Saturday, April 20, 2024

स्पेशल रिपोर्ट: कृषि मज़दूरों के हाथ काटती मशीनें

हार्वेस्टर मशीन से कटते गेहूं की फसलों को देख लालती की आँखों में आंसू और मन में पीड़ा है। वो डबडबाई आंखों से अपना हाथ कटते देख रही हैं। हार्वेस्टर मशीन सिर्फ़ गेहूं की फसल नहीं काट रही, लालती के हाथ, उसके परिवार का पेट और उसके मवेशियों के हिस्से का भूसा भी खा रही है। कभी इन खेतों में दिहाड़ी पर और कभी सिर्फ़ भूसे पर गेहूं की कटाई और मड़ाई करने वाली लालती की लाचारी का आलम यह है कि न तो उनके पास राशन कार्ड है न कोई दूसरा काम, न ही निजी खेत खलिहान। उन्हें दूसरे के खेतों का ही सहारा है। लेकिन मशीनों ने उनके लिये जीवन और दुरूह कर दिया है।

कमोवेश यही कहानी हर कृषि मज़दूर की है। पूछने पर लालती गीले स्वर में कहती हैं जब से कोरोना आया तब से ये जल्लाद (हार्वेस्टर मशीन) भी आ गया है। बता दूं कि लालती का परिवार मुसहर समाज से ताल्लुक रखता है। जिनके पास ज़रूरी काग़जात न होने के चलते आधार कार्ड तक नहीं बना है इसलिये ये लोग सरकार की तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रहते आ रहे हैं। लालती के छोटे-छोटे बच्चे खेत दर खेत गेहूं के बाल बीनते हैं। 

वहीं जाटव बिरादरी से संबंध रखने वाले राम अवतार भिवंडी में कपड़ा मिल में काम करते हैं। होली पर गांव आये हैं। राम अवतार अपने जैसे तमाम विदेशियों की व्यथा सुनाते हुए बताते हैं कि आज से नहीं, बहुत पहले से हमारे चाचा पिता भी जब भिवंडी में काम करते थे तब से एक रवायत सी रही है कि लोग साल के 8 महीने परदेश में कमाते और फाल्गुन में घर आते फिर चैती की फसल निपटाते। घर परिवार में रहते हुये दूसरों के खेतों-खलिहानों में कटाई-मड़ाई का काम करते और साल भर का अनाज जुटाते थे। इसी सीजन में शादी-विवाह का न्यौता भी निपटाते थे।

दरअसल आज से कुछ साल पहले तक ग्रामीण समाज में शादी विवाह के कार्यक्रम अधिकांशतः गर्मियों में होते थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि गर्मियों में खेत खलिहान खाली हो जाते हैं जहां लोग जनवास देते, बारात टिकाते थे। चार साल पहले तक गांवों में गेस्ट हाउस का चलन इतना ज़्यादा नहीं था। राम अवतार कातर स्वर में कहते हैं अब न तो मनरेगा का काम है, न ही दूसरे के खेतों में काम बचा है समझ में नहीं आ रहा आगे गुज़ारा कैसे होगा।

राम अवतार से बात करते करते आगे बढ़ा तो एक बुजुर्ग दलित महिला एक पंडित के पानी भरे खेतों में छोटे-छोटे बच्चों के साथ आलू बीनती दिखीं। पूछने पर पता चला कि इस खेत में आलू बोया गया था। आलू की खुदाई करने के ठीक अगले ही दिन खेत को पलेवा (पानी से भर दिया) कर दिया गया। ताकि उड़द मूंग बोने के लिये ज़रूरी नमी मिल सके। पूछने पर उक्त दलित महिला ने बताया कि उनके पति का देहांत हो चुका है। एक बेटा है। जिसका एक्सीडेंट में एक पैर कट गया है तो उसे काम भी कम मिलता है। सास-बहू खेतों में कटाई बिनाई, रोपाई का काम करती हैं। वो बताती हैं कि पहले दो-तीन महीने तक कटाई मड़ाई का काम चलता था लेकिन जब से ये शैतान मशीनें (ट्रैक्टर, थ्रेसर, हार्वेस्टर) आ गई हैं तब से मानों हम लोगों के हाथ ही कट गये हैं, कोई काम ही नहीं है।

गाँवों में सिर्फ़ कृषि का काम मशीनों के जरिये करवाया जा रहा हो ऐसा भी नहीं है। फूलपुर के मयाराम पटेल अपनी आपबीती सुनाकर इस रिपोर्ट में एक नया आयाम जोड़ते हैं। दरअसल कोरोना के समय उनकी बीवी की तबियत बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी, वो पीलिया के चपेट में आ गई थी साथ ही उसमें टीवी के लक्षण भी थे। ईलाज के लिये जेब में टका नहीं था। उसी समय गांव के ठाकुर साहेब अपनी पुरानी बखरी गिरवा रहे थे। मयाराम आगे का हाल कुछ यूँ बयां करते हैं- “मैंने बहुत चिरौरी की, ठाकुर साहब बखरी गिराने का काम मुझे दे दीजिये कम पैसे में कर दूंगा लेकिन वो नहीं माने। उन्होंने जेसीबी से बखरी गिरवा दी। जबकि मुझे उस समय काम की बहुत ज़रूरत थी। कहते कहते मयाराम की आंखें गीली हो गयीं”।

आखिर मजदूरों की उपलब्धता के बावजूद लोग अपने खेतों में गेहूं की कटाई के लिये मशीनों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं। इस सवाल के जवाब में सोरांव क्षेत्र के राजेश मिश्र कहते हैं, “मनरेगा ने कृषि मजदूरों के भाव बढ़ा दिये हैं। अब वो लोग गेहूं नहीं नगदी की मांग करते हैं। मजदूरी भी उन्हें कंपनी मजदूरों के बराबर चाहिये। इतनी आय खेती में तो होती नहीं है कैसे करें”।

सिर्फ़ ब्राह्मण ठाकुर ही ऐसा सोचते हों ऐसा भी नहीं है। खेतिहर समुदाय से संबंध रखने वाली जातियों के लोग भी उतने ही निर्मम हो चुके हैं। फूलपुर क्षेत्र के राकेश पटेल खुद भी खेतों में श्रम करने वाले समुदाय से आते हैं। लेकिन वो खुद दोनों सीजन यानि धान और गेहूं दोनों की कटाई मशीनों से करवाते हैं। राकेश कहते हैं मज़दूर लगाना ज़्यादा खर्चीला साबित होता है। ऊपर से मज़दूरों के दस नख़रे। पानी-पीने के लिये कभी समोसा चाहिये तो कभी अनरसा। भैय्या-बाबू कहकर चिरौरी करो सो अलग।

राकेश पटेल

खेती के साथ-साथ ग्रामीण समाज के लोग कुछ अन्य काम भी करते थे जिससे उनकी आय में इज़ाफ़ा होता था। जैसे कि बीड़ी बनाना, भेड़, बकरी पालन। तीतर, बटेर, मुर्गा, बनमुर्गी पालन। अचार, खटाई, सिरका बनाकर बेचना। बांस और रहठा की डलिया डउरी, खांची, झउआ पलड़ा बनाकर बेचना। लेकिन समय के साथ सब काम खत्म होते चले गये।   

शायद इसी वक़्त के लिये गांधी तकनीक का तीव्र विरोध कर रहे थे

पंचायती राज के तहत ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाकर सत्ता के विकेंद्रीकरण का फॉर्मूला देने के साथ ही ग्रामोद्योग की स्थापना करके पूंजी और उत्पादन के साधनों के विकेंद्रीकरण का मॉडल देने वाले महात्मा गांधी जब पश्चिमी टेक्नोलाजी व पश्चिमी बाज़ार का विरोध कर रहे थे, तो उसके पीछे गांधी की अपनी सोच और दूरगामी योजना थी। दरअसल गांधी ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया था। तभी तो उन्होंने लोगों के बीच पश्चिमी तकनीक के विरोध को अस्मिता से जोड़ा। गांधी का यह भी मानना था कि मशीन इंसान की सोच को नियंत्रित करती है। एक सीमा में बांधती है। वह मशीन पर निर्भरता को खुली सोच में सबसे बड़ी बाधा भी मानते थे। तब उनके इस विचार, ख़ासकर तकनीक का विरोध वाले स्टैंड से देश के अंदर और बाहर कई लोग सहमत नहीं होते थे। कुछ लोग उसे पिछड़ेपन की या अपरिपक्व बात भी कह देते थे। गांधी ने उन आलोचनाओं का भी सम्मान किया। लेकिन आज की तारीख में हम पीछे मुड़कर देखें, तो यह बहुत ही प्रगतिशील और वक़्त से आगे की सोच लगती है।

गांधी के लिए स्वराज और आज़ादी का मतलब सिर्फ मानचित्र पर एक अलग मुल्क का होना भर नहीं था। वह चाहते थे देश भी आज़ाद हो और देश के लोगों की सोच भी। इसी दृष्टिकोण को बल प्रदान के लिए वह ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने, देश के अंदर बने उत्पाद को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा देने की बात करते थे।

(प्रयागराज से जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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