ग्राउंड रिपोर्ट : मध्यप्रदेश में ज़मीन का पट्टा ना मिलने की समस्या से क्यों जूझ रहे आदिवासी!

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मध्यप्रदेश। देश में सबसे अधिक आदिवासी आबादी मध्यप्रदेश में निवासरत है। प्रदेश में बहुत से आदिवासी लोगों की आजीविका का साधन जमीन है। जमीन पर ही आदिवासी पीढ़ियों से कृषि करके अपना पेट पाल रहे हैं। खेती-किसानी से उनका पारंपरिक नाता है। इसलिए आदिवासी वर्ग की एक पहचान कृषि भी है। मगर, आदिवासी लोग अपने कृषि कार्य में विभिन्न चुनौतियों से घिरे रहते हैं। इन्हीं चुनौतियों में से एक मुख्य चुनौती है जमीन पर मालिकाना हक का ना होना। 

यह कहानी आदिवासी वर्ग के जमीन पट्टे के संघर्ष की कहानी है। 

देश का हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में आदिवासी वर्ग पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती करता आ रहा है। लेकिन, वन भूमि का पट्टा हासिल करना उनके लिए चुनौतीपूर्ण है। जबकि, वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों को वन भूमि और संसाधन अधिकार प्रदान करके ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने का प्रयास करता है। इसके बावजूद बहुत से आदिवासी लोग वन भूमि का पट्टा प्राप्त करने में असमर्थ है।

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 200 किमी दूर स्थित है सागर जिला। यहां का आदिवासी वर्ग जमीन पट्टा के लिए रैली और धरना कर चुका है। 

सागर से करीब 50 किमी दूर बंडा विधानसभा के अंतर्गत जब हमने कुछ गांवों का दौरा किया। तब हम पहले बिलेनी गांव पहुंचे। इस गांव की आबादी करीब 1000 है। गांव में बहुत से आदिवासी भी निवासरत है। कुछ आदिवासी लोगों से हमने वन भूमि के पट्टे पर बातचीत की। 

40 वर्षीय लखन आदिवासी बयां करते हैं कि, ‘हमारे परिवार में 9 सदस्य हैं। हम 3 एकड़ वन भूमि पर पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। हमारे खेतों तक टैक्टर जैसे साधन नहीं जा पाते। तब हम बैल‌ और लकड़ी के बखर के सहारे खेती जोतते हैं। तब भी वन‌ विभाग कई बार हमारी पानी मशीन जब्त कर लेता है।

बिलेनी में गांव 100 आदिवासी परिवार निवास करते हैं। इनमें बहुत से परिवारों की हालत मेरे जैसी है। हम आदिवासी लोग वन भूमि का पट्टा पाने के लिए अधिकारियों से लेकर विधायक तक के चक्कर लगा चुके हैं। लेकिन, हमें पट्टा नहीं दिया गया है।, 

बिलेनी गांव के ही वीरन सौर आदिवासी हमें बताते हैं कि, ‘हम 25 सालों से वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं। इससे पहले हमने वन‌ भूमि को कृषि करने योग्य बनाने के लिए 5 साल मेहनत की। तब हम कृषि शुरू कर पाए। वन भूमि की जगह पर ही  हम अपने पशुओं का भरण-पोषण करते हैं’।

‘लेकिन, वन भूमि पर खेती करते आ रहे आदिवासी लोगों और वन विभाग के बीच विवाद की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में वन विभाग ने कई बार वन भूमि पर बनी मेरी झुग्गी भी तोड़ दी है। हमारे खेती के संसाधनों को भी उठाने की कोशिश की जाती है। यह सब हम देखते रहते हैं। वन भूमि का पट्टा न मिलने से हमारे लिए सबसे बड़ी परेशानी यह है कि, हम जमीन पर अपना हक नहीं जता पाते हैं।, 

बिलेनी गांव की ग्रामीण आदिवासी भागबाई बयां करती हैं कि, ‘वन का पट्टा ना होने से हमें कई समस्याएं होती हैं। अभी कुछ महीने पहले वन विभाग ने हमारी जमीन की चकबंदी पर बुलडोजर चला दिया था। जिससे चकबंदी प्रभावित हो गयी थी। इस वर्ष हमें फसल भी नहीं बोने दी गयी‌‌।

वन‌ विभाग दावा करता है कि, आप जिस जमीन पर खेती करते हैं वह सरकारी है। इसलिए, जमीन पर खेती मत करिए‌। लेकिन, हम इस जमीन पर अपनी पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। हम पट्टा के दावेदार हैं। फिर भी हमें पट्टा नहीं मिलता‌।, 

आदिवासी जानकी बाई अपनी बात रखते हुए कहतीं हैं कि, ‘ हम पीढ़ियों से जमीन पर कृषि कर रहे हैं। मगर, जमीन का पट्टा नहीं है। ऐसे में हम कैसे कह सकते है कि, इस जमीन पर हमारा हक है? इस स्थिति में वन विभाग हमारी फसल तक उजाड़ देता है और हम कुछ कह तक नहीं पाते।,

आगे हम पहुंचे गौंदई गांव। गांव की जन जनसंख्या लगभग 1000 होगी। गांव के गोकल अपनी समस्या को लेकर कहते हैं कि,  ‘मैं 30-35 साल से वन विभाग की जमीन पर कब्जा किया हुआ हूं। लेकिन, इस जमीन पर अब तक किसान सम्मान निधि, समर्थन मूल्य जैसी किसी भी सरकारी योजना का हमें लाभ नहीं मिलता है। जिसकी वजह है जमीन का पट्टा न मिलना।,  

गांव के मोती आदिवासी बतलाते हैं कि, ‘वन भूमि पर खेती करते-करते मेरे पिताजी गुज़र गए। अब हम खेती कर रहे हैं। पर अब तक पट्टा नहीं मिला। वन भूमि का हमने मुआवजा भी भरा है। जिसकी रसीद भी हमारे पास है। मगर, फिर भी जमीन का पट्टा नहीं दिया जा रहा।,

मोती की बोल थमते नहीं की मोहन बोल पड़ते है। वे कहते हैं कि, ‘वन भूमि पर खेती करते-करते सर के बाल भूरे हो गए। उम्र 65 हो गई है तो पेंशन भी मिलने लगी। लेकिन नहीं मिला तो वह है जमीन का पट्टा। अब हमको तो लगता है कि, इस जन्म में तो ज़मीन का पट्टा मिल ही नहीं पायेगा।,

सागर के कई गांव में भू-अधिकार पर कार्य कर रहे जय कुमार आदिवासी (एकता परिषद के कार्यकर्ता) वनाधिकार पट्टों को लेकर अपना‌ विचार रखते हैं। जय कहते हैं कि, ‘आदिवासी वन भूमि पर पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। उन्हें आशा है कि, जमीन का पट्टा मिलने से वो निश्चिंत होकर खेती कर पाएंगे। लेकिन, आज स्थिति यह है कि, वनाधिकार पट्टों को लेकर शासन-प्रशासन टालमटोल करने में लगा हुआ है। जिससे लोगों को पट्टा नहीं मिल पा रहा है।,

जय आगे कहते हैं कि, ‘वन भूमि पट्टा मिलने से बेरोजगारी, पलायन, सरकारी राशन निर्भरता जैसी चुनौतियां समाप्त होंगी और लोगों को स्थाई कृषि रोजगार मिलेगा। वनाधिकार के दावे बड़े पैमाने पर लंबित पड़े हैं। इन दावों का अच्छी नीति के साथ निराकरण किया जाना चाहिए। ताकि, पात्र लोगों को वन भूमि पट्टा मिल सके।,  

वन भूमि पट्टे के लिए बुजुर्ग का कथन‌ 

सागर में वन भूमि पट्टा पाने के लिए बुजुर्ग लोगों ने अपने कथन भी लिखे हैं। इन कथनों में से एक कथन सेमरा अहीर गांव के निवासी खलक यादव ने भी लिखा है। इस कथन में लिखा गया कि, मैं खलक यादव उम्र 69 वर्ष निवासी सेमरा अहिर गांव का वरिष्ठ व्यक्ति हूं। अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक वननिवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, नियम 2008 व संशोधित अधिनियम 2012 के अनुसार गठित वन अधिकार समिति के अध्यक्ष/सदस्य/सचिव/के समक्ष बयान देता हूं कि, वन भूमि धारक राजाराम निवासी सेमरा अहिर को मैं विगत 50 वर्षों से जानता हूं। उपरोक्त वन भूमि धारक व्यक्ति मेरे पूर्ण परिचय का है। 

कथन में आगे लिखा गया कि, भूमि धारक पहले से हमारे गांव का निवासी है। 13 दिसंबर 2005 से बहुत पहले से इस व्यक्ति की वन भूमि खेती के लिए, झोंपड़ी व घर बनाकर रहने हेतु 2 हेक्टेयर भूमि नियमित रूप से अतिक्रमण की गई है। तभी से इस व्यक्ति को खेती करते हुए, झोंपड़ी, घर का उपयोग करते हुए, मैं (खलक यादव) देख रहा हूं। इस प्रक्रिया का मैं प्रत्यक्ष गवाह हूं। इस वन भूमि धारक व्यक्ति का अधिकार बहुत पुराना है। इसलिए उक्त अधिकार 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व होने का मैं लिखित बयान दे रहा हूं। 

इसके आगे कथन में वर्णित है कि, मैं (खलक यादव) गांव का वरिष्ठ व्यक्ति हूं और अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 की धारा 3 की उप धारा 1 (क) के अनुसार ऐसे वन भूमि धारक को रहने के लिए/जीवन निर्वाह के लिए/ वन‌ भूमि प्राप्त करने और उस पर रहने का अधिकार दिया गया है।

इसी प्रकार इसी अधिनियम के अध्याय 3 के अंतर्गत धारा 3 के निर्देशानुसार वन भूमि पर अधिपत्य 13 दिसम्बर 2005 से पहले का होने के कारण इस अधिनियम के अंतर्गत व्यक्तिगत वन अधिकार मान्य करने हेतु पात्र है। ऐसा बयान वन अधिकार समिति के अध्यक्ष/सदस्य/सचिव के समक्ष मैं (खलक यादव) लिखित में दे रहा हूं। 

वन पट्टा प्राप्त करने के लिए ऐसा ही बुजुर्ग कथन गौदई गांव के बुजुर्ग रामजी ने लिखा है। बुजुर्ग कथन के दस्तावेज पर दिनांक 31/07/2022 अंकित है। इस कथन में भी पात्र लोगों के लिए वन भूमि पट्टा देने की गुहार लगाई गई।

वहीं, वन भूमि पट्टा प्राप्त करने के लिए बंडा विधानसभा के गोपाल, रामेश्वर, पप्पू, रामकिशुन, भगतसिंह, जन प्रसाद जैसे कई लोगों ने वन भूमि पट्टा दावा प्रस्तुत किया है। ज़िन्हें प्रस्तुत वनाधिकार दावे की पावती भी मध्यप्रदेश वन मित्र पोर्टल के जरिए प्राप्त हुयी है। अब वे जमीन पट्टा पाने के लिए आशान्वित हैं। 

ग्रामसभाओं ने लिखे प्रस्ताव 

जमीन पट्टा के लिए सागर के कई ग्रामों की ग्रामसभाओं ने प्रस्ताव भी लिखे। इन्हें ग्रामसभाओं में से एक चितोली ग्रामसभा भी है। जमीन पट्टा के लिए चितोली ग्राम सभा प्रस्ताव लिखती है कि, दिनांक 28/06/2023 को ग्राम सभा की बैठक में उपस्थित सदस्यों द्वारा प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया कि, वन भूमि पर दिनांक 31/12/2005 के पूर्व से आज दिनांक तक लगातार काबिज़ होने के कारण दावा मान्य किया जाता है। जो कृषि पर कब्जा किये हुए हैं वो निम्नानुसार है:- कमल गौंड, मोहन गौंड और राजेंद्र गौंड। इस बैठक के दस्तावेज पर सरपंच, सचिव सहित अन्य अधिकारी के हस्ताक्षर हैं। 

ऐसे ही जमीन पट्टे के लिए एक प्रस्ताव सेमरा अहीर पंचायत की ग्राम सभा ने लिखा। प्रस्ताव पर दिनांक 30/06/2023 अंकित है। इस प्रस्ताव में राधका, कोमल बाई, प्रहलाद, हल्के भाई, मुन्नीबाई समेत 10 लोगों के नाम दर्ज हैं। ग्राम सभा इन लोगों को वनाधिकार पट्टा के लिए मान्य करती है। इस प्रस्ताव पर भी सरपंच, सचिव और अधिकारी के हस्ताक्षर हैं। 

पट्टे के लिए ज्ञापन पत्र

जमीन पट्टे के लिए भू-अधिकार पर कार्यरत संस्था एकता परिषद ने एक पत्र दिनांक 18/10/2024 को जिला‌ न्यायाधीश सागर को लिखा। इस पत्र में वर्णित है कि, जिला सागर के बंडा, राहतगढ़, देवरी मालथौन, खुरई, शाहगढ़ तहसीलों के ग्राम सेमरा अहिर, क्यारा, बिलहनी, गोपालपुरा सहित समस्त गांवों के आदिवासीगण वन भूमि पर कई वर्षों से मेहनत कर खेती करते आ रहे हैं। वन मित्र पोर्टल पर आदिवासियों ने व्यक्तिगत और सामुदायिक आवेदन (पट्टे के लिए) भी किये हैं। लेकिन, हमारी जमीन पर प्लान्टेशन कर हमें बेदखल‌ किया जा रहा है। वहीं, बंडा, राहतगढ़ सहित 6 तहसीलों का (वनाधिकार) दावा लंबित हैं। 

वनाधिकार पट्टा को लेकर एकता परिषद ने एक पत्र 20/01/2023 को सागर की बंडा विधानसभा के विधायक को लिखा। पत्र में उल्लिखित है कि, वनाधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत आदिवासियों और वन निवासियों को व्यक्तिगत अधिकार पत्र दिये जायें। वहीं, वनाधिकार का सामुदायिक अधिकार भी दिया जाए। 

जमीन पट्टे के संघर्ष की कहानी केवल सागर तक सीमित नहीं हैं। सागर के अलावा भी कई जिले के लोग जमीन पट्टे के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। इन्हीं जिलों में एक जिला मंडला भी है। यहां के आदिवासी लोग भी जमीन पट्टे के लिए अनुविभागीय अधिकारी मंडला को आवेदन लिख चुके हैं। इस आवेदन का अंश इस प्रकार है: 

यह आवेदन मध्यप्रदेश सरकार की मंशा अनुसार 13 दिसम्बर 2005 के पूर्व से वनभूमि में काबिज लोगों को वन अधिकार पत्र दिलाए जाने के संदर्भ में है। आवेदन में वर्णित है कि, हम समस्त आवेदकगण ग्राम सिमैया, ग्राम पंचायत सिंगापुर, जिला मंडला के मूल निवासी हैं। हम पिछली कई पीढ़ियों से गांव में निवास और खेती  करते आ रहे हैं। जिससे हमारे परिवार का पालन पोषण होता है।

पत्र में आगे जिक्र है कि, सन् 2006 में वन अधिकार अधिनियम आने से हमने दावा फार्म भरा है। वन अधिकार पत्र हेतु 2010 से निरंतर कार्यवाही चल रही है। जबकि ग्राम सभा से संकल्प पारित करवाकर एवं गांव के बुजुर्गों का कथन एवं सभी साक्ष्य लगाकर दावा पेश कर चुके हैं। इस वन भूमि को कृषि योग्य बनाने में हमारा काफी श्रम व धन लगा हुआ है। 

पत्र में आगे वर्णित है: काबिज वन भूमि का संबंधित विभाग द्वारा भौतिक निरीक्षण किया जा चुका है। 

फिर, पत्र में लिखा गया कि, महोदय जी, से निवेदन है कि हम सभी दावेदारों की अर्जी को अपने संज्ञान में लेते हुए हमें वन अधिकार पत्र दिलाने की कृपा करें। इन वन अधिकार दावेदारों में बलमत, इमरत, चरणलाल और मनीराम सहित 12 लोगों के नाम शामिल है।  

वन अधिकार पत्र की मांग को लेकर इसी तरह चुभावल ग्राम पंचायत के आदिवासी लोग सामूहिक आवेदन  कलेक्टर (मंडला) को लिख चुके हैं। इस आवेदन पत्र में राजकुमार, लल्लु, सुखदेव और बुधियाबाई सहित 11 लोगों के नाम दर्ज हैं। 

वास्तव में, वन भूमि पट्टा की मांग गुना जिले का आदिवासी वर्ग भी कर रहा है। गुना जिले के सहरिया आदिवासियों को वन भूमि पट्टों की प्राप्ति हेतु देश व्यापी संगठन एकता परिषद के गुना केंद्र ने मई 2022 को एक ज्ञापन पत्र कलेक्टर के नाम लिखा।

पत्र में बताया गया कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज हितग्राहियों ने (भूमि) अधिकार पाने के लिए आनलाईन आवेदन किये हैं।

यह आवेदन वर्तमान में ब्लाक स्तरीय कमेटी व जिला स्तरीय कमेटी के पास लंबित है। इस पत्र में आगे, पट्टों सहित  आदिवासियों की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं के समाधान की मांग की गयी। 

एकता परिषद के जिला संयोजक सूरज सहरिया ने हमें एक सूची भी सौंपी। सूची में दावा किया गया कि, गुना जिले की बम्हौरी तहसील में ही आदिवासी वर्ग के 2822 वन अधिकार दावे निरस्त किये गये। वहीं, अन्य परंपरागत दावों की निरस्ती का आंकड़ा 4679 (बम्हौरी तहसील) है।

वहीं, एमपी वन मित्र पोर्टल कि रिपोर्ट मार्च 2022 के अनुसार गुना जिले की पांच तहसीलों क्रमशः आरोन, गुना, चाचैड़ा, बम्हौरी और राघौगढ़ में आदिवासी वर्ग के 6202 वन अधिकार दावे निरस्त किये गये। 

जमीन पट्टे की मांग सिवनी (पांचवीं अनुसूची क्षेत्र) जिले से भी उठती रही है। जिले की जनपद पंचायत घंसौर, ग्राम पंचायत बखारी माल और धूमामाल के बरगी बांध विस्थापितों ने एक पत्र, दिनांक 22-02-2023 को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नाम लिखा।

पत्र में कहा गया कि, वन अधिकार कानून 2006 के तहत पूर्व से काबिज दावेदारों को जांच उपरांत भू-अधिकार पत्र प्रदान किये जाएं। इस पत्र के जरिए प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री किसान सम्मान निधि ना मिलने जैसी कई मूलभूत समस्याओं के समाधान की मांग की गयी।

मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय के जमीन पट्टों की समस्या इतनी विकट है कि बड़वानी (पांचवी अनुसूची क्षेत्र) जैसे जिले में जायस (जय आदिवासी युवा शक्ति) संगठन करीब तीन सप्ताह तक जमीन पट्टों को लेकर धरना प्रदर्शन कर चुका है। लेकिन, बड़वानी की हालत यह है कि, जिले की जनपद पंचायत निवाली के वन अधिकार अधिनियम अंतर्गत 683 भू-अधिकार पत्र दावों को वर्ष 2019 में निरस्त किया गया। वहीं, साल 2022 में निवाली के 690 भू-अधिकार दावे निरस्त हुए। 

वहीं, वन‌ भूमि पट्टा की मांग विदिशा जिले के लोग कर रहे हैं। विदिशा जिले की गंजबासौदा तहसील के आदिवासी लोगों को वर्ष 2009 में वन भूमि के संबंध में पत्र भी दिये गए थे। इन पत्रों को हम देखते और अध्ययन करते है। तब हमें पत्रों में ऊपरी भाग पर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, मध्यप्रदेश शासन और प्रति (प्राप्तकर्ता) का नाम लिखा मिलता है।

पत्र में आगे वर्णित किया गया कुछ अंश ऐसे है: “आप विगत कई वर्षों से वनभूमि का उपयोग करते रहें है, परंतु आपको उस पर कोई हक नहीं मिल सका। पहली बार मेरी सरकार ने आपके दावे को स्वीकार कर वन भूमि पर आपको अधिकार पत्र दिया है। अब आप अपनी भूमि को बिना किसी रुकावट के उपयोग कर सकते हैं। भूमि पर आपका अधिकार सुरक्षित रहेगा और आने वाली पीढ़ियां भी इसका लाभ लें सकेगीं”।

इस पत्र पर अक्टूबर, 2009 भी लिखा है। लेकिन, पत्र में यह नहीं लिखा है की प्राप्तकर्ता को कितनी जमीन दी गई है। ऐसे में यहां के आदिवासी लोग भी जमीन के पट्टे की मांग कर रहे हैं।    

वनाधिकार दावों की स्थिति

मध्यप्रदेश में अब तक 2 लाख 75 हजार 352 से अधिक व्यक्तिगत वन अधिकार दावे मान्य किये गये हैं। इसके अतिरिक्त 29 हजार 996 सामुदायिक वन अधिकार दावों को भी मान्यता प्रदान की गई है। वहीं, अधिकार दावों का निर्धारित पात्रता अनुसार समुचित विधिक प्रक्रिया से निराकरण किया जा रहा है। 

राष्ट्रीय स्तर पर वनाधिकार दावों की स्थिति   

प्रेस सूचना ब्यूरो की रिपोर्ट में वन भूमि अधिकार दावों से संबंधित आंकड़े ज्ञात होते हैं। पीआईबी की रिपोर्ट में बताया गया कि, भारत सरकार जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक दिनांक 31/03/2019 तक वन भूमि के प्राप्त और अस्वीकृत दावे इस प्रकार हैं:- देश में कुल 42,37,853 इतने दावे प्राप्त हुए। इन दावों में से 17,53,504 दावे अस्वीकृत किए गए। 

मध्य प्रदेश में वन भूमि के दावे 6,24,975 दावे प्राप्त हुए, इनमें से 3,60,834 दावे अस्वीकृत किए गए।

वहीं, छत्तीसगढ में 8,90,240 दावे प्राप्त हुए, जिनमें 4,61,590 दावों को अस्वीकार किया गया। आंध्र प्रदेश के 1,81,508 दावे प्राप्त हुए, इनमें से 75,927 दावों को अस्वीकृत कर दिया गया।

गुजरात के 1,90,056 प्राप्त दावों में से 64,769 दावों को अस्वीकार कर दिया। वहीं कर्नाटक के प्राप्त 2,81,349 दावों में से 1,80,956 दावे अस्वीकृत कर दिए गए। ऐसे ही अन्य राज्यों में वानाधिकार दावे प्राप्त हुए। इन प्राप्त दावों में से बहुत से दावे अस्वीकार कर दिए गए।

इस स्थिति में सवाल यही पैदा होता है कि, आखिरकार आदिवासी वर्ग को वन भूमि पट्टा पाने के लिए कब तक संघर्ष करना पड़ेगा? और कब उनके जमीन पट्टे की समस्या खत्म होगी। 

(सतीश भारतीय मध्यप्रदेश के एक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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