विपक्ष में है तो पक्का हिन्दू-विरोधी होगा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) विपक्षी एकता के लिए किये जा रहे प्रयासों को किस तरह देखता है, यह जानने में दिलचस्पी होना स्वाभाविक है। आम तौर पर कांग्रेस और अन्य विरोधी दल कहते सुने जाते हैं कि भाजपा उनसे डरी हुई है, प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस से भयभीत हैं और इसलिए वे कई सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग करके राहुल और विपक्ष के अन्य नेताओं को फंसाना चाहते हैं।

आरएसएस के हिंदी मुखपत्र पाञ्चजन्य ने बीते सप्ताह एक संपादकीय में कहा है कि “तथाकथित” विपक्षी एकता की जड़ में हिंदू विरोध है। यही हिन्दू विरोध उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता है। यह संपादकीय 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ संभावित गठबंधन पर चर्चा के लिए 17 विपक्षी दलों की बैठक पर टिप्पणी कर रहा है।

विचार के स्तर पर आरएसएस और भाजपा को अलग करके नहीं देखा जा सकता। और यह स्पष्ट है कि जनसंघ और भाजपा इसी तरह का नैरेटिव निर्मित करने की कोशिश में हैं। विपक्ष के लिए यह एक बड़ी चुनौती साबित होने वाली है। भाजपा हमेशा खुद को हिंदुत्व का रक्षक और संवर्धक बना कर प्रस्तुत करना चाहती है। पिछले नौ वर्षों में ऐसी स्थितियां बन गई हैं कि नरेंद्र मोदी और भाजपा सिर्फ एक ही नहीं हो गए हैं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा से भी बड़े हिंदुत्व का प्रतीक बन गए हैं।

इस हिंदुत्व के साथ ही भाजपा ने राष्ट्रवाद को भी जोड़ दिया है। ऐसे में विपक्षी दलों को न सिर्फ हिन्दू विरोधी, बल्कि मोदी और राष्ट्र विरोधी के रूप में भी देखा जाएगा। यह सुदूर भविष्य में नहीं होगा, अभी हो रहा है। यह बात इसलिए भी कही जा रही है क्योंकि भाजपा की देखादेखी विपक्षी नेताओं ने भी थोड़ा सॉफ्ट हिंदुत्व दिखाने की कोशिश की है पर उनकी चिर-परिचित और घोषित धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के कारण उनका प्रयास अक्सर हास्यास्पद दिखता है।

यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा कि विपक्ष को हिन्दू विरोधी बताने का भाजपा का नैरेटिव आने वाले समय में किस तरह का रूप अख्तियार करेगा। क्योंकि विपक्षी दल हिंदुत्व की प्रतिस्पर्धा में भाजपा से आगे नहीं निकल सकते। उनकी विचारधारा में ही यह शामिल नहीं रहा है। यदि वे कहीं भी हिंदुत्व के पक्ष में और अन्य धर्मावलम्बियों के विरोध में बोलते हैं तो वे अपनी स्थापित परंपरा और नीति के विरोध में बोलेंगे और इसका उनको भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वे ऐसी स्थिति में माया और राम दोनों को ही खो बैठेंगे।

प्रधानमंत्री मोदी और उनके हिन्दूवादी विचारों की लोकप्रियता फिलहाल इस देश की सामाजिक और राजनीतिक सच्चाई है, इसे अनदेखा किये बगैर ही विपक्ष को सोच-समझ कर अपनी नीति तय करनी होगी, ख़ास कर ऐसे समय में जब राहुल गांधी का राजनीतिक/चुनावी भविष्य अभी अस्पष्ट हो और विपक्ष के अपने बड़े संकट मुंह बाए खड़े हों। मसलन, एक साझा प्लेटफार्म तैयार करना, सम्मिलित विपक्ष के लिए एक चेहरा प्रस्तुत करना, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को भूल कर किसी एक नेता को प्रधानमंत्री बनाने पर सहमत होना, उसका राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य होना, सिर्फ भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गरियाने के अलावा कोई और भी ठोस कार्यक्रम पर बातें करना, वगैरह।

अपने लक्ष्य निर्धारित करने से पहले विपक्ष को उन्हें चिन्हित करना होगा। किसी समस्या का समाधान ढूंढने की तरफ पहला कदम उस समस्या की सटीक पहचान करना है। यदि इसे लेकर विपक्ष में कोई भ्रम या अस्पष्टता है तो फिर उन्हें भाजपा की एक और लंबी पारी के लिए तैयार रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।

पाञ्चजन्य के संपादकीय में आम आदमी पार्टी (आप) द्वारा दिल्ली अध्यादेश पर सभी दलों से आम सहमति की मांग का उदाहरण देते हुए कहा गया, “आप ने दिल्ली के लिए लाए गए अध्यादेश के खिलाफ सभी दलों की सहमति की शर्त रखी। उमर अब्दुल्ला ने तुरंत पूछा कि जब अनुच्छेद 370 हटाने की बात थी, तब ये पार्टियां शांत थीं। असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि जो पार्टियां धारा 370 हटाने पर चुप रहीं, वे धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकती हैं? पांचजन्य का दावा है कि इसका मतलब है कि अनुच्छेद 370 के पक्ष में होना ही धर्मनिरपेक्ष होने की कसौटी है।

संपादकीय में कहा गया है- “भारत में इस्लाम के विस्तारवाद की यह अवधारणा धर्मनिरपेक्षता की उसी परिभाषा की पुष्टि करती है, जो एक बार अरुण शौरी ने दी थी”। गौरतलब है कि शौरी ने कहा था भारत में धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब है कि यदि मुसलमान 200 प्रतिशत अपने धर्म पर कायम रहते हैं, तो वे धर्मनिरपेक्ष हैं; और यदि हिंदू अपने धर्म को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं तभी वे धर्मनिरपेक्ष हैं।

लेख में आरोप लगाया गया है कि “तथाकथित विपक्षी एकता तात्कालिक (और वास्तव में आपराधिक) उद्देश्यों के लिए हो सकती है। इसका मकसद है उनके संबंधित स्थानीय और अलग-थलग नेताओं के कद और महत्व को बनाए रखना, उनके परिवारों के राजनीतिक-आर्थिक हितों की रक्षा करना वगैरह।” लेकिन इस बात पर जोर दिया गया है कि इस विपक्षी एकता की जड़ उसी हिंदू विरोध में है, जिसे वे धर्मनिरपेक्षता का नाम देते हैं।

संपादकीय का विचार है: “जैसे ही कांग्रेस कर्नाटक में सरकार में आती है, वह धर्मांतरण विरोधी कानून को खत्म करने और गोहत्या को मंजूरी देने की बात करती है। इससे धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर कांग्रेस का कद बढ़ जाता है। जाहिर है, ऐसी स्थिति में, अन्य दलों को कुछ भी करना होगा, और फिर उनमें हिंदू विरोधी होने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी”। हिंदू दक्षिणपंथी लेखकों और स्तंभकारों द्वारा कवर किए गए कुछ अन्य विषयों में पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का देश पर प्रभाव और विवादास्पद राजद्रोह कानून शामिल हैं।

स्पष्ट है की पाञ्चजन्य ने अपनी मुखपत्र की भूमिका ही निभाई है, पर विपक्ष को इसे एक सिरे से खारिज करने की बजाय इसके उस पक्ष पर गौर करना चाहिए, जिसमें सच्चाई छिपी है। इससे ही उसकी ईमानदारी साबित होगी। सवाल अब सच और झूठ का नहीं, सवाल यह भी है कि किसी झूठ में छिपे सच को और किसी सच में छिपे झूठ को कैसे पहचाना जाये, और उससे कौन सी राजनीतिक सीख ली जाये। भाजपा विरोधी दल के लिए अब यह बहुत जरूरी हो गया है।

(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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