हूल दिवस पर विशेष: आज भी जरूरत है एक हूल और उलगुलान की

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झारखंड के आदिवासियों का अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का लंबा इतिहास रहा है। आजादी के बाद लंबे संघर्ष के बाद अलग झारखंड राज्य हासिल हुआ। लेकिन इस राज्य में कुछ चतुर चालाक लोगों को छोड़ दिया जाए तो आज भी आम आदिवासी वहीं खड़ा दिखता है, जहां वह अंग्रेजी हुकूमत के दौरान खड़ा था। कहने का मतलब, हूल हो या उलगुलान, उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है, आज भी एक हूल या उलगुलान की जरूरत है।

झारखण्ड के शाब्दिक अर्थ में ही यहां की प्राकृतिक सुंदरता, यहां के आदिवासी समुदाय और जल, जंगल, ज़मीन को लेकर उनकी आस्था, जिसे बचाने को लेकर इनका संघर्ष सामने आता रहा है, जो तिलका मांझी के अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह से लेकर सिदो-कान्हू के संताल हूल (विद्रोह) व बिरसा मुंडा के उलगुलान से लेकर देश आजाद होने के बाद तक जारी रहा है।

साल 1770 से 1784 तक जंगल के बेटे तिलका ने अंग्रेजों के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया, वह कभी झुके नहीं और न ही डरे। तिलका ने अंग्रेजों के साथ-साथ स्थानीय सूदखोर-ज़मींदारों के खिलाफ भी संघर्ष किया। अंग्रेज़ी सेना एड़ी-चोटी का जोर लगा कर भी तिलका को नहीं पकड़ पाई। तब अंग्रजों ने तिलका के ही दल के कुछ लोगों को लालच देकर उनके बारे में सूचना ले ली। रात के अंधेरे में अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया। लेकिन किसी तरह वे बच निकले और पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ छापेमारी जारी रखी।

अंग्रेज़ों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके उन तक पहुंचने वाली तमाम रसद को रोक दिया। भोजन और पानी के अभाव में तिलका को पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा। जिसके बाद वे एक दिन पकड़े गए। बताया जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया। 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई। जिस समय तिलका मांझी की शहादत हुई, उस समय मंगल पांडे का जन्म भी नहीं हुआ था।

तिलका मांझी की शहादत के बाद संताल आदिवासियों का अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष अनवरत जारी रहा, जिसे 1855 में सिदो- कान्हू ने एक नया आधार दिया, जिसे संताल हूल (विद्रोह) के नाम से जाना जाता है। 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में उनके गांव भोगनाडीह में एक सभा हुई, जिसमें 20 हजार संताल आदिवासी इकठ्ठा हुए और यहीं से अंग्रेजों के खिलाफ जंग की घोषणा की गई।

अपने पारंपरिक हथियार तीर-धनुष को लेकर संताल विद्रोही अंग्रेजों से भिड़ गए। काफी अक्रामक तरीके से लड़ी गई इस लड़ाई में अंतत: संतालों की हार हुई। इस जंग में 20 हजार संताल मारे गए। उसके बाद कुछ दलालों ने गद्दारी की और सिदो-कान्हू को पकड़वा दिया। 26 जुलाई को दोनों भाइयों- सिदो-कान्हू को भोगनाडीह में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गई। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा सिदो-कान्हु ने दिया था। इस बावत उन्होंने तत्कालीन कलकत्ता के वायसराय को एक पत्र लिखा था। जो कलकत्ता के विक्टोरिया मेमोरियल के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।

संताल हूल एक तरह से आदिवासियत और झारखंडी अस्मिता की लड़ाई थी। मतलब संसाधनों पर यहां के मूल निवासियों का अधिकार कायम रहे और आदिवासी समुदाय की परंपरागत स्वशासन व्यवस्था पर बाहरी तत्त्वों का हस्तक्षेप ना हो।

कहना ना होगा कि झारखंड की सांस्कृतिक विरासत में सहकारिता मूल में रही है। प्राकृतिक संसाधनों का अति संग्रह और अति दोहन झारखंडी मानुस के चरित्र में नहीं रहा था। देश की आजादी के बाद जैसे-जैसे सामंती और पूंजीवादी तत्त्वों का इस क्षेत्र में प्रवेश शुरू होने लगा, यहां की खनिज सम्पदाओं का दोहन शुरू हो गया, जो अलग राज्य गठन के बाद राजनीतिक संरक्षण में तेजी से फैलता चला गया। वैसे ही आजादी के बाद से विकास के नाम पर हो रहे खनिज संपदाओं के दोहन की वजह से विस्थापन की समस्या बढ़ती चली गई। कोयल कारो, तपाकरा, काठीकुंड इसके उदाहरण हैं।

यह सिलसिला राज्य गठन के बाद काफी तेजी से बढ़ा है। सर्वविदित है कि गोड्डा में अडानी पावर प्लांट के लिए किस तरह किसानों की उपजाऊ जमीन जबरन छीन ली गई। इसके खिलाफ लोग गोलबंद तो हुए, आन्दोलन भी किए लेकिन वही अंग्रेजों का फार्मूला “फूट डालो राज करो” की तर्ज पर आन्दोलन को कुचल दिया गया। विस्थापन के खिलाफ राज्य में कई आन्दोलन हुए लेकिन उन्हें कुचल दिया गया। कई लोगों को जेल की हवा खानी पड़ी है।

औद्योगिक विकास गलियारा से बढ़ेगा विस्थापन

फिलवक्त टाटा स्टील फाउंडेशन और टाटा ट्रस्ट की संयुक्त पहल पर झारखंड के कोल्हान क्षेत्र के पूर्वी सिंहभूम जिला अंतर्गत जमशेदपुर सहित सराइकेला-खरसावा जिला और पश्चिम सिंहभूम जिला की परिधि से होते हुए भारत के तटीय ओडिशा के जाजपुर जिले के कालिंगनगर तक लगभग 286 किलोमीटर के बीच वाले 72 ग्राम पंचायतों के लगभग 450 गांवों में औद्योगिक विकास गलियारा परियोजना प्रस्तावित है।

इस परियोजना की वजह से आदिवासियों व मूलवासियों की उनकी मर्जी के खिलाफ विस्थापन की समस्या बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। जाहिर है ऐसे में क्षेत्र के लोगों के सामने उनकी आजीविका, उनका पारंपरिक स्वशासन, सामाजिक व्यवस्था, प्रथा और अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।

राज्य में हो रहे विस्थापन के खिलाफ लोग गोलबंद तो हुए और आंदोलन भी हुआ, लेकिन आंदोलनकारियों पर हुए दमन ने साफ कर दिया कि आजाद भारत और अलग राज्य का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है, सिवाय राजनीतिक भागीदारी के। आज भी हम वहीं खड़े हैं जहां हम अंग्रेजी हुकूमत के वक्त थे। मतलब साफ है कि आज भी हूल और उलगुलान की जरूरत बरकरार है।

झारखंड में देश का 40 फीसदी खनिज

देश के कुल खनिज संपदा का 40 प्रतिशत से भी अधिक झारखंड में पाया जाता है। जिसमें यूरेनियम, ग्रेफाइट, सोना, तांबा, बॉक्साइड, अभ्रक, लोहा, कोयला आदि शामिल हैं। राज्य में 30 प्रतिशत के क़रीब जंगल हैं, जिसमें सागवान, शीशम आदि कीमती लकड़ियां पाई जाती हैं। यह लोहा, तांबा, माइका, काइनाइट आदि का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है।

आज राज्य की अजीब विडम्बना है कि इतने सारे कीमती प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद यहां के लोग गरीबी में जीने को मजबूर हैं। अलग राज्य गठन के 22 वर्षों बाद भी यहां का आम जनजीवन बुनियादी विकास की जगह पिछड़ेपन और बेबसी का शिकार है। एक तरह से कहा जाय तो आम जनजीवन के लिए यहां की खनिज सम्पदाएं अभिशाप बन कर रह गई हैं।

अलग राज्य बनने के बाद यहां के लोगों में खुशहाली और उम्मीदों की एक नई रोशनी की चमक आयी थी। लेकिन कुछ ही समय बाद वह तिरोहित हो गई। अलग झारखंड बनने के बाद सबसे ज़्यादा ज़ुल्म इनके प्राकृतिक संसाधनों की लूट को लेकर हुआ।

औद्योगीकरण के नाम पर 100 से ज्यादा एमओयू

झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के एक आंकड़े के अनुसार यहां औद्योगीकरण के नाम पर तक़रीबन 100 से ज़्यादा एमओयू हुए हैं, जिसमें 4,67,240 करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया गया। इस दौरान लगभग दो लाख एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया। जिसमें टाटा, मित्तल, हिंडाल्को, अम्बानी, भूषण, डालमिया और अब अडानी जैसी देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने प्लांट्स लगाए हैं। इनमें ज़्यादातर स्टील, लोहा, एल्युमिनियम और तांबा के कारखाने थे, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए और कई हज़ार लोग अब भी मुआवज़े और ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि 1 अक्टूबर 2008 को जमशेदपुर स्थित कोहिनूर स्टील प्लांट में स्थानीय आदिवासियों की खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण करने का काम विरोध के चलते रुकवा दिया गया था क्योंकि उन्हें न तो ठीक से मुआवज़े दिए गए न ही नौकरी दी गई। प्लांट के प्रदूषण से पानी, खेती और स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे।

जगह-जगह जमीन अधिग्रहण का विरोध

वहीं लक्ष्मीनिवास मित्तल और आर्सेलर-मित्तल ने तोरपा कामडेरा में 11,000 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। जिसमें 8,800 एकड़ ज़मीन में 12 मिलियन टन स्टील उत्पादन क्षमता का प्लांट बिठाया गया और 2,400 एकड़ ज़मीन टाउनशिप प्लान के लिए रखी गई। चूंकि उक्त भूमि आदिवासियों की थी, जो सीएनटी-एसपीटी का खुला उल्लंघन था, ऐसी भूमि आदिवासियों की सहमति के बिना हस्तांतरण नहीं हो सकती थी, अतः ग्रामीणों ने इसका विरोध शुरू किया।

6 दिसम्बर 2008 में दुमका के काठीकुंड में एक पॉवर प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे आदिवासियों पर हुए गोलीकांड में दो लोग मारे गए। इसी तरह खरसावां में जुपिटर सीमेंट फैक्ट्री, रांची में एचइसी, नगड़ी, रामगढ़ के गोला और अब हज़ारीबाग़ के बड़कागांव में विस्थापन को लेकर आन्दोलनों में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। वहीं आंदोलन के बाद बड़े पैमाने पर सामूहिक गिरफ्तारियां हुईं और बड़कागांव केस में भी क़रीब 400-500 लोगों पर मामला दर्ज किया गया।

आदिवासी जमीन को लेकर प्रशासनिक स्तर पर की जा रही धोखाधड़ी का एक मामला गुमला जिले में नेगोसिया आदिवासियों के साथ देखने को मिला था। जब उनसे बैल और बकरी देने के नाम पर सरकारी अधिकारियों ने सादे कागज़ पर उनके अंगूठे के निशान ले लिए। बाद में नागोसिया के लोगों को पता चला कि उनसे हिंडाल्को कम्पनी को बाक्साइट खनन के लिए अपनी जमीन देने के लिए लिखवाया गया है। इसके बाद इस धोखाधड़ी के विरुद्ध लंबे समय तक आंदोलन चला।

दरअसल सुनियोजित तरीके से औद्योगीकरण के नाम पर हज़ारों लोगों को धोखे से बेघर कर दिया गया और उनकी सैकड़ों एकड़ ज़मीन हड़प ली गई। यही वजह है कि हर परियोजना में विस्थापित हुए लोगों में से केवल 25 प्रतिशत लोगों को ही नौकरी या मुआवज़ा मिल पाता है बाक़ी 75 प्रतिशत लोग अपनी मांगों के लिए ज़िन्दगी और मौत से जूझते रहते हैं। जबकि इसका फ़ायदा केवल पूंजीपति वर्ग, कंपनी के दलाल, राजनेता और बिचौलिया ही उठाते हैं।

राज्य में 10 आदिवासी मुख्यमंत्री हुए, फिर भी नहीं बदले हालात

बड़ी विडंबना है कि अविभाजित बिहार के समय में तो उपेक्षा की ही गई, झारखंड बनने के बाद भी झारखंड की सरकारों द्वारा तिलका मांझी द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किये गये संघर्ष और उनकी शहादत को अपेक्षित महत्त्व नहीं दिया गया। अब जबकि राज्य गठन के बाद 11 मुख्यमंत्रियों में केवल एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को छोड़कर बाकी 10 मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से रहे हैं।

बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन और हेमंत सारेन खुद संताल समुदाय से रहे हैं और झारखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन करने वाली पार्टी के नेतृत्व की सरकार भी है, तो उम्मीद लाजिमी है कि इस संदर्भ में कुछ काम जरूर हो। इसके लिए शहीदों पर विशेष शोध कार्य करवाकर स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में उनके वास्तविक स्थान को दिलाने की दिशा में ठोस पहल की जरूरत है।

ज्ञान-विज्ञान समिति झारखंड के राज्य महासचिव विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि देश की आजादी के बाद यहां के खनिज संपदा के दोहन के चलते विस्थापन हुआ है। विस्थापन और सरकारी उपनिवेश को रोकने के लिए भी यहां कई आंदोलन हुए हैं। जैसे खरसांवा गोलीकांड, कोयल कारो, तपाकरा, काठीकुंड, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के आंदोलन इसके उदाहरण हैं।

विश्वनाथ सिंह कहते हैं कि उल्लंघन आंदोलन को देशद्रोह के तौर पर लोगों के सामने रखा गया। जैसे कि वह स्वायत्तता, अस्मिता की लड़ाई ना हो। इसमें सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ता और झारखंड में जन आंदोलनों में लगातार संघर्ष कर रहे जन नेताओं को आरोपित किया गया।

वे आगे बताते हैं कि जिस तरह से कॉर्पोरेट घरानों के लिए जबरन खेती की जमीनें छीनी जा रही हैं। लेकिन यहां के संसाधनों के नियोजन के लिए आज तक कोई भी सरकार ऐसी नीति नहीं बना रही है, जिससे यहां के जो खनिज संपदा हैं उनकी प्रोसेसिंग यहां पर हो और यहां ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिले। यहां आर्थिक उन्नति हो, झारखंड आत्मनिर्भर बने। उन्होंने कहा कि झारखंड की खनिज संपदा खाली होती जा रही है। यहां की धरती के गर्भ से कीमती खनिज पदार्थों को निकालकर दूसरे प्रदेशों में ले जाकर इनकी प्रोसेसिंग की जा रही है। इसी का नतीजा है कि यहां की धरती के जो धरती पुत्र हैं उनका पेट और हाथ आज भी खाली है।

नियोजन की अगर हम बात करें तो झारखंड बनने के तुरंत बाद डोमिसाइल नीति आई, जिसको सरकार संभाल नहीं सकी। जब रघुवर सरकार आई तो उन्होंने 13 जिलों और 11 जिलों में नियोजन को विभाजित किया। अब जो नई सरकार खतियान आधारित नियोजन नीति की बात करके आई थी, उसने और खासतौर से सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर इस नियोजन नीति के साथ फुटबॉल जैसा जो खेल खेला है वह झारखंड के साथ एक बहुत बड़ा भद्दा मजाक है।

यहां के युवा लगातार संघर्षरत हैं तो हमें यह लगता है कि जब हम पराधीन थे तब का जो हुल था और आज जब हम स्वाधीन हैं तो आज भी हम संघर्षरत हैं अपनी स्मिता अपनी स्वायत्तता को बचाने के लिए। यहां तक कि अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानपूर्ण जीवन जीने का जो अधिकार है उस पर भी अभी तक यहां की सरकारों ने कोई ठोस नीति नहीं बनाई है, खास तौर से शिक्षा के क्षेत्र में। अगर आप देखें तो अभी भी यहां के 55% स्कूल में एक ही शिक्षक पढ़ा रहे हैं। अब सवाल उठता है कि यहां के बच्चों की शिक्षा की क्या स्थिति है और कैसे इस बदलती दुनिया में झारखंड के बच्चे अपने आप को सिर उठाकर जीने के लायक बना सकेंगें?

संताल हूल: तिथिवार घटनाक्रम

30 जून, 1855- सिदो-कान्हू के आह्वान पर साहिबगंज के भोगनाडीह में विशाल जनसभा का आयोजन हुआ था। इस जनसभा में करीब 10 हजार संतालियों का जुटान हुआ।

01 जुलाई, 1855- सुरेंद्र मा़ंझी के नेतृत्व में छोटा लाट साहेब जेम्स हेलिडे से मिलने लगभग दो सौ मांझी एवं परगनाओं का दल कोलकाता रवाना हुआ।

06 जुलाई, 1855- महाजन एवं दरोगा के द्वारा निर्दोष हड़मा देश मा़ंझी, गरभू मा़ंझी, चाम्पा़ई एवं लोखोन को कैदी बनाकर भागलपुर चालान किया।

07 जुलाई, 1855- बरहेट से पांच किलोमीटर दूर पंचकाठिया में दीघी थाना के दरोगा महेश लाल दत्त एवं आमड़ापाड़ा के महाजन केनाराम भगत की हत्या। उसी दिन सिदो-कान्हू के द्वारा हूल की शुरुआत की घोषणा।

08 जुलाई, 1855- सिदो-कान्हू ने बरहेट को अपनी राजधानी घोषित किया। इसी दिन भागलपुर के कमिश्नर ब्राउन के द्वारा कैप्टेन EF W बैरो को राजमहल में सैनिक भेजने का आदेश।

09 जुलाई, 1855- संताल फौज द्वारा पाकुड़ बाजार का घेराव।

10 जुलाई, 1855- पाकुड़ धनुषपूजा में ब्रिटिश द्वारा मर्टेलो टॉवर का निर्माण।

11 जुलाई, 1855- विद्रोह को दबाने के लिए मेजर बारोज का कहलगांव आगमन।

12 जुलाई, 1855- सिदो-कान्हू, चांद-भैरो के नेतृत्व में संताल विद्रोहियों का पाकुड़ में प्रवेश। राजा के महल पर हमला।

13 जुलाई, 1855- सातवीं सशस्त्र रेजिमेंट का कदमसार में आगमन और भारी सशस्त्र हमले की शुरुआत।

15 जुलाई, 1855- पाकुड़ के नजदीक कदमसार में सातवीं सशस्त्र रेजिमेंट की संतालों के साथ सीधी भिड़ंत। इसी दिन सिदो-कान्हू के नेतृत्व में चार हजार विद्रोहियों द्वारा महेशपुर राजभवन पर हमला। जिसमें 200 से ज्यादा संताल मारे गए।

16 जुलाई, 1855- प्यालापुर के युद्ध में संतालों के हाथ में ब्रिटिश सेना की हार।

19 जुलाई, 1855- जुठाय मा़ंझी के नेतृत्व में रामपुरहाट के नारायणपुर में धनी महाजन बोराल के घर पर हमला।

20 जुलाई, 1855- भागलपुर और राजमहल से दक्षिण पश्चिम में और उत्तर पश्चिम तालडंगा से सैंथिया तक तत्कालीन भागलपुर जिले के उत्तर पूर्व क्षेत्र पर संतालों का पूर्ण कब्जा।

21 जुलाई, 1855- ब्रिटिश सेनाओं की काटना ग्राम में पराजय।

23 जुलाई, 1855- बीरभूम के गौनपुरा के प्रसिद्ध व्यापार केंद्र ध्वस्त।

24 जुलाई, 1855- मुर्शिदाबाद, बरहरवा और रघुनाथपुर में ब्रिटिश सेनाओं की जीत और अनेक संताल वीरों की शहादत।

27 जुलाई, 1855- नागौर से छह मील की दूरी पर लेफ्टिनेंट टूलमान और फाक्स की सेना और आठ हजार संताल विद्रोहियों के बीच मुठभेड़।

17 अगस्त, 1855- ब्रिटिश सरकार द्वारा संतालों को आत्मसमर्पण करने के लिए कहना और अपील जारी करना। संतालों ने अपील ठुकराई।

19 अगस्त, 1855- पिंडरा गांव के भोगोन मांझी एवं मांझिया मांझी ने मिलकर सिदो को गिरफ्तार करवाया।

16 सितंबर, 1855- मोछिया एवं कासीजोला के राम परगना और सुंदरा मांझी के नेतृत्व में उपरबंधा पुलिस स्टेशन और गांव ध्वस्त।

अक्टूबर 1855- अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में संताल विद्रोहियों द्वारा अम्बाहारला मौजा को लूटा गया।

08 नवंबर, 1855- सिदो ने एसले ईडन के सामने अपना जुर्म कबूला।

10 नवंबर, 1855– ब्रिटिश शासन द्वारा मार्शल लॉ लागू किया गया। नवंबर 1855 के तीसरे सप्ताह में उपरबांधा (जामताड़ा) के घटवाल जोरवार सिंह के द्वारा कान्हू, चांद और भैरो की गिरफ्तारी। तीनों को सिउड़ी जेल भेजा गया।

05 दिसंबर, 1855- कोर्ट द्वारा सिदो को फांसी की सजा।

20 दिसंबर, 1855- एसले ईडन के समक्ष कान्हू का बयान। अपना जुर्म कुबूल करना।

22 दिसंबर, 1855- एसले ईडन द्वारा संताल परगना की स्थापना एवं एसपीटी एक्ट का लागू होना।

23 जनवरी, 1856- छह हजार संताल विद्रोहियों द्वारा संग्रामपुर (मुंगेर) के लॉर्ड ग्रांट के महल में कब्जा।

27 जनवरी, 1856- लेफ्टिनेंट फागन के पहाड़ी सैनिकों के साथ संतालों का भीषण युद्ध।

14 फरवरी, 1856– कान्हू, चांद और भैरो का सिउड़ी कोर्ट में ट्रायल।

24 फरवरी, 1856- कान्हू को भोगनाडीह स्थिति ठाकुरबाड़ी में फांसी दी गई।

25 फरवरी, 1856- सिदो को पंचकाठिया में जहां से हूल की शुरुआत हुई थी, भारी भीड़ के सामने फांसी दी गई। चांद और भैरो को अंडमान द्वीप में कालापानी की सजा दी गई। वहीं पर दोनों की मौत हुई।

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Prabhakar nag
Prabhakar nag
Guest
10 months ago

बहुत ही तथ्यपरक सारगर्भित एवं सटीक पत्रकारिता