योगी सरकार के बड़े-बड़े दावे:कितना सच, कितना झूठ या सरासर झूठ

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कोई माने या न माने, बीजेपी समर्थक इस बात से काफी हद तक सहमत लगते हैं कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पिछले पांच सालों में इतना काम किया है जितना कि पिछले 40 सालों में नहीं हुआ। पर ये समझना ज़रूरी है की पिछले पांच सालों में ऐसा कौन सा चमत्कार हुआ है कि उत्तर प्रदेश की कायापलट हो गई है। संघ-बीजेपी समर्थक, खासकर अपने को ऊंची जात का मानने वाले ये भी गवाही देते नज़र आ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में अपराध कम हो गए हैं। महिलाएं आधी रात सड़क पर बेख़ौफ़ घूम सकती हैं। बिजली गरीब-अमीर सबको हर वक्त उपलब्ध है, रेट चाहे जितना भी हो। यानि सब चंगा है।

इन लोगों के विश्वास को और पुख़्ता करने के लिए योगी-अमित शाह आदि समय-समय पर तरह-तरह के बयान देते हैं। मसलन, भाजपा राज में उत्तर प्रेदश अपराध मुक्त हो गया है और  देश की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया है। जहां पहले राज्य छठीं और सातवीं पायदान पर था। पर भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा नवम्बर 2021 में जारी किये गए आंकड़े बताते हैं कि दरअसल उत्तर प्रदेश की नॉमिनल सकल राज्य घरेलू उत्पाद (Nominal Gross State Domestic Product – NGSDP) रु 19,48,000 करोड़ था। जबकि तमिलनाडु (रु 21,24,000 करोड़) दूसरे स्थान और महाराष्ट्र (30,79,086 करोड़) प्रथम स्थान पर था। 22.8 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के सब से बड़े सूबे, उत्तर प्रदेश की नॉमिनल जीएसडीपी (GSDP) पिछले एक दशक से तीसरे स्थान पर मानो स्थिर है। पर इन तथ्यों की जांच कौन करेगा? बड़े-बड़े अख़बार और टीवी चैनल योगी और दूसरे नेताओं के चुनावी बयानों को आंख मूंदकर अपने श्रोताओं को परोस रहे हैं। और कुछ हद तक बीजेपी समर्थकों के अलावा पब्लिक भी झूठ को सच समझ रही है।

पहले की तरह आज भी उत्तर प्रदेश की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती है। प्रदेश की कुल प्रति व्यक्ति जीएसडीपी सिर्फ 65,431 रुपए है। बिहार को छोड़ अन्य सभी राज्यों से कम। बाकी सामाजिक व आर्थिक पैमानों पर भी प्रदेश, अंतिम छोर पर खड़े ‘बीमारू राज्य’ बिहार के आस-पास ही नज़र आता है।

भारत में केंद्र-शासित प्रदेशों सहित कुल 33 राज्य हैं। उत्तर प्रदेश ने 2016-17 और 2019-20 के योगी राज के दौरान पूरे देश में सबसे कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की। केवल गोवा और मेघालय की जीएसडीपी वृद्धि दर (स्थिर कीमतों पर) उ.प्र. से कम थी। उ.प्र. 33 में 31वां स्थान पर था। मोदी-योगी अंध-भक्त आंकड़े याद रखें, तब न।

आंकड़ों से पता चलता है कि भाजपा शासन के पहले तीन वर्षों (FY18 से FY20) के दौरान एनजीएसडीपी (NGSDP) केवल 2.99% की दर से बढ़ी। अगर कोविड महामारी का साल भी इसमें जोड़ दिया जाए तो योगी शासन के चार सालों में ये वृद्धि मात्र 0.1% ही रह जाती है। इसके विपरीत, 2013-17 के समाजवादी पार्टी के शासनकाल में 5% प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की गई थी। ये आंकड़े आरबीआई के हैं, मनगढ़ंत नहीं हैं।

पुलिस का लाठीचार्ज।

यह तो रही ‘चमकते’ उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था की बात। अब अपराध-मुक्त उत्तर प्रदेश के सरकारी ठप्पे की स्याही का रंग जांच लेते हैं। जब तक आप खुद भुक्तभोगी न हों, आप किसी शहर, कस्बे या गांव में बैठे-बैठे अपराधों के बढ़ने या घटने का अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं। बशर्ते आप पुलिस में काम न करते हों। देश भर से अपराधों के आंकड़े जुटाने का काम एनसीआरबी (National Crime Records Bureau) करती है।

केंद्र की मोदी सरकार के अधीन कार्यरत यह संस्था हर साल “भारत में अपराध” की कई वॉल्यूम प्रकाशित करती है। एनसीआरबी की रिपोर्ट से पता चलता है कि उ.प्र. में अपराधों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2018 में 5,85,157 अपराध राज्य में दर्ज किए गए थे। 2019 में ये संख्या बढ़ कर 6,28,578 और 2020 में 6,57,925 हो गयी। राज्य में वर्ष 2020 में हिंसक अपराधों की संख्या 51,983 थी, जोकि देश मैं सबसे अधिक है। ये सरकारी आंकड़े हैं। हम सब जानते हैं कि पुलिस बहुत से अपराध दर्ज ही नहीं करती। अत: अपराधों की संख्या कहीं ज़्यादा रही होगी।

दंगों के मामले में भी उत्तर प्रदेश अव्वल रहा है। जहां 2017 में योगी सरकार के आने के बाद 8,990 दंगे हुए। 2019 में ये आंकड़ा घट कर 5,714 रह गया। पर 2020 में फिर से 6,126 दंगे के मामले दर्ज किए गए। जब मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश के दंगा-मुक्त राज्य होने का दावा करते हैं तो मन में ख़्याल आता है की दंगा उकसाने और सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाले जब खुद गद्दी पर विराजमान हों, तो दंगे होने ही नहीं चाहिए। पर मामले को गरम रखने के लिए कुछ न कुछ (80:20) होते रहना चाहिए। इसलिए उ.प्र. दंगा-मुक्त नहीं हो पा रहा है।

कुछ लोग इस गलतफहमी में हैं कि योगी की ‘ठोक दो’ और ‘बुलडोज़र चला दो’ वाली नीति ने राज्य को अपराध-मुक्त कर दिया है। इसका मतलब है की कानून-कायदे को ताक पर रख कर पुलिस और सुरक्षा बलों को खुली छूट दे दी जाए, ताकि वे जिस किसी को चाहे ‘ठोक दें,’ कूट दें या उनके घरों और दुकानों पर बुलडोज़र चला दें।

आज उत्तर प्रदेश में योगी का पुलिसिया राज है। खुद मुख्यमंत्री जब खुलेआम अपने प्रतिद्वंदियों को ‘गर्मी ठंडा कर देंगे’ की धमकी दे सकता है तो मान लेना चाहिए की कानून का राज और संविधान खतरे में है। और जो लोग इस गुंडा तंत्र की हिमायत कर रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि कल उनकी भी बारी आएगी। जिस दिन उनके घर से उनके प्रियजनों को भ्रष्ट पुलिस उठा कर ले जाएगी, उस दिन कोई बचाने वाला नहीं होगा।

कानून और संविधान की शासन ही नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दे सकती है। आज जो लोग अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित कर खुश हो रहे हैं उन्हें समझना होगा कि देश और धर्म प्रेम के नाम पर वे घृणा, भेदभाव, भ्रष्टाचार और व्यक्ति पूजा की जिस आग को हवा दे रहे हैं वो पलट कर उन्हें भी झुलसाने में देर नहीं लगाएगी।

पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार शख्स।

अभी तक मौजूद सभी आंकड़े बताते हैं कि पुलिसिया राज में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, मज़दूर और महिलाओं को निशाना बनाना सबसे आसान है। देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे ज़्यादा 49,761 केस उत्तर प्रदेश में 2020 में दर्ज हुए। उत्तर प्रदेश में दलितों के खिलाफ अपराध में भी लगातार वृद्धि हुई है। 2018 में ये आंकड़ा 11,924 था, 2019 में कुछ घट कर 11,829 हो गया। पर 2020 में ये संख्या बढ़ कर 12,714 हो गई। इतने केस देश में और कहीं नहीं दर्ज हुए। पर ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व का ये ट्रेलर मात्र है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध कि दर 55.4% पहुंच गयी थी। यौन उत्पीड़न/सामूहिक बलात्कार, दहेज हत्या, गर्भपात, तेज़ाब हमला, पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता और अपहरण के मामलों में राज्य देश में पहले स्थान पर है। यौन हमला करने का प्रयास, महिलाओं के खिलाफ आईपीसी अपराध, पोस्को (POCSO) अपराध (केवल लड़कियों के मामले) में भी उत्तर प्रदेश का पहले 10 राज्यों में स्थान है।

दलितों के खिलाफ अपराधों में भी उत्तर प्रदेश देश में न. 1 है। 2019 में दलित महिलाओं के यौन उत्पीड़न के 3,486 मामलों रिपोर्ट किए गए पर पुलिस ने  सिर्फ 537 मामले ही दर्ज किए। हाथरस सामूहिक बलात्कार हत्याकांड में साफ़ नज़र आता है कि संघी-भाजपा सरकारें संविधान को ठेंगा दिखाकर किस तरह दलित-वंचितों के विरुद्ध अपराध को कथित ऊंची जात-सवर्णों का शगल बनाने पर तुली हुई हैं।

सीएए प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग करती पुलिस।

योगी के राज में मुसलमानों का जीना दूभर हो गया है। उन पर गौहत्या का आरोप लगाकर गिरफ्तार करना आम बात हो गई है। वर्ष 2020 में हाईकोर्ट में भेजे गए ऐसे 41 मामले फर्जी निकले। अदालतों ने 70 फीसदी गौहत्या के मामलों को खारिज कर दिया और बाकी में जमानत दे दी। नागरिकता (CAA) आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों पर देश द्रोह और दूसरे मुकदमे थोपे गए, शांतिपूर्ण धरनों पर लाठी और आंसू गैस बरसाए गए। उ.प्र. की जेलों में विचाराधीन कैदियों में मुस्लिम कैदियों की संख्या लगभग 29 प्रतिशत है और सज़ायाफ्ता कैदियों में ये संख्या 22 प्रतिशत। जबकि राज्य में मुसलमानों की आबादी 19 प्रतिशत है। 2020 में फर्जी पुलिस एनकाउंटर में मारे गए 37 प्रतिशत लोग मुस्लिम थे।

प्रदेश की पुलिस की बर्बरता यहीं नहीं थमती है। पुलिस हिरासत में बंद 11 और न्यायिक हिरासत में 443 लोगों की मौतें 2020-21 में दर्ज की गईं। हालांकि यह 2018-19 की पुलिस हिरासत (12) और न्यायिक हिरासत (452) में हुई मौतों से कम है, लेकिन यह आंकड़ा उस वक्त फैली वैश्विक महामारी के दौरान भी पुलिस की क्रूरता की प्रवृत्ति को इंगित करता है। हिरासत में पिटाई करना और यातना देना भारतीय पुलिस के एसओपी (Standard Operating Procedure) का हिस्सा है।

बीते तीन वर्षों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा सालाना तौर पर दर्ज किए गए करीब 40 फीसदी मानवाधिकार हनन के मामले अकेले उत्तर प्रदेश से थे। मार्च 2017 और मार्च 2018 के बीच में उत्तर प्रदेश में 17 पुलिस एनकाउंटर हुए, जिसमें 18 लोगों की मौत हुई थी। मामलों की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की। 12 मामलों में आयोग ने पुलिस कार्रवाई को सही पाया, पर बाकी बचे 5 मामलों में भी कोई कार्रवाई नहीं की गई।

पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) की उत्तर प्रदेश शाखा ने राजनीतिक पार्टियों से अपील की है की वे मानवाधिकार हनन और अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के खिलाफ बढ़ते अपराधों को अपने चुनाव का मुद्दा बनाएं। पीयूसीएल ने पुलिस के आतंक का शिकार हुए लोगों के लिए मुआवजे की भी मांग की है।

2017 में सत्ता में आने के तुरंत बाद योगी आदित्यनाथ ने पुलिस अधिकारियों से ‘अपराधियों’ को “ठोक देने” का खुलेआम आह्वान किया था। नतीजतन 16 महीनों में 3,200 मुठभेड़ों को अंजाम दिया गया, जिनमें कई ‘संदिग्ध अपराधी’ मारे गए। हद तो तब को गयी, जब 26 जनवरी 2019 गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री ने एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों के लिए एक-एक लाख रुपये का इनाम घोषित किया। कुछ दिनों बाद ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ शुरू हुआ, जिसमें आरोपी के घुटनों से नीचे गोली मार कर लंगड़ा बना दिया जाता है। एक अनुमान के अनुसार 3,349 संदिग्ध लोगों को पुलिस ने लंगड़ा बना दिया है।

एनकाउंटर के तहत लंगड़ा किए गए लोग।

स्क्रोल वेबसाइट द्वारा प्रकाशित अपने लेख में मुंबई के अधिवक्ता रोहन देशपांडे लिखते हैं की संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है, जिसे केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही निरस्त किया जा सकता है। “ये प्रक्रिया युक्तियुक्त, निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए। यह अधिकार बिना किसी अपवाद के सभी व्यक्तियों का है चाहे वो एक जघन्य अपराध का आरोपी हो या उसके आपराधिक रिकॉर्ड में पुलिसकर्मियों की हत्या शामिल हो। कानून का समान संरक्षण और कानून के समक्ष समानता अनुच्छेद 14 के तहत एक मौलिक अधिकार हैं।”

सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश मार्कंडेय काटजू और न्यायधीश ज्ञान सुधा मिश्रा ने 13 मई 2011 को दिए गए अपने फैसले में पुलिसकर्मियों को चेतावनी देते हुए लिखा कि उन्हें ‘एनकाउंटर’ के बहाने हत्या करने के लिए तब भी माफ नहीं किया जाएगा, अगर वे कहते हैं कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों या राजनेताओं, चाहे वे कितने भी बड़े हों, के आदेशों का पालन कर रहे हैं। “नूर्नबर्ग मुकदमों में नाजी युद्ध अपराधियों ने यही दलील दी थी कि ‘आदेश आदेश हैं’, फिर भी उन्हें फांसी दी गई,” न्यायधीशों ने याद दिलाया।

“यदि किसी पुलिसकर्मी को किसी वरिष्ठ अधिकारी द्वारा फर्जी ‘एनकाउंटर’ करने का अवैध आदेश दिया जाता है, तो यह उसका कर्तव्य है कि वह इस तरह के अवैध आदेश को पूरा करने से इंकार करे, अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा, और दोषी पाए जाने पर मौत की सजा दी जाएगी। ‘एनकाउंटर’ की फिलॉसफी एक क्रिमिनल फिलॉसफी है और सभी पुलिसकर्मियों को यह जरूर पता होना चाहिए। जो पुलिसकर्मी सोचते हैं कि वे ‘एनकाउंटर’ के नाम पर लोगों को मार सकते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि फांसी उनका इंतजार कर रही है।”

26 सितम्बर 2012 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एक दूसरे फैसले में जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की बेंच ने साफ शब्दों में कहा है: “ऐसी हत्याओं को आपराधिक न्याय प्रणाली में मान्यता नहीं है। यह राज्य प्रायोजित आतंकवाद के बराबर हैं।”

रिटायर्ड पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी अपराध रोकने के इस तरीक़े से बिलकुल सहमत नहीं हैं। दारापुरी का मानना है कि चुनिंदा लोगों को एनकाउंटर में मार देने से, अपंग बना देने या फिर उनका घर गिरा देने से अपराध कम नहीं होते हैं। पुलिस को खुली छूट देना ग़ैर-क़ानूनी है।

दारापुरी ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि इस तरह के एनकाउंटर न सिर्फ़ अमानवीय हैं बल्कि अपराध नियंत्रण के तरीक़े के तौर पर इनका इस्तेमाल करना ग़ैर क़ानूनी भी है। “ये जितने भी एनकाउंटर्स हुए हैं, आप देखिए कि उसमें पुलिस वालों को साधारण चोटें आती हैं, लेकिन दूसरा व्यक्ति मारा जाता है या फिर घायल हो जाता है। ये जो भी एनकाउंटर्स दिखाए जा रहे हैं, ये सारे फ़र्ज़ी हैं क्योंकि पुलिस वालों को किस अस्पताल में रखा गया, कितने दिन इलाज हुआ, कब उन्होंने दोबारा ड्यूटी ज्वॉइन की, इन सबका कोई रिकॉर्ड नहीं है।”

सवाल उठता है कि कल यदि भ्रष्ट पुलिस-प्रशासन हत्यारों का गिरोह बन कर आम नागरिक से बंदूक की नोक पर उगाही करने लगे तो क्या होगा? पुलिस में भ्रष्टाचार आज भी व्याप्त है। ऐसे में इन्हें नागरिकों की हत्या का लाइसेंस मिल जाएगा, तो लोगों का उत्तर प्रदेश में रहना दूभर हो जायेगा। कब, कौन उनके निशाने पर आ जाए, कहना मुश्किल होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार वाई एस गिल की रिपोर्ट।)

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