शिशुओं का ख़ून चूसती सरकार!  देश में शिशुओं में एनीमिया का मामला 67.1%

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‘मोदी सरकार शिशुओं का ख़ून चूस रही है‘ यह पंक्ति अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकती है पर मेरे पास इस बात को कहने के लिये ठोस आँकड़े हैं। मोदी सरकार के पिछले 5 साल के कार्यकाल में एनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या में भारी इजाफ़ा हुआ है। 5 साल पहले जहां देश में एनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 58 प्रतिशत थी वही अब बढ़कर 67 फीसद हो गई है। यह आंकड़ा कल शुक्रवार को लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया ने दिया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कल लोकसभा को बताया कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में छः माह से लेकर 5 साल तक के बच्चों में एनीमिया के मामले में 9 फीसदी की वृद्धि दर्ज़ की गई है। स्वास्थ्य मंत्री ने सदन को बताया कि साल 2015-16 में हुए सर्वे में एनीमिया का मामला 58.60 प्रतिशत था। जो अब बढ़कर 67.1 फीसदी तक पहुंच गया है।

इसके आगे स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यवार आँकड़ा देते हुये लोकसभा को बताया कि बच्चों में एनीमिया (खून में हीमोग्लीबिन की कमी) के सबसे ज़्यादा मामले लद्दाख 90% है। इसके बाद गुजरात 80%, दादरा- नगर हवेली-दमन दीव 76% मध्य प्रदेश व जम्मू कश्मीर 73% तथा पंजाब व राजस्थान में 71% है। यह गौरतलब बात है कि देश के शिशुओं में एनीमिया के मामले में दूसरे नंबर पर जिस गुजरात राज्य का नाम दर्ज़ है विकास के उसके मॉडल का ढिंढोरा पीटा गया है, और नरेंद्र मोदी लगातार 13 साल वहां के मुख्यमंत्री रहे हैं।

बता दें कि देश में मुसहर और सपेरे समेत कई आदिवासी घुमंतू जातियां भीख मांगकर गुज़ारा करती हैं। दलित व पसमादां मुसलमान जहां दिहाड़ी मजदूर होतें है और उनकी परिवार की मासिक आय बेहद कम होती हैं वहीं दूसरी ओर मछुवारा जातियों केवट निषाद जैसी जातियां है जिनकी आय बेहद साधारण होती है। कमोवेश यही हाल अति पिछड़ी जातियों का भी है। इन जातियों के बहुत सारे लोगों के पास या तो राशन कॉर्ड नहीं है या फिर कोरोनाकाल में आधारकॉर्ड लिंक न होने के चलते कैंसिल हो गया। जिनका नहीं हुआ उनका अंगूठा ही नहीं लगता। वहीं दूसरी ओर लगातार काम न मिल पाने, और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़ा होने के चलते निम्न मेहनताना पर काम करने के चलते व्यक्तिगत और पारिवारिक आय बहुत तुच्छ होती जिसके चलते ये लोग अपने बच्चों को पौष्टिक आहार नहीं दे पाते है जिसके चलते इनके बच्चों में एनीमिया जैसी बीमारियां आम है।

शंकरगढ़ की सपेरा बस्ती की रंजना और उनके दो बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। उन्हें देखकर ही मन करुणा और बेचारगी से भऱ आता है। रंजना बताती हैं दूध उनके बच्चों के लिये सपना है। 6 महीने के बच्चे को दुनिया का हर डॉक्टर दूध बताता है रंजना उसे नून रोटी खिलाती हैं। रंजना का राशन कार्ड नहीं बना है। साग सब्जी दाल खाती हो आप? पूछने पर संजना कहती हैं –“सिर्फ़ अनाज जुटा पाते हैं हम। साग सब्जी दाल इतना महंगा है कि कहां से ख़रीदे जब न काम है कोई न हाथ में पैसा। भीख में तो अनाज ही मिलता है न साहेब।”     

इलाहाबाद निवासी व मुसहर आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मुकुंद और लालती कहते हैं उनके बच्चों को दूध मिले वर्षों हो गये। दोनों का न तो आधार कार्ड बना है न राशन कार्ड। तो जाहिर है न उन्हें राशन मिलता है न दाल न तेल। न ही उनके बच्चे स्कूल जाते हैं। इस तरह उनके बच्चे मिड डे मील से भी वंचित हैं। ये लोग बगुला, और वनमुर्गी वगैरह पकड़कर खाते हैं। रोज़ दाल नहीं खाते। मालती देवी बताती हैं कि 7 लोगों के परिवार में एक पाव दाल ख़रीदकर ले आते हैं। दूसरे तीसरे दिन कभी एक टाइम दाल खाते हैं। किसी के खेत से बथुआ, चौराई तोड़कर बना लेते हैं। किसी के आलू वाले खेतों में जब वो लोग आलू बीनकर लेकर चले जाते हैं तो हम लोग वहां खेत से बचा खुचा आलू बीनकर ले आते हैं।

कौशांबी जिले के दादूपुर गांव की मिनता और उनके पति दिहाड़ी मजदूर हैं। मुख्यतः कृषि मजदूरी, मनरेगा मजदूरी पर उनका जीवन आश्रित है। मिनता के पास राशन कार्ड है। उनके परिवार में 6 छोटे छोटे बच्चे हैं। काम न मिलने पर ये लोग मांगकर खाते हैं। बैंक खाता खुला है, आधाकार्ड बना है। पर उन्हें न तो उज्ज्वला योजना का लाभ मिला, न स्वच्छ भारत योजना का, न आवास योजना का। मिनता बताती हैं कि उन्हें नहीं याद है उनके बच्चों को आखिरी बार कब दूध मिला था। मिनता कहती हैं दूध इतना महंगा है कि हमारे ख़रीदने के सामर्थ्य से बाहर है। फल कब खाया था आपके बच्चों ने आखिरी बार? पूछने पर मिनता बताती हैं कि फल में अभी हाल ही में हमने केला खाया था जब बहुत सस्ता था। कभी किसी के बाग़ या दरवाजे से गुज़रते हुये उनके पेड़ से अमरूद तोड़कर बच्चों को खिला दिया, ऐसे ही कभी बैर के सीजन में पेड़ से बैर तोड़कर खा लिया।

इलाहाबाद में पैथोलॉजी सेंटर चलाने वाले पवन यादव कहते हैं रोज़ाना फल खाना इस देश में सिर्फ़ उच्च वर्ग तक सीमित है। हां सेब, चीकू, अंगूर न सही लेकिन एक दशक पहले तक किसान वर्ग की पहुंच में आम, अमरूद, केला, पपीता, जामून, बैर, नाशपाती, लीची आदि फल था जोकि अब वो भी नहीं है। गांव में जिनके यहां पेड़ है वही पपीता, अमरूद, बैर जैसे फल खा पा रहे हैं। ग़रीब गुरबे के पास न जो ज़मीन है न पेड़ अतः उसके पास तो वो भी नहीं है। दूध के सवाल पर पवन यादव कहते हैं दूध तो पहले भी देश की 60 प्रतिशत आबादी की पहुंच से दूर था। अब सरकार ने दूध पर भी जीएसटी लगा दिया है तो दूध अब 20-30 प्रतिशत आबादी तक सिमट कर रह जायेगा। गांव में मध्य वर्ग और ग़रीब वर्ग जिनके पास रहने के थोड़ी ज़मीन है वो दुधारू जानवर पालते हैं जैसे कि भैंस गाय, बकरी आदि। लेकिन जिनके पास ज़मीन या रहने का ठिकाना नहीं है वो जानवर कहां रखेंगे। शहरों में तो दुधारू जानवर सिर्फ़ तबेले में होते हैं। और वहां दूध इतना महंगा है कि कंपनी कारखानों में काम करने वाले मजदूर और सेल्स मैन की पहुंच से वो दूर है।  

गांव में खेती किसानी करने वाले जगदीश पटेल दूध और फल खाने के सवाल पर कहते हैं कि पिछले पांच साल में साग, सब्जी, दाल, दूध सब तो थाली से ग़ायब हो गयी। बच्चों को खिलायें भी तो क्या। महंगाई इतनी बढ़ी है कि बस किसी तरह पेट भर ले रहे हैं। पौष्टिक खाने की बात करना ही एक स्वप्न है इस देश में।

कोरोना में दो साल स्कूल बंद रहने से मिड डे मील से वंचित रहे बच्चे

हालांकि सरकारी स्कूलों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों का दाख़िला नहीं होता। बावजूद इसके ये कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि कोरोना काल में पूरे 2 साल तक सरकारी स्कूल बंद रहे और इसके साथ ही बच्चों को मिलने वाला मिड डे मील भी बंद रहा। यहां यह बताने की ज़रूरत तो नहीं है कि ये बच्चे ग़रीब तबके से आते जिन्हें अपने घरों में भोजन मिलता है पर पौष्टिक आहार नहीं। सरकार ने 5 साल तक के शिशुओं में एनीमिया का आंकड़ा बताया है। यदि 5-12 साल के बच्चों में एनीमिया का आंकड़ा आये तो वो भी बहुत भयावह होगा।

एक आंगनवाड़ी वर्कर के पति भगौती प्रसाद पूछने पर बताते हैं कि पहले सरकारी स्कूलों में पोषाहार (पंजीरी) के पैकेट बच्चों को दिये जाते थे। जोकि बंद कर दिये गये। अब मिड डे मील चलता है। इस महंगाई में सरकार की ओर से जो बजट दिया जाता है उसमें बच्चों को पौष्टिक भोजन तो क्या ही दिया जा सकता है बस खानापूर्ति हो रही है।  

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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