Saturday, April 20, 2024

लोकतंत्र में ‘शासक’ नहीं कानून का चलता है राज

गत दिनों गोरखपुर में मनीष गुप्ता की पुलिस द्वारा नृशंस हत्या की तरह आज लखीमपुर खीरी में भी किसानों के बर्बर हत्याकांड को संभव करने वाली यूपी पुलिस का ‘ठोक दे’ब्रांड मुंह छिपाता फिर रहा है। यह रोज नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट को मामले का स्वतः संज्ञान लेना पड़ रहा हो जबकि योगी सरकार ‘ब्लड मनी’ से कातिलों को बचाने में जुटी नजर आती है ! दरअसल, उसके लिए असली सबक यह होगा कि अपराधी का सफाया अपराध का सफाया नहीं होता। अलोकतांत्रिक पुलिस नीतियों की फसल पक जाए तो बोने वालों को ही काटनी भी पड़ेगी।

दरांग, असम का एसपी तो मुख्यमंत्री का भाई था, एक स्थानीय राजनीति में पला-बढ़ा अधिकारी। अतिक्रमण हटाने के क्रम में मोईनुल हक़ की नृशंस पुलिस हत्या में पुलिस के आपराधिक रवैये पर खामोश रहा! लेकिन गोरखपुर का एसपी एक नौजवान आईपीएस अधिकारी था जिसे कानून व्यवस्था की सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग मिली होगी। वह न सिर्फ मनीष गुप्ता की पुलिस हत्या को उचित ठहरा रहा था बल्कि अपने डीएम के साथ मृतक की पत्नी पर एफआईआर न दर्ज कराने का प्रशासनिक दबाव भी डाल रहा था। दरअसल, दोनों एसपी के व्यवहार और शब्दों में क्रमशः उनके मुख्यमंत्री ही तो थे जो पुलिस एनकाउंटर की गुंडा संस्कृति को खुलेआम बढ़ावा देते आ रहे हैं। योगी आदित्यनाथ और हिमांता बिस्वा सर्मा के प्रोत्साहन में उनकी पुलिस आपराधिक गिरोह वाला बर्ताव कर रही है।

अप्रैल में भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) का कार्यभार संभालने पर जस्टिस एनवी रमना ने इस गंभीर न्यायिक विसंगति को रेखांकित करने में देर नहीं की। 30 जून को दिए पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान में उन्होंने दो-टूक चेताया था कि हमने ‘कानून का शासन’हासिल करने के लिए संघर्ष किया था जबकि ‘कानून द्वारा शासन’एक औपनिवेशिक प्रवृत्ति है | यह समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसा क्यों कर हो पा रहा है ?

अंग्रेज शासकों ने भारत में ‘राजा का शासन’के स्थान पर ‘कानून का शासन’की अवधारणा लागू करने की पहल की थी। लेकिन, इसे उन्होंने नौकरशाही के माध्यम से औपनिवेशिक कानूनों द्वारा अपना निरंकुश शासन तंत्र चलाने की पद्धति के रूप में चलाया, जिसमें पुलिस अनिवार्यतः शासक की एजेंट होती थी। आजाद भारत में लोकतान्त्रिक संविधान अपनाया गया लेकिन बिना तदनुसार फौजदारी कानूनों और प्रक्रियाओं के अलोकतांत्रिक रुझान को पूरी तरह बदले। लिहाजा, जमीनी स्तर पर पुलिस शासक की कमोबेश उसी तरह एजेंट बनी रही जैसी अंग्रेजों के जमाने में हुआ करती थी। इसने देश में प्रायः एक ऐसे विरोधाभासी कानूनी निजाम को बढ़ावा दिया है, जहाँ संवैधानिक अदालतें अपनी व्याख्या ‘कानून का शासन’के तहत करती हैं जबकि पुलिस आये दिन नागरिकों को कानूनी हथकंडों द्वारा प्रताड़ित कर सकती है।

इस वर्ष अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाते भारत की न्यायिक वस्तुस्थिति का सार यही है कि औपनिवेशिक कानून-व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कानून-व्यवस्था से बदला जाना संभव नहीं हो सका है। सीजेआई रमना की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने गत शुक्रवार कहा कि देश भर के नौकरशाह खासकर पुलिस अधिकारियों का जो व्यवहार है उस पर उनकी गहरी आपत्ति है। सीजेआई ने इशारा किया कि वह ऐसे पुलिस अधिकारियों और नौकरशाहों के खिलाफ प्रताड़ना की शिकायत के परीक्षण के लिए स्टैंडिंग कमेटी बनाने की सोच रहे थे।

स्टैंडिंग कमेटी के सुझाव का दो आधार पर स्वागत किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के 2006 के पुलिस सुधार निर्णय में जिस राज्यवार पुलिस कम्प्लेंट्स कमेटी का प्रावधान किया गया था वह हर जगह छलावा सिद्ध हुयी क्योंकि वह उसी नौकरशाही और सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा थी जिसके विरुद्ध शिकायतें होती हैं | इसलिए, आज की स्थिति में, एक स्वतंत्र न्यायिक कमेटी के बिना कुछ नहीं बदलने जा रहा। और, जिस पैमाने पर पुलिस की रोजमर्रा की कार्यप्रणाली में हिंसा को नॉर्मल बना दिया गया है, वह एक सक्रिय दखल की मांग करता है, न कि नौकरशाही की तरह फाइल सरकाते जाने में या संवैधानिक अदालतों की तरह हाई प्रोफाइल मामलों में उलझ कर रह जाने में। यानी, पुलिस हिंसा पर नियंत्रण के लिए बनाई गयी स्टैंडिंग कमेटी की रूपरेखा ऐसी होनी चाहिये कि उसकी कार्यप्रणाली समयबद्ध हो और वह नियमित रूप से सक्रिय दखलंदाजी कर सके।

उदाहरण के लिए, अमेरिका की तुलना में, भारत में ऐसे व्यापक सरकारी/गैरसरकारी डेटाबेस सिस्टम उपलब्ध नहीं हैं जो नागरिकों को पुलिस हिंसा के प्रति लगातार सजग रख सकें। अमेरिका में नेशनल वाइटल स्टेटिस्टिक्स सिस्टम (एनवीएसएस) के आंकड़ों की तुलना तीन प्रमुख गैरसरकारी संगठनों के डेटाबेस से करने पर राज्यवार पुलिस हिंसा में बड़े पैमाने पर नस्लीय और जातीय पूर्वाग्रहों का खुलासा हुआ। साथ ही, यह भी सामने आया कि सरकारी आंकड़ों में पुलिस हिंसा की काफी कम तर रिपोर्टिंग की गयी है। इसने भी वहां के गत वर्ष के ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’आन्दोलन को तर्क और दिशा दी। फलस्वरूप, आज वे पुलिस सुधारों के एक बेहद महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं।

जाहिर है, सीजेआई के बेबाक समर्थन के बावजूद, अकेली स्टैंडिंग कमेटी के बस में नहीं होगा कि वह पुलिस हिंसा के ‘नार्मल’हो जाने का तोड़ बन सके। उसे नागरिकों को सशक्त करना होगा और इसके लिए रोजमर्रा की छोटी-बड़ी हर पुलिस हिंसा को रिकॉर्ड करना होगा। पुलिस हिंसा का एक निरंतर, व्यापक और पारदर्शी डेटाबेस, जो हर नागरिक की पहुंच में हो, इस दिशा में अनिवार्य कदम की तरह होगा।
(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकैडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

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