संसदीय परंपराओं और मर्यादा का विसर्जन करते हुए विपक्ष के सवालों पर सत्तापक्ष बोलता रहा झूठ

संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान विपक्ष उतना दमदार नहीं दिखा, जितना उसे होना चाहिए था। कुछ प्रमुख वक्ताओं को छोड़कर, शेष अपनी बात बहुत प्रभावी ढंग से नहीं रख पाए। सत्ता पक्ष की तरफ से बोली गयी बातों का विपक्षी सदस्यों द्वारा मौके पर या अपनी बारी पर पुरजोर तरीके से खंडन क्यों नहीं किया गया, समझ से परे है। वे (सत्ता पक्ष) झूठ बोले यह बड़ी बात नहीं, क्योंकि वे तो आदी हैं इसके, पर बड़ी बात यह है कि उन अफवाहों को बगैर कड़े प्रतिवाद के सुन लिया गया।

अधीर रंजन चौधरी बहुत अच्छे संसदीय वक्ता नहीं हैं, उनका समय किसी और को देना चाहिए। जिस तरह की भूमिका कांग्रेस संसद के बाहर निभा रही है, उस तरह की भूमिका वह संसद के अंदर क्यों नहीं निभा पा रही है। संसद के बाहर जिस तरह विपक्षी, खासतौर से कांग्रेस अपने तेजतर्रार प्रवक्ताओं के जरिये अपनी बात रख रही है, उसी तरह से उसे संसद में भी अपनी बात रखनी चाहिए। यह कमी मणिपुर के मामले में रखे अविश्वास प्रस्ताव पर साफ नजर आई। जब समवेत स्वर में संसद में कोई प्रस्ताव लाया जाता है, तो उसके प्रभावी परिणाम को सुनिश्चित करने के लिए अच्छे वक्ताओं के चुनाव में भी प्रयास किये जाने चाहिए।

राहुल यद्यपि शुरू में मूल विषय से भटके लेकिन फिर उन्होंने राह पकड़ ली। फिर भी भावुकता से भरा उनका भाषण लोगों पर छाप छोड़ गया। जब ईमानदारी से अपनी बात कही जाती है तो वह अलंकारिक भाषा में न होने के बावजूद बड़े से बड़े वाग्जाल पर भारी पड़ जाती है। आज के दौर में उनकी निडर अभिव्यक्ति लोगों को आकर्षित करती है। राहुल प्रेस कांफ्रेंस में ज्यादा सहज और प्रभावी रहते हैं। इस अंतर को उन्हें समझना होगा।

वैसे प्रभाव तो सत्ता पक्ष भी नहीं छोड़ पाया, हालांकि गोदी मीडिया इसे सत्ता पक्ष के चौके-छक्के वाली बैटिंग के रूप में दिखा रहा है। गृहमंत्री का भाषण तो औसत भी नहीं लगा। वे मोदी जी की कॉपी करते हैं। शाह दूसरे का उपहास भी अपने नेता की शैली में उड़ाते हैं। उन्हें इससे भी नहीं फर्क पड़ता कि इस तरह उपहास उड़ाने के ढंग से उन्हें सड़कछाप समझा जाएगा। एक अटल जी और चंद्रशेखर जी का बोलने का ढंग था और एक यह ढंग है। अटल जी की अस्थियों के साथ उनके राजनीतिक संस्कृति और लहजे का भी विसर्जन कर दिया गया। यह बिलकुल नए टाइप का राष्ट्रवाद है।

मणिपुर पर सत्ता पक्ष के अधिकांश वक्ता बोलने में सक्षम नहीं थे, सो वे इधर-उधर की बातों में वक्त जाया कर रहे थे। गृहमंत्री के कलावती वाले मामले पर बोला गया झूठ सब जान गए, मगर इससे फर्क क्या पड़ना!

प्रधानमंत्री का भाषण तो पूरी तरह से बेपटरी था, जबकि सत्ता का पूरा तंत्र और संख्याबल उनको जबरन प्रभावी सिद्ध करने में लगा था। उनको सुनकर यह लग ही नहीं रहा था कि वे संसद में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर बोल रहे थे। लग रहा था जैसे वे किसी चुनावी सभा को संबोधित कर रहे हों। वे हर बात पर अपने दल और समर्थक दलों के सदस्यों से हामी भरवा रहे थे। आत्ममुग्धता इतनी कि अतीत में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं। नेहरू, इंदिरा सब के सब देशद्रोह में लिप्त थे, एक वही राष्ट्र के मूलाधार हैं। उनके इस लंबे पर अप्रासंगिक भाषण के बीच विपक्ष का वॉकआउट करना विपक्ष की मजबूरी थी। आखिर बे-सिरपैर का भाषण सुनने के लिए कोई क्यों बाध्य हो!

जब वे मणिपुर पर बोल ही नहीं रहे थे और पद की गरिमा के विपरीत फर्जी कहानियां सुना रहे थे, तो इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए वॉकआउट ही एक शालीन तरीका था। जब विपक्ष चला गया, तब आप मणिपुर पर बोलना शुरू हुए। जब माननीय खुद विपक्ष को सम्मान नहीं देते, तो उन्हें भी यह सब देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।

प्रधानमंत्री जी ने जिस तरह से पद की गरिमा के विपरीत विपक्ष पर तंज कसे और उपहास उड़ाया वह किसी तरह से शोभन न था। सत्ता पक्ष के सभी वक्ताओं का विषय राहुल थे, मणिपुर नहीं। प्रधानमंत्री जी ने तो ख़ैर पूरे खानदान को याद किया। जब आप तथ्यात्मक नहीं होते हैं तो आप चाहे जितना बड़ा-बड़ा बोल लें, वह बेअसर ही रहेगा। जो विदेश में अपने द्वारा हर साल एक नई आईआईटी और आईआईएम खोले जाने का दावा कर आए उसे यहां सच बोलने के लिए कौन बाध्य कर सकता है। अजीब आत्ममुग्धता का दौर है !

जिस तरह पूरे भाषणों में सत्ता पक्ष द्वारा मुद्दे से भटकाव किया गया वह शर्मनाक है। स्मृति ने जिस तरह से फ्लाइंग किस वाला मुद्दा उछाला उससे उनकी योजना को समझा जा सकता है। पहली बात जब लोकसभा ही अभी तक यह तय नहीं कर पाई कि राहुल गांधी का इंगित जेस्चर फ़्लाइंग-किस वाला था भी या नहीं तो आप किस आधार पर जजमेंट दे रहीं थीं। दूसरी बात जब राहुल लोकसभा अध्यक्ष की ओर मुंह करके बोल रहे थे तो ईरानी ने ये कैसे मान लिया कि फ़्लाइंग किस उनको और उनके दल की महिला मित्रों को समर्पित किया गया है। संसद को रंगमंच बनाने का श्रेय इन्हीं होनहारों को जाएगा।

कहने का आशय यह कि जब संसद के अंदर ऐसे-ऐसे होनहार लोग हों, जो अपने अतिरिक्त क्रियाकलापों के जरिये मुद्दे को डायवर्ट करेंगे ही करेंगे, तो विपक्ष को भी सत्ता पक्ष को घेरने के लिए पूरी तैयारी के साथ उतरना चाहिए, नहीं तो हर मुद्दे पर आप सही होने के बावजूद आप उनको मनचाहा शॉट खेलने के लिए मैदान खाली छोड़ देंगे। राजनीति हो या खेल का मैदान तब और सजग रहने की जरूरत है जब रेफरी भी उन्हीं की तबियत का हो।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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