Saturday, April 20, 2024

स्टालिन के मंच से लेकर पीएम को लिखी चिट्ठी तक कैसा है विपक्षी एकता का रंग?

कोई जवाब होता नहीं है। कोई जवाब होगा नहीं, कोई जवाब रहा ही नहीं है और ये ही जवाब है। अमेरिकी साहित्यकार गर्ट्रूड स्टेन (Gertrude Stein) के इस कथन को राजनीति के बरक्स समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि सवालों के जवाब तलाशना इतना आसान नहीं है।

देश में चुनाव महज़ 15 महीने दूर हैं। विपक्षी एकता को लेकर बात हो रही है। अटकलें लगाई जा रही हैं। सवाल भी कई हैं, लेकिन जैसे स्टेन ने कहा जवाब ना कभी थे, ना कभी रहे हैं।

क्या तृणमूल कांग्रेस चीफ ममता बनर्जी विपक्षी एकता में बाधक बनी रहेंगी? क्या बीआरएस के चंद्रेशखर राव के तीसरे मोर्चे की कोशिशों को झटका लगा है? क्या स्टालिन की दूसरे मोर्चे की कोशिश रंग लाएगी? क्या कांग्रेस की अगुवाई में बढ़ेगी विपक्षी एकता?

चुनाव 15 महीने दूर हैं और इस साल के आखिर में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हैं, ऐसे में ‘विपक्षी एकता’ बोतल का एक ऐसा जिन्न बन गई है, जिसको लेकर सिर्फ बातें ही हो रही हैं।

जो कुछ भी राजनीति के पटल पर फिलहाल हो रहा है, उसे विपक्षी एकता के चश्मे से ही देखा जा रहा है। जब भी विपक्षी एकता की बात होती है तो कांग्रेस की भूमिका के बगैर इसे देखा नहीं जा सकता।

हालांकि इसे लेकर कांग्रेस मिक्स्ड सिग्नल दे रही हैं। फिलहाल तो राहुल गांधी का वही बयान चर्चा में है जिसमें उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास कुछ दिलचस्प आइडिया हैं। हम आगे बढ़ कर विपक्ष को साथ ला सकते हैं लेकिन हम अपने पत्ते खोलकर सरप्राइज़ को खराब नहीं करना चाहते।

हालांकि पिछले साल उदयपुर में राहुल गांधी ने क्षेत्रीय पार्टियों पर निशाना साधते हुए ये भी कहा था कि सिर्फ कांग्रेस ही बीजेपी के खिलाफ़ लड़ सकती है क्योंकि क्षेत्रीय दल किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इससे पहले मल्लिकार्जुन खड़गे कई बार अलग-अलग बात बोल चुके हैं। नागालैंड में उन्होंने कहा था कि 2024 में कांग्रेस की अगुवाई वाला गठबंधन सत्ता में आएगा।

रायपुर के अधिवेशन में उन्होंने यूपीए वाले मॉडल की ओर इशारा किया था। पर चेन्नई में उन्होंने साफ कर दिया कि समान विचारधारा रखने वाली विपक्षी पार्टियों को साथ आना चाहिए और कांग्रेस ने ये कभी भी नहीं कहा कि कौन अगुवाई करेगा या कौन प्रधानमंत्री बनेगा। माना जा रहा है कि कांग्रेस के नेतृत्व करने का मसला

विपक्षी दलों की एकता के रास्ते में एक बड़ी बाधा रही है, जो इस बयान से दूर होती दिखाई दे रही है ।

लेकिन क्या खड़गे के बदलते बयान यूं ही सामने आए हैं या उनके पीछे कोई पृष्ठभूमि भी थी। ज़रा इस पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करते हैं । बीते 1 मार्च को द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के सुप्रीमो और तमिलनाडु के सीएम स्टालिन का 70वां जन्मदिन था।

उन्होंने इस मौके पर एक जलसा किया जिसमें कांग्रेस समेत कई दूसरे विपक्षी दल शरीक हुए। इसी मंच पर कांग्रेस की ओर से ये कहा गया कि उसका ऐसा कोई दावा नहीं है कि विपक्षी गठबंधन की अगुवाई वही करेगी। खास बात ये भी है कि इससे पहले कमलनाथ और जयराम रमेश भी इस मसले पर बयान दे चुके हैं । लेकिन ज़ाहिर है सबसे अहम बयान खड़गे का ही है।

कांग्रेस ने साफ़ किया कि पार्टी विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की जिद नहीं कर रही है। यह बहुत बड़ी बात है। इस जलसे की खास बात थी अखिलेश यादव का इसमें शामिल होना। इससे तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशों को भी गहरा झटका लगा है।

क्योंकि इससे पहले लग रहा था कि टीएमसी, आम आदमी पार्टी और बीआरएस के गठजोड़ वाला एक तीसरा मोर्चा सामने आ सकता है लेकिन चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को यहां बुलाया ही नहीं गया जबकि अखिलेश यादव मौजूद थे।

खास बात ये है कि प्रधानमंत्री बनने की आस पाल रहे के.चंद्रेशखर राव कुछ दिन पहले अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव से मिले भी थे। लेकिन उन्हें इन दोनों ही नेताओं ने खासा ठंडा रिस्पॉन्स दिखाया। जहां कांग्रेस की बात है तो वो खुद भी इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के इन तीन दलों से दूर ही रहना चाहेगी। ममता के बारे में तो सब जानते हैं कि वो 2024 में अकेले ही चलेंगी।

वहीं स्टालिन के इस बयान के भी खासे मायने लगाए जा रहे हैं जिसमें उन्होंने कांग्रेस की ही लाइन को आगे बढ़ाते हुए कहा कि अगर तीसरा मोर्चा बना तो उससे बीजेपी को फायदा होगा। कहा जा रहा है कि कांग्रेस को साथ लेकर बनने वाले विपक्षी गठबंधन की तस्वीर थोड़ी साफ दिख रही है जिसमें डीएमके, एनसीपी और आरजेडी जैसे दलों की भूमिका हो सकती है। अखिलेश के बारे में कहा जा रहा है कि वो भी चंद्रशेखर राव के बजाय स्टालिन के मंच पर ज्यादा सहज महसूस करेंगे।

नीतीश के तेवर देखकर लग रहा है वो इसमें शामिल हो सकते हैं लेकिन वो और आरजेडी कांग्रेस के साथ कड़ी सौदेबाज़ी करने से भी गुरेज़ नहीं करेंगे,ऐसा माना जा रहा है।

लेकिन बैकग्राउंड की एक और तस्वीर भी है। वो है कपिल सिब्बल का गैर चुनावी राजनीतिक मंच। सिब्बल ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस से एक बातचीत में कहा कि तेजस्वी से लेकर ममता और उद्धव सब लोग इस सरकार के अन्याय के खिलाफ हैं। वो गैर बीजेपी मुख्यमंत्रियों और नेताओं से सहयोग मांग रहे हैं और कह रहे हैं कि वो देश में अन्याय के खिलाफ जनआंदोलन खड़ा करने का मन बना रहे हैं।

9 महीने पहले ही कांग्रेस से किनारा कर चुके सिब्बल का ये मंच किस तरह इस विपक्षी एकता की धुरियों को साथ लाकर रखेगा, ये देखने वाली बात होगी।

दरअसल विपक्षी एकता में जो सबसे बड़ी बाधा सामने आ रही है वो है एक दूसरे को लेकर अविश्वास। यही वजह है कि पार्टियां चाहकर भी इस मसले पर साथ नहीं आ पा रहीं। इसका ताज़ा उदाहरण आठ दलों की वो चिट्ठी है जिससे कांग्रेस, डीएमके और लेफ्ट दूर रहीं।

दूसरी बड़ी दिक्कत राज्यों के स्तर पर एक दूसरे के हितों के खिलाफ़ खड़े होने की भी है। त्रिपुरा में लेफ्ट और कांग्रेस एक साथ दिखे तो दूसरी ओर सामने टीएमसी रही।

इसके साथ ही केरल में लेफ्ट और कांग्रेस आमने-सामने रहते हैं। इसे ऐसे समझने की कोशिश करते हैं कि छोटे क्षेत्रीय दलों की लड़ाई किसी एक दल से नहीं होती। वो अलग-अलग समय पर कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस के खिलाफ सामने होते हैं। ऐसा ही वो छोटे दलों के साथ भी करते हैं, लिहाज़ा राजनीतिक स्वार्थ विपक्षी एकता के रास्ते में सामने आते हैं। ऐसे में ये चुनावी साल काफी कुछ तय करेगा। विपक्षी एकता की तस्वीर भी।

(जनचौक की रिपोर्ट।)

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