सोनभद्र। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की रौप, घसिया बस्ती का माहौल इन दिनों बिल्कुल बदल गया है। एक समय था जब लोग अपने काम-धंधे में व्यस्त रहते थे, बच्चों की चहल-पहल और हंसी-खुशी से यह बस्ती गुलजार रहती थी, पर आज इस बस्ती में एक सन्नाटा पसरा हुआ है।
लोगों के चेहरों पर भय और असुरक्षा की छाया साफ नजर आती है। यहां के लोगों का जीवन पुलिस के अत्याचारों और झूठे आरोपों के कारण नारकीय हो चुका है। घसिया बस्ती कलाकारों का गांव है और यहां के लोग करमा नृत्य के चर्चित फनकार हैं, जो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के सामने अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं।
पुलिस के खौफ व आतंक के चलते करीब 69 लोग पलायन कर कर गए हैं, जिनमें ज्यादातर युवक और किशोर शामिल हैं। ये लोग साल में सिर्फ एक मर्तबा सोनभद्र आते हैं और पुलिस की नजरों से बचकर अपने परिवार के लोगों से मिलते हैं, फिर लौट जाते हैं।
ये वो लोग हैं जिन पर पुलिस ने ढेरों फर्जी मुकदमे लाद रखे हैं। खौफ और आतंक का आलम यह है कि पुलिस रोज घसिया बस्ती में रात में तीन-चार मर्तबा आती है, आदिवासियों के घरों में घुसती है, धमकाती है, मारपीट और तोड़फोड़ करती है और फिर लौट जाती है।
घसिया बस्ती के 39 वर्षीय रामसूरत, जो यहां के एक साधारण मजदूर हैं और अपने परिवार का भरण-पोषण मेहनत से करते हैं। इनका जीवन संघर्ष से भरी कहानी है। वह कक्षा आठ तक पढ़े हैं और अपनी रोजी-रोटी के लिए बस्ती में ही छोटे-मोटे काम करते हैं।
उनके परिवार में पांच बच्चे हैं, जिनमें से एक बेटे और एक बेटी का विवाह हो चुका है, जबकि तीन बच्चे अभी छोटे हैं। अपनी सीमित कमाई के बावजूद, वह अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं।
वह कहते हैं, “मेरे पिता स्वर्गीय रामलाल थे, मैंने बचपन से ही कड़ी मेहनत की है। मैं बस चाहता हूं कि मेरे बच्चे सुरक्षित और खुश रहें। लेकिन पुलिस के कारण आज मेरा परिवार भय के माहौल में जी रहा है।”
रामसूरत बताते हैं, “22 अक्टूबर 2024 की रात की बात है। मैं अपनी पत्नी के साथ घर में सोया था, रात के करीब एक बज रहे थे। अचानक दरवाजे पर जोर-जोर से आवाजें सुनाई दीं। जब तक हम कुछ समझ पाते, हमारे घर में छह-सात पुलिस वाले घुस आए।
सभी वर्दी में थे, आते ही वे गाली-गलौज करने लगे और बस्ती के लोगों का नाम पूछने लगे। मैंने कहा कि मुझे किसी का नाम नहीं पता, तब पुलिस ने मुझे, मेरे भाई राममूरत और मेरे रिश्तेदार कृष्ण देव को, जो नवडीहा से आए थे, जबरदस्ती अपने साथ ले जाने की कोशिश की।”
राममूरत ने इसका विरोध किया, तो पुलिस वालों ने उन्हें थप्पड़ मारकर चुप करा दिया। रामसूरत ने बताया, “मेरे भाई को थप्पड़ मारते हुए वे हमें गाड़ी तक खींच कर ले गए और चुर्क चौकी ले गए। वहां हमें रातभर हवालात में बंद रखा गया। पूरी रात हम तीनों के मन में बस यही सवाल था कि आखिर हमारी गलती क्या है?”
रामसूरत के परिवार वाले जब सुबह चौकी पहुंचे तो उन्होंने दरोगा से विनती की कि उनके लोग निर्दोष हैं। लेकिन चौकी में मौजूद दरोगा ने कहा, “यह लोग अब कचहरी से ही छूटेंगे।”
बहुत मिन्नतों और परिवार वालों के दबाव के बाद पुलिस ने उन्हें लगभग 11 बजे चौकी से रिहा किया। इस घटना से रामसूरत और उनका परिवार हिल गया। उनकी मानसिक, शारीरिक, और आर्थिक स्थिति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है।
पहले के झूठे आरोपों का इतिहास
रामसूरत के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जनवरी 2012 में भी एक झूठे आरोप के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया था। रामसूरत बताते हैं, “मैं लखनऊ एक कार्यक्रम में गया था, उसी दौरान सोनभद्र के पहाड़ी क्षेत्र में एक ट्रक से दो हजार रुपये और एक मोबाइल चोरी हो गए थे।
जब मैं वापस आया, तो पुलिस ने मुझे चोरी का आरोप लगाते हुए गिरफ्तार कर लिया और मिर्जापुर जेल में डाल दिया। मैंने उन्हें न्यूज पेपर और अन्य सबूत दिखाए कि मैं घटना स्थल पर नहीं था, बल्कि लखनऊ में एक कार्यक्रम में भाग ले रहा था, लेकिन पुलिस ने मेरी एक न सुनी। 25 दिन तक जेल में रहने के बाद मेरे परिवार वालों ने पैसों का इंतजाम कर मुझे जमानत दिलवाई।”
रामसूरत कहते हैं, “मुझे इस बात का बेहद अफसोस है कि जो जुर्म मैंने नहीं किया, उस मुकदमे की पैरवी आज भी मैं कर रहा हूं। यह सोचकर बहुत दुःख होता है।” रामसूरत बताते हैं कि पुलिस अब आए दिन बस्ती में आकर लोगों को परेशान करती है।
कोई भी वारदात हो जाती है, तो पुलिस बस्ती में आकर नौजवान लड़कों को घरों से खींचकर ले जाती है। उन्हें झूठे आरोपों में जेल में डाल देती है।
पुलिस उन पर आरोप लगाती है कि वे सरकारी जमीन पर रहकर चोरी करते हैं। इस प्रकार के आरोपों से बस्ती के लोगों का जीवन दूभर हो गया है। पुलिस का खौफ इस कदर बढ़ गया है कि लोग मजदूरी के लिए बाहर जाने से भी डरते हैं।
रामसूरत कहते हैं, “खाना, पीना और सोना तक हराम हो गया है। सभी के मन में एक अंजाना सा डर बना हुआ है। अगर यही हालात रहे, तो बस्ती के लोग पलायन पर मजबूर हो जाएंगे।”
रामसूरत और बस्ती के अन्य लोग चाहते हैं कि प्रशासन और स्थानीय पुलिस उनके प्रति सम्मानपूर्वक व्यवहार करें और उनके खिलाफ झूठे आरोप न लगाएं। वे यह भी चाहते हैं कि पुलिस की बर्बरता और उत्पीड़न पर रोक लगे।
रामसूरत की आवाज में दर्द है जब वे कहते हैं, “हम बस इतना चाहते हैं कि हमें शांति से जीने दिया जाए। हम पुलिस की यातनाओं के बिना अपने परिवार के साथ सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं।”
बच्चों, बूढ़ों, औरतों पर जुल्म
सोनभद्र से करीब डेढ़-दो किलोमीटर दूर, बनारस-रेणुकूट हाईवे के पास बसा एक छोटा सा गांव- रोप। इसी गांव के किनारे बसी है घसिया बस्ती, जहां कहानियां सिर्फ मिट्टी और पत्थरों में नहीं, बल्कि दर्द और संघर्ष में रची-बसी हैं।
आज से करीब 24-25 साल पहले इस गांव में एक भयानक त्रासदी हुई थी, जिसने यहां के लोगों की आत्मा में एक स्थायी घाव छोड़ दिया। भूख से बिलखते इस गांव के 18 मासूम बच्चों ने ज़िन्दगी की कड़वाहट में चकवड़ का जहरीला पौधा खा लिया और एक-एक कर दुनिया से चले गए।
उनकी याद में एक छोटा स्मारक आज भी खड़ा है, जिसे बनारस की मानवाधिकार जन निगरानी समिति ने बनवाया था, मानो ये स्मारक हर रोज़ उन बच्चों की चीत्कार सुनाता है।
यह बस्ती है घसिया जनजाति की, जिनका अतीत कभी राजाओं और सामंतों के लिए घास काटने में गुज़रा। घसिया समाज का ‘करमा नृत्य’ उनकी रूह की आवाज है, उनकी पहचान है, जो पीढ़ियों से सहेज कर रखी गई है।
ये मेहनतकश लोग आज भी अपने हाथों से मजदूरी करते हैं, लेकिन उनके जीवन में अब एक नया खौफ दस्तक दे चुका है।पुलिस का आतंक और ज़मीन से बेदखली का डर।
इस बस्ती की एक बुजुर्ग महिला दुलारी के जिक्र करते ही लोगों की आंखें भर आती हैं। दुलारी बताती हैं, “हम सालों से इस जमीन पर हैं। पुलिस ने हमें बहुत मारा-पीटा। बच्चों, बूढ़ों, औरतों पर जुल्म ढाए। 2000 में जब हमारे 18 बच्चे भूख से मरे थे, तब मानवाधिकार जन-निगरानी समिति के लोग आए।
उन्होंने हमारी मदद की, हमें राशन दिया, बच्चों के लिए स्कूल की व्यवस्था कराई। अब भी हमारी ज़मीन का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। हमारे पास इसके कागज़ हैं, लेकिन हर दिन हमें उजाड़े जाने का खतरा और पुलिस का डर सताता है। आखिर हम जाएं तो कहां जाएं?”
दर्द भरी कहानी रुक्मिणी की भी है, जो पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार हो चुकी हैं। वह कहती हैं, “पुलिस ने मेरे बेटे को इतना मारा कि उसका हाथ टूट गया। मैं शिकायत लेकर थाने गई, लेकिन मेरी आवाज़ कहीं नहीं सुनी गई।
घटना के समय बारिश हो रही थी, मैं अपने बच्चों को लेकर कहां जाती? हमने अपने पेट काट-काटकर झोपड़ी बनाई है, और अब प्रशासन इसे तोड़ने की तैयारी में है। पुलिस आए दिन हमें मारती-पीटती है, चोरी-लूट के झूठे इल्ज़ाम लगाती है। ये कैसी न्याय की व्यवस्था है?”
घसिया बस्ती के लोग भूख से मरते बच्चों की यादें और अपनों पर होते पुलिस के जुल्म का दर्द सीने में दबाए जी रहे हैं। इसी बीच हमारी मुलाकात फुलवा से होती है। उसकी आवाज़ में टूटी हुई आस और बेबसी साफ झलकती है। उसने बताया, “पुलिस हमारी बस्ती में दिन में कई बार आती है। मोबाइल और पैसे छीन लेती है।
मेरा आदमी गुज़र गया, कोई बेटा भी नहीं है। विधवा और विकलांग हूं, फिर भी पेंशन नहीं मिलती। कहां जाएं, कैसे जिएं? भले ही खाने-पीने के लिए मोहताज हैं, लेकिन पुलिस के डंडे हर रोज़ झेलने पड़ते हैं।”
आंखों में असीम दर्द और गहरी उदासी
लैला की आंखों में एक गहरी उदासी और बेबसी साफ झलकती है। मज़दूरी कर के अपने बच्चों का पेट पालने वाली इस महिला का सहारा, उसके पति लालब्रत, पुलिस के डर से गांव छोड़ने पर मजबूर हो गए। लालब्रत अब मुज़फ्फरनगर में किसी किसान के यहां गन्ने की कटाई और खेती का काम करते हैं। लैला की आवाज़ में दर्द साफ सुनाई देता है।
वह बताती हैं, “जब वो गांव में थे, पुलिस अक्सर उन्हें थाने ले जाती थी। मार-पीट कर कुछ पैसे वसूलने के बाद ही छोड़ती थी। जिले में कहीं भी चोरी होती, तो पुलिस उन्हें उठा ले जाती। जब कभी अपनी बहादुरी दिखानी होती, तो हमारे पति को पकड़ लेती। आखिरकार, लाचार होकर उन्हें गांव छोड़ना पड़ा।”
सविता के पति विजय का भी यही हाल है। पुलिस के खौफ से वह भी मुज़फ्फरनगर में गन्ने की कटाई-छिलाई का काम करने लगे हैं। सविता का दिल अपने पति की याद में तड़पता है। वह बताती हैं, “हमारी बस्ती के 65-70 लोग इसी डर से गांव छोड़ चुके हैं।
साल में बस एक बार लौटते हैं, रिश्तेदारों के घर ठहरते हैं। हम उनसे मिलने जाते हैं। पुलिस का खौफ इतना गहरा है कि अक्सर हमें रात जंगल में बितानी पड़ती है। पुलिस वाले हमारे बर्तन तक तोड़ देते हैं।”
सविता की आंखों में असीम दर्द और गहरी उदासी है। वह पुलिस के अत्याचार की अनगिनत कहानियाँ सुनाती हैं। “अगर आदमी नहीं मिलते, तो खाकी वर्दी वाले औरतों और बच्चों को पीटते हैं। खाने-पीने का सामान तहस-नहस कर देते हैं। मोबाइल छीन लेते हैं। जवान बहू-बेटियों के साथ बदसलूकी भी करते हैं। ये जुल्म कहां जाकर खत्म होगा?”
इस बस्ती के रुद्र और कन्हैया भी अपने परिवारों से दूर पलायन कर चुके हैं। रुद्र की पत्नी तारा कहती हैं, “वो मई-जून में आने का कहते हैं। बात करने के लिए एक पुराना बटन वाला फोन है, पर पुलिस बार-बार उसे छीन लेती है। रसीद मांगती है, और दिखाने पर फाड़ कर फोन ले जाती है।
धमकाती है कि अगर बोलोगे तो झूठे केस में जेल भेज देंगे।” चंदा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उनके पति कन्हैया दिल्ली चले गए, पुलिस की मारपीट सहने से बेहतर उन्हें गांव छोड़ना लगा। कभी-कभी फोन पर बात होती है, तो कुछ पैसे भेज देते हैं।”
पुलिस के खौफ से पलायन कर चुके मिट्ठू इस बार दिवाली मनाने घर लौटे हैं। उनकी आंखों में पुरानी पीड़ा और असहायता की परतें साफ दिखाई देती हैं। जब उनसे मुलाकात हुई, तो आंसू थामे नहीं थम रहे थे। टूटे शब्दों में बोले, “हमारी बीवी-बच्चे गांव में हैं और हम बाहर। गांव में ज्यादा दिन ठहर नहीं सकते।
पुलिस पकड़ लेगी और फिर किसी फर्जी केस में फंसा कर जेल भेज देगी। मुज़फ्फरनगर में एक किसान के यहाँ गन्ने के खेतों में काम करते हैं। वहाँ 7500 रुपये मिलते हैं। पुलिस के डंडे खाने और झूठी बेइज्जती झेलने से अच्छा है कि वहां मजदूरी ही कर लें।”
प्रतापी की आंखों में दर्द का समंदर
प्रतापी देवी का दुखड़ा सुनने के लिए दिल चाहिए। उनकी आंखों में करुणा और पीड़ा का समंदर उमड़ पड़ा। कहती हैं, “मेरे पति भी पुलिस के डर से गांव छोड़कर मुजफ्फरनगर चले गए हैं। गन्ने की खेती करते हैं। हमारा 13 साल का बेटा रोहित भी उनके साथ है। उन्हें डर था कि कहीं पुलिस उसे भी फर्जी केस में फंसा न दे।
हमारे सात बच्चे हैं, सभी छोटे। जो पैसे पति भेजते हैं, उससे किसी तरह दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो पाता है। हमारे पास कोई रोजगार नहीं, कोई सहारा नहीं। ज़िन्दगी बस एक परेशानी से दूसरी परेशानी तक का सफर बन चुकी है। पुलिस अक्सर आती है, पति और बेटे के बारे में पूछताछ करती है। मार-पीट और तांडव कर जाती है।”
घसिया बस्ती में दर्द की कहानी हर चेहरे पर उभरती है। उनके पास न तो जीने का सहारा है, न अपनी बात सुनने वाला कोई। उनकी ज़िंदगी एक ऐसी लड़ाई में तब्दील हो चुकी है, जिसमें हर दिन उन्हें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। घसिया बस्ती के लोगों के दिलों में पुलिस का खौफ और बिछड़ने का दर्द घर कर चुका है।
अपनों से दूर ये लोग केवल पेट की आग बुझाने नहीं, बल्कि पुलिस के जुल्म से बचने के लिए पलायन कर गए हैं। उनके चेहरों पर दर्द की ऐसी लकीरें हैं, जो शायद ही कभी मिट सकें। घसिया बस्ती की यह कहानी केवल शब्दों में नहीं, आंसुओं और दर्द में लिखी हुई है।
पुलिस का भय, अपनों से दूर होने का दर्द और जीने की बेसहारा जद्दोजहद ने इन परिवारों की ज़िन्दगी को एक अंतहीन संघर्ष बना दिया है।
घसिया बस्ती के धरमू, लाला, श्रीराम, मदन और ओमप्रकाश जेल में हैं। किसी के ऊपर चोरी का केस है तो किसी पर तमंचा रखने का। कोई गांजा का कुसूरवार है। कुछ पर छिनैती का आरोप है। बैजनाथ के पुत्र प्रेम कहते हैं, “हमारी समूची बस्ती करमा नृत्य की कलाकार है।
घसिया कलाकारों की बस्ती है और पुलिस हमें अपराधी बनाने पर तुली है। जब कभी गुडवर्क दिखाना होता है तो बस्ती के दो-चार लड़कों को पकड़कर ले जाती है। मार-पीटकर जबरिया जुल्म कबूलवाती है और जेल भेज देती है। जो लोग सुविधा शुल्क दे देते हैं उन्हें पुलिस थाने से भी छोड़ देती है।”
“गांव के ज्यादातर अंगूठाटेक हैं। किसी को पढ़ने-लिखने नहीं आता है। निरक्षर होने के कारण पुलिस जहां अंगूठा लगाने के लिए कहती हैं, बस्ती के लोग लगा देते हैं।
हम तो यह भी नहीं जानते ही पुलिस जहां हमारा अंगूठा लगवाती है उसमें लिखा क्या है? हर समय हमारी आंखों में पुलिस का खौफ नाचता रहता है। जिस रोज पुलिस ज्यादा मारपीट करती है हम नाच-गाना भूल जाते हैं। बस्ती में खामोशी छा जाती है।”
प्रेम यह भी बताते हैं, “पुलिस का तांडव हमारी जिंदगी में जहर घोल रहा है। खाकी वर्दी वाले हमारे साथ मारपीट तो करते ही हैं, जबरिया हमारा वीडियो भी बनाते हैं। समूचे सोनभद्र में चोरी कहीं भी होती है, पुलिस सबसे पहले घसिया बस्ती में पहुंचती है। जितना कमाकर लाते हैं, पुलिस सब कुछ छीन लेती है।
जब से हमारी बस्ती नगर पालिका के दायरे में आ गई है, तब से मुश्किलें और ज्यादा बढ़ गई हैं। पुलिस वाले गांव के लड़कों को सड़क पर देखती है तो पहले पीटती है और उठाकर ले जाती है। हमारे घरों का हंडिया कुंडा तक तोड़फोड़ देती है।”
जंगल छिन गया और आजादी भी
करमा आदिवासी दो-ढाई दशक पहले जंगलों से निकलकर इस वीरान इलाके में बस गए थे। उनके पास सिर्फ खास-फूस की झोपड़ियां थीं, और सपने इतने छोटे कि बस एक वक्त की रोटी मिल जाए। भूख, गरीबी, और बीमारी का पहाड़ सा बोझ उठाए, वे घसिया बस्ती में अपनी जिंदगी का एक छोटा सा सहारा तलाश रहे थे।
समय बीता, लेकिन उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। उन्हें ना तो पर्याप्त सुविधाएं मिलीं, और ना ही उनके पास लौटने का विकल्प बचा। जंगलों की आजादी उनसे छिन चुकी है, और जो यहां हैं, वह उनके लिए किसी कैद से कम नहीं।
घसिया बस्ती की गायत्री कहती हैं, “पहले तो हम आदिवासी महिलाएं जंगल में अकेले भी जाती थीं। अब पुलिस की वजह से जंगलों में घुसने के लिए भी डर लगता है। हमारे मर्द भी जंगल में जाते हैं। वहां पुलिस के लोग मिलते हैं तो हमारे लोगों को पकड़ कर कैंप में ले जाते हैं।
वहां लाठियों से मारते पीटते हैं। जब आदिवासी कुछ नहीं बोल पाते हैं तो चोर-लुटेरा होने का आरोप लगाते हैं और जेल भी भेज देते हैं। अब डर की वजह से दो तीन लोग जमा होकर लकड़ी लेने जंगल जाते हैं।”
गायत्री पूछती हैं, “रात में हर रोज दो-तीन बार पुलिस हमारी बस्ती में घुसती है। लाइट चमकती है तो हम डर जाते हैं। पुलिस वाले बेधड़क हमारे घरों में घुसती है। तलाशी लेती है और पूछताछ के नाम पर उत्पीड़न शुरू कर देती है। कुछ दिन पहले मेरे गांव का एक लड़का अपने पिता के साथ पास की सड़क पर दौड़ लगाने गया था।
चेक पोस्ट में तैनात पुलिसवाले बोल रहे थे। तुम लोग लूटपाट करते हो। सड़क पर मत निकला करो, नहीं तो जेल में ठूंस देंगे। मैं कुछ जवाब देता पुलिस वालों ने मुझे धमकाते हुए कहा ज़्यादा मत बोल नहीं तो…।”
इसी बस्ती की अनारा कहती हैं कि बाज़ार या पास के कस्बों में जाने पर आदिवासी युवकों और युवतियों को इसी तरह का सामना करना पड़ता है। “पुलिस और मीडिया ने हमें इतना बदनाम कर दिया है को बाजारों में लोगों को जब यह पता चलता है कि हम घसिया बस्ती के हैं तो हमारे साथ बदसलूकी शुरू कर देते हैं।
हमें चोर-उचक्का समझा जाने लगता है। कोई नक्सली कहकर हमें परेशान करता है। लोग मुझे बोलते हैं तुम लोग चोर-लुटेरे हो।”
3 जुलाई 2024 की रात, जब घसिया बस्ती के लोग गहरी नींद में थे, तभी लगभग दो बजे एक दरोगा और आधा दर्जन पुलिसकर्मी अचानक बस्ती में घुस आए। बिना किसी चेतावनी के, उन्होंने घरों में सो रही महिलाओं को जबरदस्ती खींचकर लाठी-डंडों से पीटना शुरू कर दिया, जिससे कई महिलाएं गंभीर रूप से घायल हो गईं।
पुलिस ने घरों के अंदर रखा सामान भी तहस-नहस कर दिया। इस बर्बर हमले के बाद, कई महिलाएं इतनी घायल हो गईं कि वे ठीक से चल-फिर भी नहीं पा रही थीं, और उनके इलाज का कोई इंतजाम नहीं किया गया।
इससे पहले, 11 जुलाई 2024 को, बस्ती के चार युवकों को पुलिस ने किसी मामले में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। इसके बावजूद, पुलिस ने गैरकानूनी ढंग से आधी रात को बस्ती में धावा बोला और महिलाओं के साथ बर्बर अत्याचार किया।
इस घटना से आक्रोशित होकर, घसिया बस्ती के लोगों ने सोनभद्र में जिलाधिकारी कार्यालय और पुलिस अधीक्षक कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया।
सोनांचल संघर्ष वाहिनी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोशन लाल यादव के नेतृत्व में ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन एसडीएम को सौंपते हुए विरोध प्रदर्शन किया।
घसिया बस्ती के निवासियों का कहना है कि वे वर्षों से इस भूमि पर रह रहे हैं, लेकिन प्रशासन उन्हें अवैध कब्जेदार मानता है। उनका आरोप है कि पुलिस और प्रशासन उन्हें यहां से हटाने के लिए लगातार उत्पीड़न कर रहे हैं।
बस्ती के लोगों का कहना है कि उन्हें कहीं और बसाने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है, और वे अपने घरों से बेदखल होने के डर में जी रहे हैं।
घसिया बस्ती के आदिवासियों की जिंदगी हमेशा एक संघर्ष रही है। पिछले दो दशक से इनकी लड़ाई का हिस्सा बने एक्टिविस्ट एवं एडवोकेट आशीष पाठक कहते हैं, “यहां औरतों के साथ-साथ पुरुष भी सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं को हर वक्त अपनी इज्जत की चिंता सताती है, तो पुरुषों को झूठे मुकदमों में फंसाए जाने का डर।
पुलिस की गाड़ी या किसी अफसर को बस्ती की तरफ आता देख, बच्चे और नौजवान दौड़कर छिपने लगते हैं। ऐसा लगता है मानो उनके अपने ही गांव में पराए हो गए हों।
प्रशासन का इन लोगों के प्रति रवैया हमेशा ही दोयम दर्जे का रहा है। वे अपने ही देश में बेगाने महसूस कर रहे हैं, जहां उनके साथ इस तरह का बर्ताव हो रहा है। उनका सवाल है कि आखिर वे जाएं तो कहां जाएं, और उनकी सुनवाई कौन करेगा?”
एक तरफ सरकारी वेबसाइटों पर इनके करमा नृत्य को भारतीय संस्कृति का हिस्सा बताकर दुनिया भर में प्रचारित किया जाता है, इनकी कला को महान बताया जाता है।
लेकिन वहीं दूसरी तरफ, इन्हीं कलाकारों के साथ ऐसा सुलूक किया जा रहा है जैसे वे मुजरिम हों। एडवोकेट आशीष कहते हैं, “यह सोच पाना भी मुश्किल है कि ऐसे माहौल में ये कला और ये लोक कलाकार कब तक टिक पाएंगे?”
घसिया बस्ती में पुलिस के आतंक और उत्पीड़न का दर्द बहुत ज्यादा है। बस्ती के लोगों के मन पर जो घाव हैं, उनमें से अब मवाद रिस रहा है, जो लाइलाज बनता जा रहा है। इनकी दारुण कहानियां कोई सुनने के लिए तैयार नहीं है।
पुलिस उत्पीड़न की कहानी सिर्फ घसिया बस्ती तक सीमित नहीं है। खाकी वर्दी का खौफ समूचे सोनभद्र में है। खासतौर पर जनजाति और दलित समुदाय के लोगों को पुलिस सता रही है। निर्दोष होने के बावजूद मारपीट और जेल भेजने का अंतहीन सिलसिला जारी है।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। सोनभद्र से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)
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