किसान फिर आंदोलन की राह पर: 13 फरवरी को दिल्ली कूच, 16 फरवरी ग्रामीण भारत बंद

आम चुनाव के ठीक पहले किसान-संगठनों ने एक बार फिर ताल ठोंकी है। वे मोदी सरकार से पिछले 10 सालों के किसान-द्वेषी कामों का हिसाब चुकता करना चाहते हैं। इस बार उनके साथ देश के तमाम मजदूर-कर्मचारी संगठन तथा अन्य जनसंगठन भी शामिल हैं।

16 फरवरी को संयुक्त किसान मोर्चा और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक साथ ग्रामीण भारत-बंद और औद्योगिक हड़ताल का ऐलान किया है। उधर संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) ने 13 फरवरी को ‘दिल्ली चलो’ का आह्वान किया है। इसे रोकने के लिए मोदी सरकार एक ओर किसान नेताओं से वार्ता कर रही है, दूसरी ओर हरियाणा और दिल्ली बॉर्डर पर आरसीसी की दीवाल खड़ी कर रही है।

अच्छा होता, सारे किसान संगठन एक साथ मैदान में उतरते। बहरहाल इनकी मांगे समान हैं और लड़ाई का निशाना भी एक ही है-मोदी सरकार और उसकी किसान-विरोधी नीतियां।

मोदी सरकार पर सीधे हमला बोलते हुए संयुक्त किसान मोर्चा के बयान में कहा गया है, “सरकार अपनी कॉर्पोरेट समर्थक, सांप्रदायिक और सर्वसत्तावादी नीतियों के खिलाफ लोगों को एकजुट होने से रोकने के लिए श्रमिकों, किसानों और आम जनता को विभाजित करने की कोशिश कर रही है। संयुक्त किसान मोर्चा ने मजदूर-किसान एकता को मजबूत करने और मोदी सरकार के खिलाफ आम जनता से व्यापक रूप से एकजुट होने का आह्वान किया है।”

मोर्चे के नेता रमिंदर सिंह पटियाला ने कहा, “16 फरवरी को शाम 4 बजे तक हम ‘ चक्का जाम’ करेंगे। पूरे देश में किसान मुख्य राजमार्गों पर अपना विरोध दर्ज कराएंगे। हमने किसानों से अपील किया है कि उस दिन वे दूध और सब्जी बाजार में न ले जाँय। बस और ट्रकें भी सड़क पर नहीं उतरेंगी। यह एक तरह का ‘ भारत-बंद होगा।”

दरअसल, किसान-संगठनों के ये लड़ाकू कार्यक्रम जमीनी स्तर पर किसानों तथा ग्रामीण गरीबों की भयावह बदहाली से पैदा उनकी बेचैनी की ही अभिव्यक्ति हैं।

आज, सबसे चिंताजनक यह है कि सरकार किसानों को लेकर पूरी तरह बेपरवाह हो गयी लगती है। इसका सबूत यह है कि अभी जो बजट पेश हुआ है उसमें कृषि क्षेत्र की जरूरतों और किसानों की उम्मीदों की घोर उपेक्षा की गई है।

जहां पिछले चुनाव से पहले देश के कुल बजट में कृषि का हिस्सा 5.44 प्रतिशत था, वहीं इस साल के बजट अनुमान में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के लिए यह मात्र 3.08 प्रतिशत है! दरअसल 5 सालों में यह अनुपात हर वर्ष घटते हए पिछले साल 3.20 प्रतिशत (वास्तविक खर्च 3.13 प्रतिशत) पहुंच गया था। 

खाद की सबसिडी पिछले साल के 1.88 लाख करोड़ के खर्चे से घटाकर 1.64 लाख करोड़ कर दी गई है, खाद्यान्न सबसिडी 2.12 लाख करोड़ के खर्चे से घटाकर 2.05 लाख करोड़ और आशा योजना का खर्च 2200 करोड़ से घटाकर 1738 करोड़ कर दिया गया है।

सरकार की 10 साल से जारी किसान-विरोधी, गाँव-विरोधी नीतिगत दिशा का नतीजा है कि कृषि क्षेत्र आज भारी संकट में घिर गया है।

बजट-पूर्व संसद में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा दस्तावेज में स्वयं सरकार ने यह स्वीकार किया है कि इस वर्ष कृषि क्षेत्र में वृद्धि (ग्रॉस वैल्यू एडेड दर) केवल 1.8 प्रतिशत हुई है।  यह दर पिछले वर्षों के कृषि वृद्धि की औसत दर की आधी भी नहीं है और इस वर्ष बाकी सब क्षेत्र में हुई वृद्धि के एक चौथाई के बराबर है।

प्रो. हिमांशु कुमार लिखते हैं, “गहराते ग्रामीण संकट का महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि पिछले 5 साल में वास्तविक कृषि मजदूरी में वृद्धि दर मात्र 0.2% वार्षिक रही, जबकि गैर-कृषि मजदूरी दर में 0.9% की गिरावट हुई है। 2014 की तुलना में, जब यह सरकार आयी थी, गैर-कृषि क्षेत्र की मजदूरी में 0.4% वार्षिक की दर से गिरावट हुई है, जबकि कृषि क्षेत्र की मजदूरी में 0.5% की मामूली वृद्धि हुई है।”

 प्रो. हिमांशु बताते हैं कि नियमित कामगार जो मध्यवर्ग की रीढ़ हैं, उनकी वास्तविक मजदूरी में भी 2011-12 से गिरावट हुई है। ग्रामीण क्षेत्र के नियमित मजदूरों की आय में यह गिरावट 2011-12 से 2017-18 के बीच 0.3% थी, जबकि 2017-18 से 2022-23 के बीच यह गिरावट और तेज हो गयी-0.5% वार्षिक ! वहीं शहरी मजदूरों के लिए इस पूरे दौर में यह गिरावट 1.7% बनी रही। “

वे आगे कहते हैं, “ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट का सबसे बड़ा संकेत यह है कि 2017-18 के बाद श्रमशक्ति के संरचनात्मक बदलाव की दिशा ही उल्टी हो गयी है। 2004-05 के बाद से कृषि रोजगार में जिस दर से गिरावट आ रही थी, उसकी तुलना में 2017-18 के बाद से इसमें तेज रफ्तार से वृद्धि हुई है। 2017-18 से 2022-23 के बीच 4.2 करोड़ श्रमिक कृषि में वापस लौटे हैं। आज कृषि क्षेत्र में कुल श्रमिक ( absolute numbers में ) 2011-12 से भी अधिक हैं ! जिन्हें कहीं रोजगार नहीं मिल पा रहा है, उनके लिए कृषि ही शरणस्थली है। लेकिन इसका अर्थ है प्रति व्यक्ति कम उपज। दोगुनी होने की बात तो छोड़ दीजिए, भारतीय किसानों की आय पूरी तरह अवरुद्ध है। “

अन्य जरूरी मांगों के साथ जिन दो सवालों पर किसान-संगठन इस चरण में फोकस कर रहे हैं और सबसे ज्यादा जोर दे रहे हैं, वे हैं स्वामीनाथन आयोग की संस्तुति के अनुरूप C2 +50% फॉर्मूले के आधार पर MSP की कानूनी गारंटी तथा one time measure के बतौर एक बार सभी किसानों की सम्पूर्ण कर्जमाफी।

कर्जमाफी की मांग पर किसान नेता दर्शन पाल कहते हैं, “हमारा मानना है कि कृषि-संकट के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। इसके कारण किसान बढ़ते कर्ज़ के बोझ तले दबते चले गए। अधिकांश किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज़ और बैंक अधिकारियों द्वारा प्रताड़ना ही जिम्मेदार है। किसान उन व्यापारियों की तरह नहीं हैं जो शानो-शौकत से जीवन व्यतीत करते हैं और फिर wilful defaulter बन जाते हैं। वे तो महज इस वजह से कर्ज वापस नहीं कर पाते क्योंकि  फसल की ठीक से खरीद न हो पाने तथा अनिश्चित मौसम की मार उन्हें भयानक गरीबी में धकेल देती है। हम चाहते हैं कि एक बार उनका हर तरह का कर्ज़- बैंक अथवा निजी स्रोतों से-माफ कर दिया जाय। यह किसानों को गरीबी के चंगुल से निकालने के लिए जरूरी है। और फिर proper MSP मिल जाय तो संकट से उबर कर किसान खुशहाली के रास्ते पर बढ़ सकते हैं।” 

बहरहाल चुनाव सामने होने पर भी मोदी-सरकार जिस तरह का किसान-विरोधी बजट लेकर आई है, उसके बाद अब इस सरकार से शायद ही किसानों को कोई उम्मीद बची हो। यहां तक कि जिस किसान-सम्मान निधि को लेकर अनेक विशेषज्ञ यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि सरकार इसे बढ़ाने जा रही है 6000 से बढ़ाकर 9000 या 12000 तक, विशेषकर महिला किसानों के लिए, उसमें भी सरकार ने एक पैसे की भी बढोत्तरी नहीं  की !

मोदी सरकार के किसान-द्वेषी रुख के पीछे मूल कारण  कारपोरेट तथा वैश्विक वित्तीय पूंजी एवं साम्राज्यवादी हितों के आगे उसका नग्न समर्पण है। वह कृषि- विकास के किसान-रास्ते को संकटग्रस्त बनाकर, उसे unviable बनाकर, कृषि को कारपोरेट-रास्ते पर ले जाना चाहती है।

पर चुनाव के ठीक पहले किसानों के प्रति ऐसी उपेक्षा का दुस्साहस वह कैसे कर पा रही है?

क्या वह अपनी विभाजनकारी राजनीति को लेकर, जिसे अयोध्या कार्यक्रम के माध्यम से उसने एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है, इतनी आश्वस्त है?

चुनाव के ठीक पहले यह हाल है तो अगर मोदी सरकार को अपनी विभाजनकारी राजनीति के बल पर तीसरा कार्यकाल मिल गया तब किसानों के साथ क्या बर्ताव होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

याद रखना होगा शासक-वर्ग का कृषि के कारपोरेटीकरण का एजेंडा बदस्तूर कायम है। ऐतिहासिक किसान-आंदोलन के बल पर वह टल जरूर गया था, पर खत्म नहीं हुआ है। मोदी-राज की पुनर्वापसी हुई तो नए काले कानूनों के माध्यम से उनकी खेती पर कारपोरेट-कब्जे का जिन्न बोतल से बाहर आते देर नहीं लगेगी !

जाहिर है किसानों के लिए यह जीवन-मरण संग्राम है। उन्हें अपने आंदोलन और किसानों-मेहनतकशों के राजनीतिक जागरण के बल पर मोदी सरकार की पुनर्वापसी को रोकना होगा, वरना अकूत बलिदान के बल पर हासिल उनके ऐतिहासिक आंदोलन की सारी उपलब्धियां व्यर्थ हो जाएंगी और मोदी के तीसरे कार्यकाल में कृषि के कारपोरेटीकरण को रोक पाना असंभव हो जाएगा।

(लाल बहादुर सिंह, पूर्व अध्यक्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ)

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