ग्राउंड रिपोर्ट: जम्मू के कठुआ में मानसिक बीमारी का प्रकोप, कई युवक चपेट में

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जम्मू। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 4 अक्टूबर से मानसिक स्वास्थ्य सप्ताह मनाने की शुरुआत की है। जो 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर समाप्त होगा। सप्ताह भर चलने वाले इस कार्यक्रम के दौरान शिक्षकों और छात्रों द्वारा विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। जिसमें सामूहिक परिचर्चा, लेखन, पोस्टर मेकिंग, स्लोगन लेखन और नुक्कड़ नाटक अहम हैं।

इसके अलावा छात्रों को योग और बागवानी से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में भी शामिल किया जाएगा ताकि इसके माध्यम से बच्चे स्वयं को मानसिक रूप से स्वस्थ रख सकें। इस प्रकार के अभ्यास का एक लाभ यह भी होगा कि बच्चे अपने हमउम्र मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चों की मनोस्थिति को समझ सकेंगे और उनके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार कर सकेंगे। याद रहे कि वर्ष 2020 से केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय मनोदर्पण नाम से इस कार्यक्रम को चला रहा है।

दरअसल, मानसिक रूप से कमज़ोरी एक शारीरिक विकृति है, जो कई बार जन्मजात और कई बार किसी गंभीर बीमारी के कारण उत्पन्न होती है। मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे जहां स्वयं को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं होते हैं वहीं शारीरिक रूप से कमज़ोर बच्चे मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं लेकिन सामान्य बच्चों की तरह जीवन गुज़ार नहीं पाते हैं। मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे अन्य बच्चों की तुलना में देरी से बैठना, देरी से चलना और बोलना सीखते हैं।

वैसे तो मानसिक दिव्यांगता के कई कारण हो सकते हैं। परंतु अगर हम कुछ मुख्य बिंदुओं की बात करें तो कभी-कभी यह बच्चों को माता-पिता से आनुवंशिक रूप से प्राप्त होता है। कभी कभी गर्भावस्था के दौरान माता को होने वाली समस्याएं- जैसे भ्रूण का पूर्ण विकास नहीं होना, गर्भ में बच्चे को पर्याप्त ऑक्सीज़न का नहीं मिलना, कुपोषण की समस्या और कभी कभी किसी दवा के रिएक्शन के कारण भी बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जबकि कई बार बच्चे को समय पर पूर्ण टीका नहीं मिलने के कारण भी शारीरिक अक्षमता उत्पन्न हो जाती है। ऐसे बच्चों में अक्सर काली खांसी, दिमागी बुखार या पीलिया से ग्रसित होने के बाद अचानक उनके शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है। कई बार वह पोलियो के शिकार हो जाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 450 मिलियन लोग वैश्विक स्तर पर मानसिक दिव्यांगता से पीड़ित हैं। वहीं अगर भारत की बात की जाए तो विश्व में मानसिक बीमारियों की समस्या से जूझ रहे लोगों में भारत का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा है। जबकि अन्य बीमारियों की तुलना में भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के फंड का आवंटन बहुत कम है।

वैसे तो मानसिक रोग के शिकार व्यक्तियों में कई लक्षण पाए जाते हैं, परंतु उनमें कुछ मुख्य लक्षण क्या है? जिससे हम रोगी को कम से कम शुरुआती दिनों में इस हद तक समझ सकें कि वह पूरी तरह स्वस्थ है या किसी मानसिक दिव्यांगता का शिकार है? कुछ महत्वपूर्ण लक्षणों की बात करें तो उनमें बौद्धिक मानकों को पूरा करने में विफलता, याददाश्त की समस्या, कार्यों के परिणामों को समझने में असमर्थता, तार्किक रूप से बात करने में असमर्थ, जिज्ञासा की कमी, सीखने में दिक्कत होना, चीजें याद रखने में कठिनाई होना, 70 से कम आईक्यू लेवल, बात करने में असमर्थ तथा खुद की देखभाल न कर पाना, यह कुछ ऐसे लक्षण हैं, जो दिमागी तौर पर कमजोर व्यक्तियों में दिखाई देते हैं।

देश के अन्य राज्यों की तरह केंद्र प्रशासित क्षेत्र जम्मू कश्मीर में भी कई ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी न किसी दिव्यांगता के शिकार हैं। इनमें मानसिक दिव्यांगों की कितनी संख्या है? इसका कोई भी स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। परंतु अगर बात करें कठुआ ज़िले की बिलावर तहसील स्थित ‘फिंतर’ गांव की, तो इस अकेले गांव में बहुत से बच्चे ऐसे हैं जो मानसिक रोग का शिकार हैं। इनमें से कुछ बच्चे किशोरावस्था को पहुंच चुके हैं। परंतु वह अब तक मानसिक रोग से ठीक नहीं हो पाए हैं।

गांव की 55 वर्षीय आशा देवी का कहना है कि “मेरे दो बेटे हैं। बड़ा बेटा एकदम स्वस्थ है। परंतु 26 वर्षीय छोटा बेटा डिंपल मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है। वह बचपन से ही इस रोग से पीड़ित है। बाकी शरीर से वह बिल्कुल स्वस्थ है। परंतु मानसिक तौर पर कमजोर है। जिसके चलते वह ज्यादा नहीं पढ़ पाया।

आशा देवी बताती हैं कि “बेटे डिंपल को ज़्यादा समय तक कुछ भी याद नहीं रहता है। उसका आईक्यू लेवल मात्र 40 है। जबकि डॉक्टरों के अनुसार एक स्वस्थ बच्चे का आईक्यू लेवल 90 से 110 के बीच होना चाहिए। जिसके चलते जब कभी वह सामान लेने दुकान पर जाता है तो वहां पहुंचते ही सब कुछ भूल जाता है।”

वो कहती हैं कि “अब डिंपल की आयु लगभग 26 वर्ष हो चुकी है और डॉक्टरों का कहना है कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो सकता है। मुझे दिन रात इसकी चिंता सताती रहती है कि भविष्य में उसका क्या होगा? मेरे पति की भी मृत्यु हो चुकी है। मैं चाहती हूं कि ऐसे बच्चों के लिए सरकार उनकी क्षमता के अनुरूप रोजगार का इंतज़ाम करे ताकि उन्हें जीवन भर किसी पर आश्रित न रहना पड़े”।

इसी गांव के रहने वाले देस राज का कहना है कि “मेरे दो बच्चे हैं और दोनों ही मानसिक रोग का शिकार हैं। बड़ा बेटा 16 साल का पीयूष 90 प्रतिशत दिव्यांग है जबकि 12 साल का छोटा बेटा आयुष 70 प्रतिशत मानसिक रूप से कमज़ोर है। बड़े बेटे पीयूष में जन्म से 6 महीने बाद ही पीलिया की शिकायत के बाद मानसिक विकार दिखने शुरू हो गए थे। वह बोल नहीं पाता है और न ही इस किशोरावस्था में वह किसी बात को समझ पाता है। हमें अपने दोनों बच्चों की भविष्य की चिंता सताती रहती है।”

इसी गांव के एक अन्य व्यक्ति गणेश बताते हैं कि “मेरा बेटा 45 प्रतिशत मानसिक रोग के कारण कम बोल पाता है। वह दिमागी तौर पर भी बहुत कमजोर है। जब वह केवल तीन चार दिन का था तब उसे बहुत तेज बुखार हुआ आया था जिसने उसके मस्तिष्क को प्रभावित किया। जिसके कारण वह मानसिक रूप से कमज़ोर हो गया है। अब उसकी आयु 18 वर्ष हो चुकी है परंतु उसके ठीक होने का कोई लक्षण नहीं दिख रहा है।” गांव के कुछ ग्रामीण बताते हैं कि यहां कई किशोर हैं जो मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं।

फिंतर गांव से कुछ ही दूरी पर एक अन्य गांव ‘बडडू’ के अंकू कुमार का कहना है कि “मेरा बेटा रिद्धिमान जन्म से 3 साल तक स्वस्थ रहा, उसके बाद उसमें मानसिक तौर पर कुछ बदलाव आने लगे, जिसके कारण वह धीरे धीरे मानसिक रोग का शिकार हो गया। आज उसकी आयु 10 वर्ष हो चुकी है। अब उसमें सामान्य बच्चों से अलग लक्षण दिखते हैं। उसका इलाज चंडीगढ़ में चल रहा है। परंतु डॉक्टर का कहना है कि बच्चों के दिमाग का विकास तकरीबन 5 वर्ष की आयु तक ही होता है। ऐसे में इसके सामान्य होने की संभावनाएं कम हो चुकी है।” अंकू कहते हैं कि हम अपना निजी व्यवसाय करते हैं और जो भी कमाते हैं वह इसके इलाज पर खर्च कर देते हैं।

डॉक्टरों के संगठन नेशनल न्यूरोलॉजी फोरम (एनएनएफ) पटना के सचिव डॉक्टर श्रवण कुमार अपने एक शोध में कहते हैं कि “कई बार माता-पिता की ओर से इलाज में देरी होने से भी बच्चा दिव्यांगता का शिकार हो जाता है। वह उसकी बीमारी को हल्के में लेते हैं। जो कभी कभी खतरनाक बन जाता है। अगर 3 वर्ष की आयु से ही समस्या दूर करने के लिए सही थेरेपी दी जाए तो वह सामान्य हो सकता है।” परंतु कई विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि बच्चों में कई बार मानसिक विकृति जन्मजात होती है और कुछ में यह जेनेटिक भी देखी जाती है।

बहरहाल, मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे सामान्य बच्चों की तरह भले ही व्यवहार न कर सकें, लेकिन यदि हम सामान्य बच्चों को उनके प्रति संवेदनशील बनायें तो ऐसे बच्चों और किशोरों को समाज में दोस्ताना वातावरण प्रदान कर सकते हैं। क्यों न हम ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करें जहां मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे भी सामान्य बच्चों के साथ एक क्लासरूम में पढ़ सकें।

(जम्मू के पूंछ से हरीश कुमार की रिपोर्ट।)

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