Sunday, April 28, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: डीडीयू कुलपति पर हमला, तानाशाही के केंद्र में बदलता विश्वविद्यालय

गोरखपुर। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का शहर गोरखपुर पिछले एक सप्ताह से कुलपति व कुलसचिव पर हमले की घटना को लेकर देशभर में चर्चा में बना हुआ है। दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय (डीडीयू) की इस घटना को अंजाम देने का आरोप आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं पर लगा है। इस मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन की शिकायत पर पुलिस ने इन कार्यकर्ताओं को मुजरिम भी बनाया है। इसके बाद भी सड़क पर आंदोलनरत विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता ही दिख रहे हैं। फीस वृद्धि व कार्यकर्ताओं पर दर्ज मुकदमे वापस लेने समेत दर्जनभर मांगों को लेकर विद्यार्थी परिषद का धरना जारी है।

उधर कुलपति व कुलसचिव के ऊपर हमले को लेकर कुछ शिक्षकों की सहानुभुति के अलावा आक्रोश की कोई बड़ी तस्वीर बनते नहीं दिखी। अपने विभिन्न कारनामों को लेकर कुलाधिपति के दरबार में पूरे कार्यकालभर शिकायतों के अंबार लगे रहने के बाद भी जिस कुलपति की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन सवाल यह है कि आखिर संघ के छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं के हाथों कुलपति क्यों पिट गए। इस घटना के पीछे कोई तात्कालीक कारण रहा या पूर्व नियोजित साजिश के तहत इसे अंजाम दिया गया। यह चर्चा है कि शैक्षिक संस्थानों में जब लोकतंत्र कैदखाने में नजर आने लगे तो ऐसी घटनाएं सामने आ ही जाती हैं।

आजादी के बाद उत्तर प्रदेश का पहला विश्वविद्यालय होने का डीडीयू को गौरव प्राप्त है। अगस्त 1956 में विधानसभा से गोरखपुर विश्वविद्यालय अधिनियम पारित होने के साथ ही इसकी स्थापना हुई। विश्वविद्यालय से जुड़े रहे छात्रों व शिक्षकों के मुताबिक गोरखपुर के किसी भी कुलपति व कुलसचिव पर जानलेवा हमले की यह पहली घटना है।

विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो. चितरंजन मिश्र बताते हैं कि, “वर्ष 1977 में प्रो. देवेन्द्र शर्मा कुलपति थे। उस समय आपातकाल खत्म हुआ था। छात्रों ने किसी मामले को लेकर कुलपति का घेराव किया था। उस समय छात्रों की क्लास का समय था। कुलपति ने तब कहा था कि जाओ क्लास करके आओ, मैं यहीं बैठा रहूंगा। दोबारा आकर मेरा घेराव करना। उनकी बात सुनकर छात्र क्लास करने चले गए। छात्र वापस आए और कुलपति को बैठा देखकर और उनके धैर्य को देखकर अपनी बात रखी और वापस चले गए।” एक वे कुलपति का व्यवहार था तो दूसरी तरफ मौजूदा कुलपति।

21 जुलाई को प्रशासनिक भवन पर हुई कुलपति की पिटाई

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर अभाविप कार्यकर्ता चार दिन से धरने पर बैठे थे। वह अपने आठ साथियों के निलंबन वापसी और परिसर में प्रवेश पर लगी रोक के आदेश को निरस्त करने की मांग कर रहे थे। घटना के दिन कुलपति कार्यालय पहुंचे कार्यकर्ता अपनी मांगों को लेकर वार्ता करना चाहते थे। प्रशासन के संज्ञान न लेने से नाराज प्रदर्शनकारी दोपहर 12 बजे कुलपति कार्यालय गेट बंद कर नारेबाजी शुरू कर दी। कार्यकर्ता कुलपति को बुलाकर वार्ता करने की जिद पर अड़े थे।

तीन बजे कुलपति पुलिस के सुरक्षा घेरे में कार्यालय से बाहर निकले तो कार्यकर्ताओं को लगा कि वह वार्ता करने आ रहे हैं, लेकिन जैसे ही वह लिफ्ट की ओर जाने लगे नाराज कार्यकर्ता आक्रामक होकर हमलावर हो गए। पुलिस व सुरक्षाकर्मियों ने कुलपति का घेरा मजबूत किया लेकिन छात्र लपककर उनकी गर्दन और चेहरे तक पहुंच गए। धक्का-मुक्की के बीच छात्र लगातार हाथ चला रहे थे और सुरक्षाकर्मी कुलपति को बचाने में जुटे थे। किसी तरह पुलिसकर्मी उन्हें भीड़ से निकालकर सुरक्षित ले गए।

कुलपति को सुरक्षित करने के बाद पुलिस सख्त हुई तो कार्यकर्ता भी उग्र होकर उन पर टूट पड़े। दोनों पक्षों में जमकर मारपीट और झड़प हुई। इसी बीच कुलसचिव प्रो. अजय सिंह अकेले पड़ गए और कार्यकर्ताओं ने उन्हें घेरकर मारना शुरू कर दिया। कुलसचिव के जमीन पर गिरने के बावजूद कार्यकर्ता नहीं रुके और लगातार हाथ-पैर चलाते रहे। हमले में उन्हें चेहरे, शरीर और सिर में कई जगह चोटें आईं। कुलपति जैसे ही वाहन में बैठकर निकले कार्यकर्ताओं ने दूसरी मंजिल से कुलपति की गाड़ी पर गमले चलाना शुरू कर दिया। उनका वाहन क्षतिग्रस्त हो गया। चीफ प्राक्टर सत्यपाल सिंह को भी चोट आई।

पुलिस आधा दर्जन से अधिक छात्रों को हिरासत में लेकर कैंट थाने गई। इस घटना की पृष्ठभूमि 13 जुलाई से तैयार हो गई थी, जब विविध मांगों को न मानने के विरोध में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने कुलपति का पुतला जलाया था। पुतला जलाने का विरोध करने पर कार्यकर्ताओं ने प्राक्टोरियल बोर्ड पर हमला बोल दिया था, जिसमें चीफ प्राक्टर डॉ सत्यपाल सिंह को चोट भी आई थी। उस घटना को लेकर विश्वविद्यालय ने सात नामजद सहित 15 कार्यकर्ताओं के खिलाफ कैंट थाने में तहरीर दी थी। उसके अगले दिन ऐसे चार कार्यकर्ताओं को विश्वविद्यालय ने निलंबित कर प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया, जो छात्र थे। अन्य चार कार्यकर्ताओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

कुलपति की मेहरबानी कुलसचिव पर पड़ी भारी

हमले के सर्वाधिक शिकार हुए कुलसचिव प्रो. अजय सिंह। यह कहा जाता है कि शिक्षकों की वरिष्ठता में 22वें नंबर पर होने के बावजुद कुलपति ने प्रो. अजय सिंह पर 22 विभागों की जिम्मेदारी दी है। इसको लेकर शिक्षकों में उपजे असंतोष की राह विद्यार्थी परिषद तक पहुंचना स्वाभाविक है। विद्यार्थी परिषद के अधिकांश पदाधिकारी विश्वविद्यालय के शिक्षक ही हैं। प्रो. अजय सिंह के पास कुलसचिव के अलावा अधिष्ठाता छात्र कल्याण, अधिष्ठाता विज्ञान संकाय, अधिष्ठाता कृषि संकाय, निदेशक आईक्यूएसी, निदेशक इन्क्यूबेशन, विभागाध्यक्ष गृह विज्ञान, विभागाध्यक्ष कम्प्यूटर साइंस, नोडल अधिकारी पूर्वांचल विकास बोर्ड, समन्वयक रेट, समन्वयक रोस्टर समिति का पद है।

छात्र नेताओं का कहना है कि कार्यवाहक कुलसचिव प्रो. अजय सिंह के पास करीब दर्जन भर प्रशासनिक पद हैं। इनमें ज्यादातर का सीधा सम्बंध छात्रों से है। छात्र किसी भी काम को लेकर जाते थे, तो सीधे तौर पर मना कर देते थे। छात्रों की कई समस्याएं हैं। लेकिन कई प्रमुख प्रशासनिक पद होने के कारण वे सभी पदों के साथ समान रूप से न्याय नहीं कर पा रहे थे। छात्रों के बीच इस बात को लेकर भी असंतोष था। इतना ही नहीं डीडीयू में कार्यवाहक कुलसचिव की भूमिका निभा रहे प्रो. अजय सिंह के पास कुलपति की अनुपस्थिति में कुलपति का भी प्रभार होता है। जबकि प्रो.अजय सिंह की वरिष्ठता सूची 22वें नंबर की है। इसके अलावा वित्त अधिकारी की अनुपस्थिति में भी वे प्रभारी वित्त अधिकारी की भूमिका में होते हैं।

हॉस्टल खाली कराने को लेकर हुआ था टकराव

गोरखपुर विश्वविद्यालय में कुल सात हॉस्टल हैं। इनमें से दो महिलाओं के हैं। सबसे पुराना हॉस्टल नाथ चंद्रावत में पिछले तीन साल से पीएसी का कब्जा है। ऐसे में दूर-दराज के छात्रों को दिक्कतें होती हैं। छात्र संगठन हास्टल को खाली कराने की मांग को लेकर कुलपति के पास पहुंचे लेकिन उन्हें सीधे मना कर दिया गया। कुलपति की मंशा थी कि हॉस्टल में पीएसी की तैनाती रहेगी तो छात्रों में कार्रवाई का खौफ रहेगा। इतना ही नहीं यूनिवर्सिटी प्रशासन हॉस्टल में रहने वाले छात्र-छात्राओं से मेस के नाम पर 18 से 20 हजार रुपये वसूलता है। लेकिन छात्रों का आरोप है कि मेस में खाना तो खराब रहता ही है, बमुश्किल 100 से 120 दिन ही मेस का संचालन होता है। इन सब सवालों को लेकर छात्रों ने पूर्व में जमकर बवाल काटा था। ऐसे में छात्रों की नजर में कुलपति की निरंकुश छवि बन गई है।

शिक्षकों में रहा है गहरा असंतोष

शिक्षकों के संगठन गुआक्टा के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राजेश मिश्र का कहना है कि कुलपति जब शिक्षकों व छात्रों के सवालों की अनदेखी करने लगे तो, ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना स्वाभाविक है। कुलपति राजेश सिंह ने नियमों को ताक पर रखकर विश्वविद्यालय चलाते रहे। इनकी शिकायतों को कुलाधिपति के तरफ से अनदेखी की जाती रही। कुछ खास लोगों के हितों की पूर्ति के लिए किसी भी तरह के कदम उठाने के लिए तैयार रहने वाले कुलपति के खिलाफ आक्रोश स्वाभाविक है। हालांकि इन सभी शिकायतों के बावजूद कुलपति व कुलसचिव पर हमले की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसी घटनाओं की पुरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

निजीकरण की राह से पनपा असंतोष

आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े पूर्वांचल में स्थापित यह विश्वविद्यालय भी शिक्षा के निजीकरण के सरकारी अभियान से पीछे नहीं है। जिसकी सर्वाधिक मार कमजोर वर्ग के छात्रों पर पड़ना स्वाभाविक है। इसकी परिणति के रूप में ऐसी घटनाओं को देखा जा सकता है। यह आरोप लगाते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पूर्व उपाध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार अशोक चौधरी कहते हैं कि “ये सब पिछले 9 वर्ष से देश में चल रही सरकार की देन है। शिक्षा का निजीकरण, यूजीसी की भूमिका समाप्त करना, विश्वविद्यालय को आत्मनिर्भर बनाने के बहाने सुविधाओं में कटौती करना तथा दूसरी तरफ इन सबकी भरपाई के लिए फीसों में बेतहाशा बढ़ोतरी ने छात्रों में असंतोष पैदा किया है।”

उन्होंने कहा कि “अब हाल यह है कि एक तरफ प्राइवेट विश्वविद्यालयों की स्थापना हो रही है, दूसरी तरफ वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में फीसों में बढ़ोतरी के साथ ही सुविधाओं में कटौती हो रही है। ऐसे में ये विश्वविद्यालय प्रतिस्पर्धा में कैसे टीक पायेंगे। अब तो यह सरकार भी पूर्व के गुरुकुल प्रणाली की ओर संस्थाओं को ले जा रही है। छात्र व गुरु भीक्षाटन कर शिक्षा के केंद्र चलाते थे। अब सरकार ही ऐसे पूर्व छात्रों को आगे आने की अपील कर रही है, जो अपने सामर्थ के अनुसार संस्थानों को मदद कर सके। अब सवाल यह है कि किसान, भूमिहीन मजदूर परिवार के बच्चे जो बीएचयू, जेएनयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय तक जाने में असमर्थ थे, वे ही गोरखपुर विश्वविद्यालय में नामांकन कराते थे। उन्हें भी यह व्यवस्था उच्च शिक्षा से वंचित करने में लगी है।”

कुलपति व कुलसचिव पर हमले के बाद भी शिक्षकों के बड़े समुह की सहानुभूति नहीं मिलने के सवाल पर अशोक चौधरी का कहना है कि “यह कुलपति के तानाशाही रवैये का परिणाम है। एक शिक्षक का अकारण बार बार निलंबन व हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी पुनः निलंबन कुलपति की तानाशाही का एक ताजा उदाहरण है। ऐसे शिक्षक के पक्ष में खड़े होने वाले साथियों को नोटिस थमा दिया गया। कुलपति नौकरशाह की भूमिका में नजर आने लगे तो इससे बड़ी निरंकुशता क्या हो सकती है।”

उन्होंने कहा कि “एक वक्त वह भी था, जब कुलपति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह कहते हुए कैंपस में सभा करने की इजाजत नहीं दी कि छात्रों की पढ़ाई प्रभावित होगी। स्वायत्तशासी संस्था में जहां लोकतंत्र की जीवंत तस्वीर नजर आनी चाहिए वहां लोकतंत्र कैदखाने में है। शिक्षक संगठन व कर्मचारी संगठन की भूमिका नगण्य हो गई है। छात्रसंघों के चुनाव पर रोक है। ऐसे संस्थाओं में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना स्वाभाविक है।” हालांकि उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि “विद्यार्थी परिषद अगर फीस वृद्धि को लेकर चिंतित है, तो उसे आंदोलन अपने सरकार के खिलाफ करना चाहिए। जिसके आदेश के चलते विश्वविद्यालय ऐसे कदम उठाने को मजबूर है।”

(गोरखपुर से जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट।)

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M Singh
M Singh
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8 months ago

VC is fully responsible for the happening against him.He should have handled the situation carefully and wisely to avoid attack on him by listening the students and convincing them.

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