दिलीप मंडल परिघटना को कैसे देखें ?

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दिलीप मंडल को मोदी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार नियुक्त किया गया है। उनकी इस नियुक्ति के बाद तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। सवाल है, इस परिघटना को कैसे देखें?

मैं इसे परिघटना कह रहा हूं क्योंकि पिछले 10 सालों में एक, दो, दस, बीस, सौ, पचास नहीं हजारों ऐसे लोग, जो कभी आरएसएस की विचारधारा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता शीर्ष पहुंचने को भारतीय लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरा मान रहे थे या आरएसएस-भाजपा के नेतृत्व में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिशों के खिलाफ थे। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए इसके हामी थे। इनमें कुछ लोग आरएसएस को एक फासिस्ट संगठन मानते थे। ऐसे लोग आरएसएस के पैरोकार बने हैं और भाजपा के साथ खड़े हुए हैं और भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों से अपने लिए मलाईदार पद प्राप्त किए हैं। मैं दिलीप मंडल को भी उसमें एक मानता हूं। ऐसे टर्न कोट लोगों से न अलग न विशेष। इस संदर्भ में इसे परिघटना कह रहा हूं।

राजनेता

कभी आरएसएस-भाजपा के विरोध में मुखर नेताओं का भाजपा के साथ जाना तो पिछले 10 सालों से रोज-रोज की परिघटना है। सबसे अधिक तो खुद को कल तक गांधीवादी और नेहरूवादी कहने वाले कांग्रेसी गए। आरएसएस-भाजपा के साथ जाने वाले कांग्रेसियों की संख्या उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक इतनी अधिक है, उनके नामों को लिखें तो कई पेज खत्म हो जाएगा।

दूसरे नंबर पर खुद को लोहियावादी कहने वाले सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले गए। नीतीश, रामविलास पासवान, चिराग पासवान और कभी जार्ज फर्नाडीज और शरद यादव रहे हैं।

खुद को कभी आंबेडकरवादी कहने वाले भी गए। आज के कांग्रेसी उदित राज, जीतन राम मांझी, संजय निषाद, ओमप्रकाश राजभर आदि-आदि।

वामपंथी शीर्ष नेता तो भाजपा में नहीं के बराबर गए, वोट बैंक आधार वाले ज्यादा हैं, भी नहीं। लेकिन एक परिघटना पश्चिम बंगाल में जरूर दिखी कि पार्टी के करीब 70 प्रतिशत कार्यकर्ता भाजपा में चले गए। यह कहते हुए, ‘पहले राम फिर वाम’। एक हद तक यह त्रिपुरा में भी हुआ। केरल में भी वामपंथ ने कांग्रेस को कमजोर करने के लिए भाजपा को ताकतवर बनाने में मदद की, इस संदर्भ में कई रिपोर्टें आईं।

दलित पार्टी और घोषित तौर पर खुद को आंबेडकरवादी पार्टी कहने वाली बसपा ने पिछले 10 सालों में हर तरह से भाजपा को मदद पहुंचाई है। मदद पहुंचाने के तरीके अलग-अलग थे।

व्यक्तियों और पार्टियों ने भाजपा को सत्ता के लाभ के लिए, संपत्ति बचाने के लिए, ईडी-सीबीआई के डर से आदि किन-किन कारणों से किया, अलग लेख की मांग करता है। लेकिन ऐसा हुआ।

साहित्यकार

भारत में 80 प्रतिशत से अधिक वे लोग साहित्यकार हैं, जो विश्वविद्यालय या अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाते हैं। जो साहित्यकार के साथ प्रोफेसर भी होते हैं। पिछले 10 सालों में अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रमुख ( विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों और भाजपा शासित राज्यों के) आरएसएस-भाजपा के लोग बनाए गए।

इन विश्वविद्यालयों के बहुलांश साहित्यकारों ने अपने उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रमुखों के गुडविल में आने के लिए क्या-क्या कारनामे किए और कर रहे हैं वह जग-जाहिर है। इन साहित्यकारों में बड़ा हिस्सा खुद को वामपंथी कहने वाले साहित्यकारों या नेहरूवादी वामपंथियों का है। वामपंथियों को तो सब पहचानते हैं, नेहरूवादी वामपंथी के सबसे मूर्त उदाहरण पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं। दीनदयाल पंथी रविभूषण को किसमें रखूं, थोड़ा संशय में हूं। खुद को दलित-बहुजन साहित्यकार कहने वाले भी कुछ लोग भी इसमें शामिल हैं।

विश्वविद्यालय के साहित्यकारों ने आरएसएस के एजेंडे को पूरा करने के लिए नियुक्त इन कुलपतियों के एजेंडों को पूरा करने के लिए क्या-क्या किया है, इस पर एक किताब लिखी जा सकती है। वामपंथी बार-बार यह बात दुहराते हैं कि चुप्पी भी अन्यायी के साथ खड़ा होना होता है। कितनों ने सक्रिय सहयोग कर क्या-क्या पाया, अपने लोगों को क्या-क्या दिलाया, यह बहुत ही खुला खेल है। कई सारे लोग इसे मजबूरी कहकर अपने कुकर्मों को ढकने की कोशिश करते हैं। जबकि साफ-साफ तथ्य हैं कि उन्होंने अपने फायदे के लिए गलत का साथ दिया और सही के साथ नहीं खड़े हुए।

बुद्धिजीवी और पत्रकार

तीसरी बिरादरी बुद्धिजीवियों और पत्रकारों की है या बुद्धिजीवी और पत्रकार का एक ही व्यक्तित्व में मेल वाले लोगों की है। अंग्रेजी भाषा के कितने बुद्धिजीवी और पत्रकार आरएसएस-भाजपा के पक्ष में खड़े हुए, जो कल तक विरोधी थे, उसकी सूची मेरे पास नहीं हैं। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अच्छी-खासी है। हिंदी के दो शीर्ष नामों में अभय कुमार दुबे और बद्री नारायण तिवारी हैं। इनको प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं।

अभय कुमार दुबे

अभय कुमार दुबे ने बाकायदा एक किताब ‘हिन्दू-एकता बनाम ज्ञान’ की राजनीति (सीएसडीएस) लिखकर आरएसएस की विचारधारा और भाजपा की राजनीति का महिमा मंडन किया। बदले में आंबेडकर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की नियुक्ति पा ली। उनके अनन्य मित्र राकेश सिन्हा ने उन्हें एक सर्वोत्तम पुरस्कार इस रूप में दिया।

अभय कुमार दुबे वामपंथी नक्सली आंदोलन और वैचारिकी के पैदाइश रहे हैं। उनकी पहली चर्चित किताब ‘क्रांति का आत्म-संघर्ष : नक्सलवादी आंदोलन के बदलते चेहरे का अध्ययन’ रही है। एक समय वे आज के लिबरल और लेफ्ट के लिए करीब रवीश कुमार जैसे प्रिय व्यक्ति थे।

बद्री नारायण तिवारी

बद्रीनारायण ने ‘Republic of Hindutva: How the Sangh Is R: How the Sangh Is Reshaping Indian Democracy’ किताब लिखकर आरएसएस और भाजपा की राजनीति का गुणगान किया। उनकी जनपक्षधरता की तारीफों के पुल बांधे। उसके बाद वे योगी आदित्यनाथ तक के अत्यन्त प्रिय बन गए। उनके साथ मंच शेयर करने लगे। मंच से उनकी प्रशंसा करने लगे। योगी-मोदी की भक्ति करने के लिए उन्हें अब किसी आड़ की जररूत नहीं पड़ती है। राम माधव और राकेश सिन्हा तो उनके प्रिय वैचारिक साथी बन ही चुके हैं।

इन्होंने भी वामपंथी वैचारिकी से अपनी यात्रा शुरू की थी। बाद में वे दलित-बहुजन लेखन के चैंपियन बने। कवि के रूप में आज भी वे वामपंथी प्रगतिशीलों के भी प्रशंसित और सराहे जाने वाले कवि हैं। उनके कविता संग्रह ‘तुमड़ी के शब्द’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार हाल में मिला।

राजेश जोशी जैसे आइकन वामपंथी आज भी उनकी प्रशंसा के गीत गाते हैं। मनोज झा और प्रियदर्शन सिर्फ उनके साथ मंच ही शेयर नहीं करते हैं। ( हालिया कार्यक्रम हंस का)। बल्कि प्रियदर्शन तो बाकयदा उनके बचाव में प्रश्नों की बौछार अपने ऊपर ले लेते हैं। जिसका उत्तर बद्रीनाराणय को देना था।

दिलीप मंडल

दिलीप मंडल बुद्धिजीवी कम पत्रकार के रूप में ज्यादा जाने जाते रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों के कुछ महीने पहले तक वे दलित-बहुजनों के बीच सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया चेहरा थे। एक हद तक वे प्रतिनिधि चेहरा जैसा। कई सारी सहमतियों और असहमतियों के बावजूद भी लोग उनके लिखे को पढ़ते थे, उनकी बातों को सुनते थे।

सोशल मीडिया की तकनीक और इस्तेमाल के वे उस्ताद रहे हैं। लेकिन दो स्पष्ट कमजोरियां उनकी हमेशा दिखती रही हैं। पहली वे टुकड़ों-टुकड़ों में चीजों को पकड़ने और अभिव्यक्ति करने में तो बहुत समक्ष थे, लेकिन कोई मुकम्मल विश्वदृष्टि या दूसरी भाषा में कहें तो कोई मुकम्मल नजरिया है, कभी नहीं दिखा। वे परस्पर अंतर्विरोधी बातें लिखते और कहते रहते थे। यह उनकी दृष्टि संबंधी सीमा रही है।

दूसरी बड़ी कमजोरी उनकी यह दिखती थी कि राजनेताओं से वे रिश्ते सिर्फ एक पत्रकार के स्तर तक सीमित नहीं रखते थे। कभी वे तेजस्वी और उनकी पार्टी का एकतरफा गुणगान करने लगते, कभी स्टालिन ( डीएमके) के पूरी तरह मुरीद बन जाते, बीच में कुछ समय अखिलेश यादव आदि की।

राजनेताओं से वे जिस तरह के रिश्ते कायम करने की कोशिश करते थे, उसे देखकर लगता था कि अपनी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा भी साधना चाहते हैं। लेकिन विश्वसनीय न होने के चलते उनको किसी पार्टी में खास जगह या तवज्जो नहीं मिल पाई। एक समय तो ऐसा लग रहा था कि वे स्टालिन ( डीएमके) का उत्तर भारत में चेहरा हैं। लेकिन अचानक यह रिश्ता टूट गया।

उसके बाद लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने करीब-करीब यू टर्न ले लिया। मुसलमानों के खिलाफ घृणा के प्रचारक बन गए, जो आरएसएस-भाजपा के लिए सबसे जरूरी चीज है। ऐसा लगने लगा कि वे दलित-बहुजनों के भीतर मुसलमानों के प्रति घृणा भरने के लिए नियुक्त किए गए हों। यह सब कुछ वे दलित-बहुजनों के आरक्षण फायदे और मुसलमानों को आरक्षण से बाहर करने की आड़ में कर रहे थे। फिर मुस्लिम शासकों को बदनाम करने में लग गए। वे मुसलमानों के प्रति घृणा के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में सामने आए। उन्होंने यह काम चुनाव के दौरान बसपा और उसके वोटरों का सहारा लेकर करने की कोशिश की।

उनके यूटर्न लेने के कारणों पर बहुत तरह के कयास लगाए जा रहे थे। क्या लाभ मिला इसके बारे में लोग गेस कर रहे थे। कोई प्रमाण किसी के पास नहीं था। अब उन्हें केंद्र सरकार ने एक लाभ का पद दिया है। लोग कह रहे हैं, और काफी हद तक ठीक भी है कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए यू टर्न लिया।

जैसे कई सारे राजनेताओं, साहित्यकारों और बद्रीनारायण तिवारी और अभय कुमार दुबे जैसे बुद्धिजीवियों और लेखकों-पत्रकारों ने किया। पूरी तरह वैचारिक यूटर्न और जिसके पक्ष में यूटर्न लिया गया है, उससे लाभ पाने के प्रत्यक्ष प्रमाण के बाद यह कहना कि यह यू टर्न लाभ के लिए नहीं लिया गया है, तथ्यात्मक तौर पर सच को खारिज करने की कोशिश होगी।

मोदी के इस 10 सालों के दौर में अपने क्षेत्रों के कई सारे शीर्ष लोगों ने अपने-अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए यू टर्न लिया है। दिलीप मंडल भी इसमें एक हैं। आर्थिक तौर पर नवउदारवाद, उपभोक्तावाद और व्यक्तिवाद के तेजी से उभार के पिछले करीब 30 वर्षों के दौर ने इस परिघटना को तेजी से बढ़ावा दिया है।

लेकिन फिर भी दिलीप मंडल का यू टर्न लेना दलित-बहुजन पक्ष छोड़कर एक हिंदू फासीवादी विचारधारा और सरकार के साथ खड़ा हो जाना सामान्य परिघटना का हिस्सा होते हुए, दिखते हुए भी एक खास विशिष्टता लिए है, जो चिंताजनक है।

दलित-बहुजन राजनेता तो यहां-वहां आते जाते रहते हैं, यू टर्न फिर यू टर्न लेते रहते हैं। यह लंबे सयम से चली आ रही, परिघटना है। लेकिन दलित-बहुजन बुद्धिजीवी-पत्रकार जो एक हद तक चेहरा बन गए हों, वे यू टर्न लेकर हिंदुत्व की विचाधारा और राजनीति की सेवा में लग जाएं, ऐसा नहीं के बार होता रहा है।

लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि दिलीप मंडल के चुनाव से पहले यू टर्न लेने की जहां सबसे अधिक आलोचान हुई, वह दलित-बहुजन ही हैं। आलोचना से बहुत आगे बढ़कर लोगों ने लानत-मलानत की। वे अपने साथ दलित-बहुजनों का एक छोटा सा हिस्सा भी ले जाने में सफल नहीं हुए। करीब-करीब सभी के सभी लोग उनके इस कदम के खिलाफ खड़े हुए। किसी ने भी इसे सकारात्मक रूप में नहीं देखा। कुछ मायावती भक्तों के अलावा, जिनका सहारा दिलीप मंडल चुनाव के दौरान ले रहे थे।

यह तथ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति दलित-बहुजनों का हीरो बन सकता है, नायक बन सकता है कि दलित-बहुजन व्यक्ति पूजक नहीं हैं। यदि वह व्यक्ति उनके मूल्यों-विचारों और आदर्शों के खिलाफ जाता है, तो उससे किनारा कसने में और उसे किनारे लगाने में वे देर नहीं लगाते हैं।

दिलीप मंडल की चुनाव से पहले की कृत्यों की आलोचना और निंदा बहुत सामान्य कहे जाने वाले लोगों ने तीखे और निर्णायक शब्दों में की। यह कम से कम दलित-बहुजन समाज के बुद्धिजीवी, लेखकों और पत्रकारों के बारे में पूरी तरह लागू होती है। राजनेताओं के प्रति लोग अलग तरीके से प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं।

दिलीप मंडल का इस तरह यू टर्न दलित-बहुजन आंदोलन के लिए एक छोटा झटका और नुकसान तो है, लेकिन दलित-बहुजन आंदोलन व्यक्तियों का कभी मुहताज नहीं रहा है। वहां एक सामूहिक चेतना काम करती है। यदि कोई उस सामूहिक चेतना को अभिव्यक्ति देता है, तो लोग उसके साथ खड़े हो जाते हैं, लेकिन यदि कोई उसके खिलाफ जाता है, तो लोग उसे किनारे लगा देते हैं, चाहे वह दिलीप मंडल जैसे सोशल मीडिया का प्रभावी व्यक्ति ही क्यों न हो।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं)

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