों को स्पर्श करते हुए मुहाने तक नहीं पहुंच पाता हूं। तीन दशक से अधिक आयु का निवासी हूं मयूर विहार का। है ना हैरानी की बात?

कुछ ऐसा ही पिछले दिनों विश्व विख्यात ‘चांद बावड़ी’ के मामले में घटा। हुआ यह, मैं पिछले दिनों (फरवरी के अंत में) अपने गांव ‘बसवा’ गया हुआ था। गांव से इसकी दूरी बारह-तेरह किलोमीटर की है। अहमदाबाद-दिल्ली रेल मार्ग पर स्थित ‘बांदीकुई’ से तो बहुत ही समीप है। पांच-छह किलोमीटर का फासला होगा। छुटपन से आठ दशक पार तक इस मार्ग पर रेल और कार से आता- जाता रहा हूं। लेकिन, ‘आभानेरी’ कस्बानुमा गांव स्थित चांद बावड़ी का पर्यटन नहीं कर पाया। इसका दुःख ज़रूर है। पर एक दिन इस दुःख का सालना भी रुका। फरवरी मास के अंतिम दिनों में मैं अनायास ही बावड़ी पर पहुंच गया। साथ में थीं जीवन यात्रा की सहसाथी मधु। इस श्रेय के हक़दार बने दिल्ली में बसे मेरे ही गांव के युवा निवासी भगवान सहाय मीणा। संयोग से बसवा-यात्रा के दौरान हम टकरा गए और उनकी कार में पौन घंटे में आभानेरी पहुंच गए।

विश्वास करें, मैंने इस विश्व पर्यटन स्थल को गंभीरता से लिया ही नहीं था। चूंकि मूलतः राजस्थानी होने के कारण बावड़ी -संस्कृति मानस में स्वाभाविक रूप से रची बसी है। नई दिल्ली के कनाट प्लेस क्षेत्र में भी बावड़ी है। और जगह भी है। लेकिन, किसी को भी देख नहीं पाया। ‘बावड़ी को क्या देखना? अपनी ही तो है। एक स्वाभाविक अरुचि या उदासीनता का भाव बावड़ियों के प्रति बना रहा है। फिर बारह सदियों की उम्रवाली यह बावड़ी अपवाद क्यूं होने लगी?

पर देखिये, कार से बाहर आते ही उल्लास और जिज्ञासा ने मुझे घेर लिया है। इसकी भी एक वज़ह है। बावड़ी के बाहर के परिसर में करीब आधा दर्ज़न पर्यटन बसें खड़ी हुई हैं। बसों से विदेशी श्वेत पर्यटकों के झुण्ड उतर रहे हैं। हाथों में मोबाइल हैं और कंधों से कैमरा झूल रहे हैं। देशी गाइड उन्हें आहिस्ता आहिस्ता बावड़ी की ओर ले जा रहा है। देखिए, हम भारतीय श्वेत काया से सहज ही में प्रभावित हो जाते हैं।

चूंकि, वे पश्चिमी देशों और अमेरिका के पर्यटक हैं, तब मेरा भारतीय मानस मान लेता है कि चांद बावड़ी ज़रूर अप्रतिम है। यदि विदेशी पर्यटक, विशेषतः योरोपीयों का यहां आवा-गमन नहीं होता तो क्या मेरा भारतीय मन इस विरासत के अनूठेपन को सहज ही में स्वीकारता? यह सत्य चांद बावड़ी से ही सम्बद्ध नहीं है, बल्कि अधिकांश ऐतिहासिक ईमारतों के बारे में भी यह कहा जा सकता है। राजधानी जयपुर से करीब 60 -70 किलोमीटर दूर स्थित इस आकर्षक विरासत को देखने आना, कम महत्वपूर्ण नहीं है। चूंकि जयपुर की ऐतिहासिक ईमारतें ( हवामहल, आमेर किला, नाहरगढ़, जंतर-मंतर आदि) जग प्रसिद्ध हैं और सभी प्रकार की संचार सुविधाओं से समृद्ध हैं, तो पर्यटकों का जमघट अनोखा नहीं है। लेकिन, इस दूर-दराज़ बावड़ी तक पहुंचने का अर्थ है इसका अभूतपूर्व आकर्षण।

दूसरा सत्य यह भी है कि हम भारतीय अपनी ही वस्तुओं की विशेषता को तभी स्वीकार करते हैं जब तक कि उस पर गोरों की स्वीकृति की मोहर न लग जाए। इस दृष्टि को स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक मानसिकता का विस्तारित संस्करण कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे सच्चाई यह भी है कि श्वेत पुरातत्व शास्त्रियों ने गहन शोध के माध्यम से हमें अपनी समृद्ध प्राचीन धरोहरों से परिचित भी कराया है। इसे भी नहीं भुलाया जा सकता।

देश में क़रीब 3000 बावड़ियां हैं, लेकिन 400 -500 के बीच ही ठीक-ठाक हैं। सौभाग्य से देश की सबसे बड़ी और पुरानी चांद बावड़ी राजस्थान यानि बांदीकुई के पास स्थित है। आभानेरी की शान और देश की गौरव चांद बावड़ी का जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था। तेरह मंज़िलों में विभाजित इस बावड़ी में करीब 3500 संकरी सीढ़ियां हैं और 60 फ़ीट या करीब 20 मीटर गहरी है।

निकुंभ वंश के राजा चंदा ने इसका निर्माण नौवीं शताब्दी में कराया था। सीढ़ियों में अनुपम समरूपता है। जैसे ही हम बावड़ी के आंगन में पहुंचते हैं, इसकी बेजोड़ सीढ़ियां सहसा अपने आकर्षण में बांध लेती हैं। सब कुछ अविश्वसनीय प्रतीत होता है। सवालों से मन-मस्तिष्क घिरने लगते हैं: ऐसी बावड़ी बनाने का विचार राजा के मस्तिष्क में क्यों कौंधा?, कैसे 9वीं सदी में इतनी गहराई तक कारीगर पहुंचे होंगे?, कैसे सीढ़ियों के आकार को सही सही नापा होगा ?, कौन इसका वास्तुशिल्पी होगा?, कितने श्रमिक लगे होंगे और उनकी मज़ूरी क्या रही होगी, कहीं बेगार तो नहीं कराई होगी?क्या आम जनता या तत्कालीन प्रजा को भी इससे पानी लेने की अनुमति रही होगी? क्या दलित (तब के शूद्र) भी बावड़ी में आते होंगे और उनके स्पर्श से पानी अपवित्र तो नहीं हो जाता होगा? ऐसे ही प्रश्न आते रहे और लोप होते जा रहे है।

इसी बीच देसी पर्यटकों के समूह से निकल कर एक व्यक्ति मेरे पास आये हैं। अनुमान से मुझे कह रहे हैं “मैंने आपको कहीं देखा है? क्या हम मिल चुके हैं?” मुझे याद नहीं आ रहा है। व्यक्ति भी दिमाग पर ज़ोर डाल रहा है, सही सही पहचान के लिए। इसी बीच वह हमारे मोबाइल से हमारे चित्र लेने लगा है। अचानक मोबाइल रोक कर कह रहा है,” आप केंद्रीय हिंदी संस्थान में तो नहीं थे ?”। मैं चौंकता हूं,” बिल्कुल सही है। मैं उसका उपाध्यक्ष था।” । “जी, मैंने जयपुर के किसी कार्यक्रम में आपकी स्पीच को सुना था।”

यह सही है, करीब 14 वर्ष पहले मैं उपाध्यक्ष था और जयपुर में आयोजित कुछ संगोष्ठियों को मैंने सम्बोधित भी किया था। इस व्यक्ति ने मुझे सही सही पहचाना है। मन में सोचा। ख़ुशी भी हुई। ‘ कोई तो मिला जिसने पहचाना है मुझे’ स्वयं से कह रहा हूं। फिर वह कहने लगा, ” मैं विजय कुमार सांवरिया हूं। मान्यता प्राप्त टूरिस्ट गाइड हूं। हिंदी के कई साहित्यकारों से मिल चुका हूं। उन्हें पढ़ा भी है।”

कुछ मेरे परिचित साहित्यकारों के बारे में सांवरिया बताने लगे। फिर बोले, ”अब मैं आपके साथ हूं। चांद बावड़ी का टूर कराता हूं’ अब हम चालीस -पैंतालीस वर्षीय सांवरिया के साथ हो चले हैं। “ देखिए जोशीजी,’ वे बताने लगे,’ एक समय था जब मैं नीचे तक उतर कर बावड़ी तक पहुंचा करता था। पानी लिया करता था। बहुत साफ़ पानी हुआ करता था। अब नहीं। है। अब गदला हो चुका है।”

बीच में ही भगवान् सहाय बोल पड़े,” बिल्कुल सही है, सर। मैं जब बसवा रहता था तब यहां अनेक बार दोस्तों के साथ आया करता था। हम लोग भी सीढ़ियों से नीचे तक उतरा करते थे। बरसात के दिनों में पानी का स्तर काफी ऊंचा आ जाता है।” सांवरिया और भगवान सहाय अपने किशोर दिनों को बारी-बारी से याद करने लगे हैं। मैं और मधु श्रोता बने हुए हैं, चलते -चलते।

अब बावड़ी के चारों तरफ रैलिंग लगा दी गई हैं। कोई भी सीढ़ियों से उतर कर नीचे बावड़ी के कुंड तक नहीं पहुंच सकता। सुरक्षा का पुख्ता इंतज़ाम है। चारों तरफ चौकीदार तैनात हैं। बेशक खतरा तो है नीचे उतरने में। कुछ अप्रिय घटनाएं भी हो चुकी हैं। ख़ुदकुशी की आशंका बनी रहती है। एक वक़्त ऐसा भी था जब बावड़ी का टिकट नहीं हुआ करता था। पर्यटक और स्थानीय निवासी बेधड़क आया करते थे। स्कूली बच्चों का आना-जाना लगा रहता था। अब ऐसा नहीं है। प्रति पर्यटक टिकिट रु। 25 देने पड़ते हैं। वज़ह भी है, पर्यटकों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए रख-रखाव पर खर्च तो होता ही है।अब रखवाली का ज़िम्मा राजस्थान पर्यटन विभाग का है। अक्टूबर के महीने में ‘आभानेरी उत्सव ‘ भी मनाया जाता है।

सांवरिया ने एक बड़ी रोचक जानकारी दी। वे बतला रहे हैं, “जोशी जी, यहां एक हॉलीवुड फिल्म की शूटिंग भी हो चुकी हैं। फिल्म थी – THE FALL CHAND BAORI । इससे भी इसका महत्व बढ़ा है। इंटरनेशनल एक्सपोज़र हुआ है।” इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। भगवान सहाय को थी। लेकिन, मुझे ख़ुशी हो रही है।

बावड़ी के अलावा और भी बहुत कुछ देखने लायक है। इसके प्रांगण की तीन दिशाओं में सदियों पुरानी अद्भुत मूर्तियां भी सजी हुई हैं। सहज ही में अद्भुत मूर्तियां पर्यटक को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। प्रश्न उठता है कि इस छोटे से गांव में ऐसी संस्कृति का बास रहा; मूर्ति कला बड़े नगरों में ही नहीं रही हैं, अज्ञात छोटे स्थानों में भी इनका राज रहा है। सैंकड़ों साल पहले निकुंभा वंश का वैभव रहा होगा। उसी दौर में बावड़ी और मूर्ति कला समानांतर रहीं होंगी! यहां एक ‘आम देवता’ की मूर्ति भी देखने को मिली। इससे पहले देखी नहीं थी। प्रेमालाप में लीन स्त्री-पुरुष की मूर्तियां भी हैं। मूर्तियों में नर्तकियां भी ढली हुई हैं। कुछ मूर्तियों के साथ मैं और मधु चित्र लेने का लोभ छोड़ नहीं रहे हैं।

बावड़ी के परिसर से बाहर निकले तो पास ही में स्थित ‘हर्षत माता मंदिर’ जा पहुंचे हैं। हर्षत माता के मंदिर का अर्थ है – आनंद और उल्लास की देवी। किवदंती के अनुसार, यह देवी सदैव प्रसन्नचित रहती है और सम्पूर्ण ग्रामवासियों को आनंदित करती रहती है। दुःख के दिन दूर रहते हैं। दसवीं सदी में इसका निर्माण हुआ था। आज तक इसका आकर्षण निरंतर बना हुआ है। जहां विदेशी पोशाकों में स्त्रियां दिखाई दी हैं, वहीं घाघरा -लूगड़ी में स्थानीय पर्यटक स्त्रियां भी दिखाई दे रहीं हैं। सुखद लग रहा है यह रंगीला दृश्य, दोनों का। और इस यात्रा का समापन चाय की थड़ी पर बैठ कर चाय-चुस्कियों के साथ कर रहे हैं।

(राम शरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
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2 months ago

चांद बावड़ी मैं भी दो बार गया हूं लेकिन एक बड़े लेखक ने वहां जो देखा और हमें दिखाया, वह अब तक अनदेखा-अनजाना ही था. आपका आभार. और शिकायत भी, कि आप जयपुर को छूकर निकल गए!