ग्राउंड रिपोर्ट: “गाजीपुर की वॉल हैंगिंग” कुटीर उद्योग आखिर क्यों खत्म होने की कगार पर?

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गाजीपुर। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का ऐतिहासिक जिला गाजीपुर, जो कभी अपनी वॉल हैंगिंग के लिए प्रसिद्ध था, आज इस अनमोल कला को बचाने की जद्दोजहद में जुटा है। गाजीपुर, जिसे लहुरी काशी के नाम से भी जाना जाता है, यहां के शिल्पकारों ने जूट के रेशों में अपनी कल्पनाओं को गढ़कर न केवल देश बल्कि विदेशों में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। लेकिन अब यह कला खत्म होने की कगार पर है।

गाजीपुर में जूट से बनी वॉल हैंगिंग कभी कुटीर उद्योग का प्रमुख हिस्सा हुआ करती थी। यह कला खेतों, नदियों, सूर्योदय और सूरज के डूबने जैसे ग्रामीण जीवन के सुंदर दृश्यों को जूट के धागों से उकेरती थी। इन हैंगिंग्स में पानी भरती महिलाओं, नावों, और जानवरों को भी चमकीले और अनोखे पैटर्न में प्रस्तुत किया जाता था। गाजीपुर के शिल्पकारों ने इस कला को सैकड़ों साल तक न केवल जीवित रखा, बल्कि इसे नई ऊंचाइयों तक भी पहुंचाया।

वाल हैंगिंग बनाते कलाकार

आज गाजीपुर की वॉल हैंगिंग के शिल्पकार मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। कभी हजारों की संख्या में इस पेशे से जुड़े लोग आज दो-तीन सौ तक सिमट गए हैं। नई पीढ़ी इस काम से दूर होती जा रही है, क्योंकि यह पेशा अब उनकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है। जिन हाथों ने जूट के धागों को एक कलात्मक रूप दिया, वे अब या तो बेरोजगार हैं या मजदूरी करने को मजबूर हैं।

वाल हैंगिंग

गाजीपुर के गुल्लू प्रसाद जैसे कुछ गिने-चुने फनकार आज भी इस कला को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके अनुसार, “हमने अपनी पूरी जिंदगी इस कला के लिए दे दी। लेकिन अगर यह खत्म हो गई, तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।” गुल्लू जैसे शिल्पकारों की कहानी यह बताती है कि इस कला को जिंदा रखने के लिए अभी भी कितनी मेहनत और धैर्य की जरूरत है।

गुल्लू प्रसाद की संघर्षमय कहानी

सैदपुर के भिखईपुर गांव के गुल्लू प्रसाद की जिंदगी कभी जूट वॉल हैंगिंग की रंग-बिरंगी दुनिया में बुनी हुई उम्मीदों और सपनों से भरी थी। साल 1997 में जब उन्होंने मजदूरी छोड़कर वॉल हैंगिंग बनाना शुरू किया, तो यह उनकी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। उनके बनाए वॉल हैंगिंग ने न केवल भारत में, बल्कि अमेरिका, यूरोप, और खाड़ी देशों तक अपनी पहचान बनाई। उनकी कला गाजीपुर की समृद्ध परंपरा और भारतीय शिल्प कौशल की मिसाल थी। लेकिन आज, वही गुल्लू प्रसाद अपनी कला को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

गुल्लू के जीवन के सुनहरे दिन 90 के दशक में थे। उनके अनुसार, “तब हमारा काम खूब चलता था। विदेशों से सीधे ऑर्डर आते थे। एक बार हमें 5000 पीस बनाने का ऑर्डर मिला था। कमाई इतनी अच्छी थी कि घर में सुख-शांति बनी रहती थी। हर दिन गर्व महसूस होता था कि हमारी कला इतनी दूर तक अपनी छाप छोड़ रही है।”

वाल हैंगिंग के कलाकार गुल्लू प्रसाद और उनकी पत्नी लीला

साल 2010 तक गुल्लू और उनके जैसे सैकड़ों शिल्पकार अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने हुनर के लिए मशहूर हो चुके थे। उनके बनाए वॉल हैंगिंग भारतीय कला के प्रतीक माने जाते थे। परंतु साल 2010 के बाद बाजार की बदलती परिस्थितियों ने इस उद्योग की नींव हिला दी।

गुल्लू बताते हैं, “धीरे-धीरे ऑर्डर आना बंद हो गए। जो काम कभी हमारी पहचान था, वह अब घर का खर्च चलाने लायक भी नहीं बचा। पूरे महीने मेहनत करने के बाद भी परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया है। हमारे गांव के कई शिल्पकारों ने यह काम छोड़ दिया और मजदूरी करने लगे। लेकिन मैंने इस कला को छोड़ने का फैसला नहीं किया।”

वाल हैंगिंग बुनती लड़कियां

गुल्लू प्रसाद जैसे फनकार आज भी किसी चमत्कार की उम्मीद में अपने हुनर को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बिना सरकारी संरक्षण, आर्थिक सहायता और आधुनिक बाजार में प्रतिस्पर्धा के इस जद्दोजहद का हर दिन और कठिन होता जा रहा है।

गुल्लू ने सरकार द्वारा दो साल पहले शुरू किए गए एक ट्रेनिंग प्रोग्राम का भी जिक्र किया। उन्होंने बताया, “महिलाओं का एक बैच था, जिसमें 30 औरतों ने हिस्सा लिया। डेढ़ महीने की ट्रेनिंग दी गई और ₹300 प्रति दिन का भुगतान हुआ। लेकिन इतनी छोटी अवधि में कोई भी इस काम को सही से नहीं सीख सका। अगर यह ट्रेनिंग साल में चार बार होती और लंबे समय तक चलती, तो शायद लोग इसे अपनी आजीविका बना पाते।”

आज गाजीपुर की वॉल हैंगिंग खत्म होने की कगार पर है। इस कला पर निर्भर सैकड़ों परिवार बेरोजगारी और गरीबी से जूझ रहे हैं। गुल्लू कहते हैं, “हमारे गांव के बहुत से शिल्पकारों ने यह काम छोड़ दिया है। जो लोग अब भी इसे कर रहे हैं, वे मुश्किल हालात में किसी तरह इसे जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अगर जल्द ही कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह कला हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।”

गुल्लू प्रसाद की कहानी केवल उनकी नहीं, बल्कि गाजीपुर के उन सैकड़ों शिल्पकारों की दास्तान है, जो कभी अपनी कला के दम पर अपने परिवार का भविष्य संवारते थे। आज उनके हाथों से वह कला फिसलती जा रही है, और इसके साथ ही गाजीपुर की पहचान भी।

वाल हैंगिंग कला

गाजीपुर के शिल्पकारों को न केवल आर्थिक मदद की आवश्यकता है, बल्कि उन्हें नए बाजारों तक पहुंचाने और उनके लिए दीर्घकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने की भी जरूरत है। यह वॉल हैंगिंग केवल एक कुटीर उद्योग नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा का जीता-जागता उदाहरण है। इस कला को बचाने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिए ताकि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन सके।

गुल्लू प्रसाद और उनके जैसे सैकड़ों शिल्पकार, जिनकी आंखों में अब भी उम्मीद की छोटी सी किरण झिलमिला रही है, यह विश्वास दिलाते हैं कि यदि सरकार और समाज ने इस दिशा में ध्यान दिया, तो यह कला न केवल गाजीपुर की बल्कि पूरे भारत की शान बन सकती है।

वॉल हैंगिंग से जूझती जिंदगी

गुल्लू प्रसाद ने अपने गांव और आसपास के इलाकों जैसे भीतरी, धुआर्जुन, और रसूलपुर की महिलाओं को इस कला के माध्यम से रोजगार देने की कोशिश की। पहले जो महिलाएं घर बैठे यह काम करके अपनी आजीविका चलाती थीं, आज वही महिलाएं इस काम के बंद होने के डर से परेशान हैं।

भिखइपुर की संजू देवी ने बताया, “पहले हम वॉल हैंगिंग बनाकर पूरे महीने का खर्च चला लेते थे। हमें लगा था कि यह काम हमें हमेशा सहारा देगा, लेकिन अब यह काम खत्म होने की कगार पर है।” संजू जैसी महिलाओं की ही तरह लक्ष्मीना देवी और रीता देवी भी इसी कला से अपनी आजीविका चलाती थीं, लेकिन आज वे भी मजबूर हो चुकी हैं।

वाल हैंगिंग कला

गाजीपुर के जूट वॉल हैंगिंग घरों, कार्यालयों, रेस्तरां और होटलों की सजावट के लिए बेहद लोकप्रिय उत्पाद हैं। ये दीवारों को एक शानदार और आकर्षक रूप देते हैं। हालांकि, खराब औद्योगिक विकास और सरकारी उपेक्षा के कारण अधिकांश परिवार आज इस कला को छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं।

जूट का 100% प्राकृतिक और बायोडिग्रेडेबल होना इसे पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ बनाता है। जूट की कम लागत और इसकी बहुमुखी उपयोगिता ने इसे शिल्प कार्य के लिए एक महत्वपूर्ण सामग्री बना दिया है। जूट वॉल हैंगिंग की उचित कीमत और इनकी उच्च मांग के बावजूद, कारीगरों को इस उद्योग से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है।

वैश्विक पहचान की जरूरत

गाजीपुर के जूट वॉल हैंगिंग ने कभी वैश्विक बाजार में अपनी पहचान बनाई थी, लेकिन आज यह कला उपेक्षा और बाजार की प्रतिस्पर्धा के कारण गुमनामी में है। शिल्पकारों का कहना है कि यदि उन्हें सरकारी संरक्षण और सही मार्गदर्शन मिले, तो वे इस कला को फिर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला सकते हैं।

गुल्लू प्रसाद की पत्नी लिल्ला देवी भी वाल हैंगिंग की शिल्पकार हैं। लिल्ला देवी कहती हैं, और उनकी तरह के अन्य शिल्पकार यह उम्मीद कर रहे हैं कि गाजीपुर की यह कला न केवल उनकी आजीविका को बचाएगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक मिसाल बनेगी। उनकी मेहनत, जिद, और कला के प्रति समर्पण यह साबित करता है कि अगर इसे सही दिशा और सहयोग मिले, तो यह कला फिर से सुनहरे दिनों में लौट सकती है।

नई पीढ़ी जूट वॉल हैंगिंग के काम से लगातार दूरी बना रही है, क्योंकि इसमें न केवल भारी मेहनत की जरूरत है, बल्कि धैर्य और लगन भी चाहिए। गाजीपुर के भिखईपुर गांव की संजू देवी, जो भगवान बुद्ध का चित्र जूट के रेशों से उकेर रही थीं, से मुलाकात हुई। दिन-रात की मेहनत के बावजूद उनकी स्थिति उनके शब्दों में बहुत कुछ बयां करती है। “हम जितनी मेहनत करते हैं, उसका पूरा मेहनताना नहीं मिल पाता। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में इस कला का महत्व खत्म होता जा रहा है। दशकों से यह काम करने के कारण हमारी आंखों की रोशनी भी कमजोर हो गई है।”

संजू देवी कहती हैं कि भिखईपुर के लोग यह कला सीखते नहीं, बल्कि यह उनके भीतर कुदरती तौर पर मौजूद है। मुगल बादशाहों और फिर ब्रिटिश शासनकाल में इस कला ने खास पहचान बनाई। ब्रिटिश काल में गाजीपुर की वॉल हैंगिंग समूचे यूरोप और अमेरिका में जाती थी। जूट के रेशे से बनाई गई यह चित्रकारी न केवल खूबसूरत होती थी, बल्कि इसकी मांग भी बहुत थी। हालांकि, आज यह कला गिने-चुने शिल्पकारों तक सिमटकर रह गई है।

गांवों में रोजगार का एकमात्र साधन कभी वॉल हैंगिंग हुआ करता था। भिखईपुर के साथ-साथ भीतरी, धुआर्जुन, और रसूलपुर जैसे गांवों की सैकड़ों महिलाएं इसी काम में जुटी रहती थीं। लेकिन अब हालात इतने खराब हो चुके हैं कि दिनभर काम करने के बाद भी दो-तीन सौ रुपये ही मिल पाते हैं। लक्ष्मीन, जो जूट पर चित्रकारी का काम करती हैं, बताती हैं कि पहले जितनी मजदूरी मिलती थी, अब पूरे माल की कीमत भी उतनी नहीं होती। “हम जितनी मेहनत करते हैं, उसका मेहनताना अब नाकाफी है। ऐसे में जिंदगी कैसे कटेगी?”

भिखईपुर में पहले हर घर में वॉल हैंगिंग का काम होता था, लेकिन अब नई पीढ़ी इसे अपनाने को तैयार नहीं है। वुड कार्विंग जैसे काम की तुलना में दिहाड़ी मजदूरी बेहतर विकल्प नजर आता है। कारीगरों को सस्ती बिजली की सख्त जरूरत है, लेकिन यह मांग भी आज तक पूरी नहीं हुई। बिचौलियों के कारण मुनाफे का बड़ा हिस्सा इन्हीं के हाथों में चला जाता है। कारीगरों को महज 80 रुपये मिलते हैं, जबकि उनका काम बाजार में कहीं ज्यादा कीमत पर बेचा जाता है।

रेखा, जो न केवल वॉल हैंगिंग बनाती हैं बल्कि अपने पूरे घर की जिम्मेदारी भी उठाती हैं, कहती हैं, “मैं यह हुनर अपने बच्चों को नहीं सिखाऊंगी। दिनभर की मेहनत के बाद मुश्किल से सौ-पचास रुपये मिलते हैं।” सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने के सवाल पर उनका दर्द छलक उठता है। “हमें राशन जरूर मिला, लेकिन कभी पकाने के लिए ईंधन नहीं था, और कभी गैस सिलेंडर था तो चावल नहीं।”

कारीगरों का यह दर्द केवल मेहनताने तक सीमित नहीं है। संजू और रेखा जैसी महिलाएं कहती हैं कि किसी भी सरकार ने वुड कार्विंग और वॉल हैंगिंग के कारीगरों के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनाई। “हमारे लिए न हेल्थ कार्ड बना, न बीमा। आंखों की रोशनी कमजोर होने पर भी हमें कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती। हर चुनाव के दौरान बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही नेता हमें भूल जाते हैं। अगली बार वही वादे दोहराए जाते हैं।”

जूट के रेशों से बुनाई करने वाले ये शिल्पकार अपनी कला को बचाने की कोशिश में लगातार संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन जब तक उनकी मेहनत का सही मूल्यांकन और सरकारी मदद नहीं मिलेगी, तब तक यह कला और इसके साथ जुड़े लोगों की उम्मीदें भी धुंधली पड़ती रहेंगी।

गाजीपुर की वॉल हैंगिंग का इतिहास ढाई सौ साल से भी अधिक पुराना है। यह कला शुरू से ही असंगठित क्षेत्र तक सीमित रही, जिससे शिल्पकारों का शोषण होता रहा। बावजूद इसके, इस कला ने न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी छाप छोड़ी। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, यह कला तेज़ी से विलुप्ति के कगार पर पहुंचने लगी।

शिल्पकारों के बदलते हालात

गाजीपुर के शिल्पकार दिन-रात मेहनत करते हैं, लेकिन उन्हें उनके परिश्रम का उचित मेहनताना नहीं मिलता। भिखईपुर गांव की रीता देवी और उनके पति दिनभर वॉल हैंगिंग का काम करते हैं, लेकिन अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने में भी संघर्ष करना पड़ता है। रीता कहती हैं, “कच्चे माल का दाम बढ़ गया है, लेकिन हमारी कलाकृतियां पहले से कम कीमत पर बिक रही हैं। मेहनताने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई, और कोरोना के बाद तो हालात और खराब हो गए।”

इस काम में कई प्रकार की समस्याएं जुड़ी हैं—आंखों की रोशनी कमजोर हो रही है, कच्चा माल महंगा होता जा रहा है, और श्रमिकों को उनकी मेहनत के अनुरूप पैसा नहीं मिल रहा। इसके बावजूद, संजय जैसे युवा फनकार आज भी इस कला से जुड़े हुए हैं। वे चाहते हैं कि सरकार इस ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए कदम उठाए। उनका मानना है कि यदि इस कला को प्रोत्साहन और संरक्षण दिया जाए, तो यह फिर से अपनी पुरानी चमक हासिल कर सकती है।

गाजीपुर की वॉल हैंगिंग को “वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट” (ओडीओपी) योजना के तहत नई पहचान मिली है। मुहम्मद इसराइल के बेटे मोहम्मद कैसर ने इस योजना का लाभ उठाकर अपने व्यवसाय को एक नई दिशा दी। उन्होंने ‘मो. इसराइल हैंडिक्राफ्ट’ के नाम से कंपनी का पंजीकरण कराया और ऋण लिया। इसके बाद दिल्ली, मुंबई, और चेन्नई जैसे शहरों से ऑर्डर मिलने लगे। परिवार की नई पीढ़ी ने पारंपरिक डिज़ाइनों के साथ-साथ नए डिज़ाइनों पर काम करना शुरू किया, जिससे इस कला को एक नया आयाम मिला। अब वॉल हैंगिंग पर मंदिर, मस्जिद और लैंडस्केप के अलावा विदेशी कस्टमर्स की मांग के अनुसार डिज़ाइन तैयार किए जाते हैं।

व्यापार के सामने चुनौतियां

हालांकि, गाजीपुर में जूट के कच्चे माल का डीपो न होने के कारण शिल्पकारों को वाराणसी या कोलकाता से कच्चा माल मंगाना पड़ता है। इससे उनकी लागत बढ़ जाती है। इसके अलावा, बिचौलियों के कारण भी शिल्पकारों को उनके काम का पूरा लाभ नहीं मिलता।

गाजीपुर के उद्योग विभाग के उपायुक्त प्रवीण मौर्य का कहना है कि वॉल हैंगिंग के कारीगरों को सरकार की ओर से विभिन्न योजनाओं के तहत मदद दी जा रही है। ट्रेनिंग और ऋण जैसी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, लेकिन जागरूकता की कमी के कारण कारीगर इन योजनाओं का पूरा लाभ नहीं उठा पाते।

वॉल हैंगिंग को साल 2022 में जीआई टैग मिला, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है। थाईलैंड, जापान, और कोरिया में भगवान बुद्ध के चित्रों वाली वॉल हैंगिंग की ज़बरदस्त मांग है। विदेशी पर्यटक भी इसे यादगार के तौर पर खरीदते हैं। जीआई विशेषज्ञ डॉ. रजनीकांत के अनुसार, “अंतरराष्ट्रीय मेलों और प्रदर्शनियों में भाग लेकर कारीगर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। सरकार ने हस्तशिल्प उत्पादों पर 40 लाख रुपये तक की जीएसटी छूट दी है, जिससे कारीगरों को प्रोत्साहन मिला है।”

गाजीपुर के वरिष्ठ पत्रकार राजकमल कहते हैं, “गाजीपुर की वॉल हैंगिंग केवल एक कला नहीं, बल्कि मेहनत, लगन, और आत्मनिर्भरता की मिसाल है। यह संघर्ष की कहानी है, लेकिन उम्मीद का दीपक भी जलाए हुए है। यदि सरकार, स्थानीय प्रशासन और समाज मिलकर इन शिल्पकारों की समस्याओं को हल करने के लिए ठोस कदम उठाएं, तो यह कला न केवल गाजीपुर बल्कि पूरे भारत का गौरव बन सकती है। यह समय है कि हम अपने फनकारों की मेहनत को पहचानें और इस अनमोल धरोहर को सहेजें, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस कला पर गर्व कर सकें।”

“गाजीपुर की वॉल हैंगिंग के पतन के पीछे सरकारी उपेक्षा और बदलते बाजार की चुनौतियां प्रमुख कारण हैं। इस उद्योग को न तो पर्याप्त संरक्षण मिला और न ही इसे बड़े बाजारों तक पहुंचाने के प्रयास हुए। परिणामस्वरूप, शिल्पकारों को अपनी कला छोड़कर दूसरे पेशों में जाना पड़ा। इसके अलावा, आधुनिक डिजाइनों और फैशन के बढ़ते चलन ने भी पारंपरिक वॉल हैंगिंग की मांग को कम कर दिया है। जो शिल्पकार अभी भी इस पेशे में टिके हुए हैं, वे बाजार में प्रतिस्पर्धा और अपर्याप्त मुनाफे के कारण निराश हैं।”

पत्रकार राजकमल यह भी कहते हैं, “गाजीपुर के जूट वॉल हैंगिंग केवल एक सजावटी कला नहीं, बल्कि यह मेहनत, लगन, और आत्मनिर्भरता की मिसाल हैं। यह दिखाता है कि यदि किसी काम को पूरे समर्पण और सही दिशा के साथ किया जाए, तो सीमाएं सिर्फ एक भ्रम बनकर रह जाती हैं। गाजीपुर की वॉल हैंगिंग कभी इस जिले की शान और अंतरराष्ट्रीय पहचान थी। आज यह कला विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है। स्थानीय शिल्पकारों का कहना है कि यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो गाजीपुर की यह अनमोल विरासत हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। यदि इस कला को बचाने के लिए सार्थक कदम नहीं उठाए गए, तो गाजीपुर का यह सांस्कृतिक और शिल्प कौशल इतिहास के पन्नों में ही सिमटकर रह जाएगा।”

(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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