भारत में बढ़ती बेरोजगारी को छुपाते सरकारी आंकड़े

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मोदी सरकार बेरोज़गारी संकट को स्वीकार नहीं कर रही है। वित्त मंत्री के बजट भाषण में ‘बेरोज़गारी’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है; बल्कि, यह कहा गया है कि सरकार के विभिन्न कदमों ने व्यापक रोज़गार के अवसर उत्पन्न किए हैं।

इसके अलावा, आर्थिक सर्वेक्षण के स्थान पर वित्त मंत्रालय द्वारा जारी भारतीय अर्थव्यवस्था की समीक्षा में बेरोज़गारी दर में बड़ी कमी होने का दावा किया है। 

इस दावे को आगे हुए देश की वित्त मंत्री ने कुछ आंकड़े पेश किये जिसपर गौर करने के साथ ही देश की बेरोजगारी का सही चित्रण किया  जा सकता है, अर्थात आंकड़ों का सच और सच के आंकड़ों में फर्क को स्थापित किया जा सकता है।

1. एनएसओ द्वारा किए गए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार, बेरोज़गारी दर (UR) में 2017-18 में 6% से घटकर 2022-23 में 3.2% तक की उल्लेखनीय कमी आई है।

2. श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) 2017-18 में 49.8% से बढ़कर 2022-23 में 57.9% हो गई है [LFPR काम करने योग्य आयु की आबादी का प्रतिशत है जो कार्य में लगी हुई है या ‘काम’ पाने के लिए ठोस प्रयास कर रही है]।

3. युवाओं (आयु 15–29 वर्ष) की बेरोज़गारी दर 2017-18 में 17.8% से घटकर 2022-23 में 10% हो गई है, जबकि इसी अवधि में युवा LFPR 38.2% से बढ़कर 44.5% हो गई है।

4. युवाओं (आयु 15–29 वर्ष) के लिए कार्य भागीदारी दर (WPR) 2017-18 में 31.4% से बढ़कर 2022-23 में 40.1% हो गई है, जिसका मतलब है कि 35 मिलियन अतिरिक्त लोगों को काम मिला है, जबकि इस आयु वर्ग की जनसंख्या में केवल 17 मिलियन की वृद्धि हुई है [WPR, जिसे रोजगार दर भी कहा जाता है, कार्य करने योग्य आयु की आबादी में से रोजगार में लगे लोगों का प्रतिशत है]।

समीक्षा में प्रस्तुत आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के डेटा पर आधारित हैं। PLFS दो तरीकों से डेटा एकत्र करता है। सामान्य प्रमुख और सहायक स्थिति (UPSS) और वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (CWS)।  

UPSS के आंकड़ों को इकठ्ठा करने का आधार महीना है, जिसके एक व्यक्ति पिछले साल के 30 दिन रोजगार में है, तब उसे नौकरी वाला मान लिया जाता है, वहीं CWS के आंकड़ों का आधार पिछले सप्ताह के एक दिन से है, इसका तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति ने बीते सप्ताह में एक भी दिन कार्य किया है, तो उसे नौकरी वाला माना जायेगा।

अगर इन दोनों आंकड़ों के आधारभूत अंतर पर ही गौर किया जाये तो दोनों के  बीच में लगभग 22 कार्य दिवस का फर्क है। भारतीय सरकार के आंकड़े UPSS की प्रणाली पर आधारित है। इसके अलावा गौर करने वाली बात यह है कि कोई भी देश साल में 30 दिन के काम को रोजगार बता कर किस तरह से विश्वशक्ति बनने का दवा पेश कर रहा है।

नए तकनीकों और प्रौद्योगिकियों के विकास के दावे कर रहा है। कैसे कोई ऐसे ही दावे कर रहा है और पूरे देश के सामने दिखा रहे हैं।

इसके लिए हमें मोदी काल में सांख्यकीय आंकड़ों के साथ होने वाले खिलवाड़ के बारे में समझना होगा। जहां मोदी  ने कई आंकड़े तो निकले नहीं और कहीं आंकड़े निकले तो उनके सारे गणितीय आधार को बदल कर। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में, सितंबर 2016 में, पांचवें दौर के वार्षिक रोजगार-बेरोज़गारी सर्वेक्षण (EUS) के आंकड़े जारी किए गए।

इस रिपोर्ट में यह पाया गया कि 2015-16 में भारत की बेरोज़गारी दर बढ़कर पांच साल के उच्च स्तर 5% पर पहुंच गई थी। सरकार चिंतित हो गई और न केवल इसके बाद के सभी वार्षिक रोजगार-बेरोज़गारी सर्वेक्षणों को समाप्त कर दिया, बल्कि NSSO द्वारा किए जाने वाले पंचवर्षीय रोजगार-बेरोज़गारी सर्वेक्षण को भी रद्द कर दिया, जिसका अगला चरण 2016-17 में होना था।

यह सर्वेक्षण 1972-73 से हर पांच साल में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नियमित रूप से आयोजित होता आ रहा था और यह देश में रोजगार और बेरोज़गारी की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ-साथ श्रमिकों और गैर-श्रमिकों की गुणवत्ता से संबंधित कई अन्य महत्वपूर्ण संकेतक भी प्रदान करता था।

2019 के चुनावों के बाद सरकार ने PLFS आंकड़ों को जारी किया जिसमें सरकार के झूठे दावों की पोल खुल गयी। वास्तविक रूप में 2012 से 2018 के बीच रोजगार दर में लगातार गिरावट देखने को मिली है। आंकड़े यह बताते हैं कि 2012 में भारतीय अर्थव्यवस्था के अंदर जहा। 

47.42 करोड़ रोजगार थे वहीं वह 2018 में घट कर 46.51 करोड़ हो गए थे. इसी में यह भी बात की गयी कि 45 सालों में यह रोजगार की सबसे ख़राब स्थिति थी जिसका हवाला PLFS के आंकड़े दिखा रहे हैं।

हालांकि यह भी स्पष्ट करना बेहद जरुरी है कि देश में बेरोजगारी की दर इसलिए नहीं बढ़ रही है कि लोग काम करना नहीं चाह रहे या वह रोजगार छोड़ परन्तु इसका मुख्य कारण वर्तमान अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन की कमी है।

इन तमाम आंकड़ों के बाद 2022 में हुए बड़े विरोधों के बारे में भी सोचना जरुरी है, जिसमें छात्रों ने सड़कों पर आकर रेलवे में होने वाली भर्ती में विलंब तथा अनियमितता के साथ अग्निवीर योजना का विरोध किया।

क्राइसिस डीलिंग मैकेनिज्म पर मामूली कार्रवाई करते हुए सरकार ने पक्के रोजगार में कमी करके अनुकम्पा पर या कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड नौकरियों की संख्या में वृद्धि की है, जिसका परिणाम यह है कि छात्र लगातार परमानेनेट जॉब के लिए काम सीट्स वाले पद पर भीड़ लगा रहे हैं।

हालांकि वह मंजर हमारे जेहन से अभी उतरा नहीं है जब देश के विकास का नजीर माने वाले गुजरात में होटल में कुछ नियुक्ति के लिए वहां के रेलिंग तोड़ते हुए नीचे गिर गए थे। देश में बेरोजगारी की स्थिति की गंभीरता का खुलासा 27 जुलाई 2022 को संसद में कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय में राज्य मंत्री द्वारा दिए गए एक जवाब में भी हुआ।

मंत्री ने बताया कि 2014 से 2022 के बीच केंद्र सरकार को 22.06 करोड़ नौकरी के आवेदन प्राप्त हुए, जिनमें से 7.22 लाख लोगों की भर्ती की गई। मंत्री द्वारा प्रदान किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 में केंद्र सरकार में नौकरी के लिए 1.8 करोड़ लोगों ने आवेदन किया, जिनमें से 78,000 की भर्ती हुई, और 2021-22 में 1.87 करोड़ आवेदन प्राप्त हुए और 38,000 की भर्ती की गई।

बड़ा सवाल यह है कि इतनी ख़राब स्थिति कैसे बनी? क्या ऐसा सब कुछ हो रहा था और देश के लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी जाने वाली सरकारों को इसके बारे में नहीं पता था? या क्या देश की सरकारें लाचार रहीं इस समस्या का हल ढूंढने में? हालांकि बेरोजगारी एक मात्र ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान यह सरकार पाने में विफल रही है।

इसके अलावा, भुखमरी, धार्मिक-सांप्रदायिक हिंसा,बढ़ता फासीवाद, बढ़ता विदेशी कर्ज, ख़राब होते क्रेडिट साख, इनमें से किसी से भी बचने में यह सरकार सफल नहीं रही है। परन्तु गौर करने वाली बात यह है कि इतनी सारी विपत्ति रूपक स्थिति रहने के बाद भी भारत सरकार के ये बड़े दावे की हम दुनिया की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहे है, महज एक ढोंग है।

जिसकी आड़ में  बड़े पूंजीपतियों के लिए रास्ते साफ़ कर रही है और आम जनता को धर्म के दर के साथ खुद को धर्म-रक्षक दिखा रही है। यह मामला किसी हद तक हमें मध्यकाल की याद दिलाता है जहां राजा या सुल्तान को धार्मिक रूप से खुद को सही साबित करना जरूरी है, जिसके बिना उसकी वैद्यता खतरे में आ जाती है।

अतः यह एक विवाद नहीं कि भारत का युवा एक बेहद ही खतरनाक दौर में जी रहा है जहां उसके द्वारा चुनी गयी सरकार ही उनके भविष्य के विरोध में कड़ी है।

एक दूसरे तौर से समझें तो भारत के युवाओं के लिए एक दूसरे तरीके से शासन व्यवस्था को भी समझने और उसपर अपनी प्रतिक्रिया देने का सही वक़्त है, जब वह इन गम्भीरताओं के साथ वर्तमान में हो रहे आन्दोलनों के साथ खुद को जोड़ सकते हैं।

जहां समाज के बड़ा तबका अपनी सूक्ष्म महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए व तात्कालिक सुख के लिए एक लम्बे समय के चैन से समझौता कर रहा है वहीं एक बड़ी सख्या ऐसे युवा भारत की भी है जो अपने हर अगले दिन के लिए संघर्ष कर रहा है।

परन्तु यह दौर दोनों ही के लिए बेहद निर्णायक है। जिसमें लोकतान्त्रिक और न्यानिक अधिकारों की सीमा से बाहर आकर सोचने की जरूरत है क्योंकि उस सीमा तक सोचने से यह मामला समाधान से ज्यादा उसी ऊहापोह में उलझा कर रखने जैसा होगा।

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं।)

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