सुबह देखा कि एक आदमी अपनी महंगी टैक्सी की डिक्की में सब्जियां रख कर बेच रहा था ।
उससे पूछा कि कितने की है ये गाड़ी ? उसने बताया बारह लाख की ।
मैंने पूछा- कितने का धंधा हो जाता है इन सब्जियों को बेच कर ?
कहा उसने, बस इसकी किस्त निकल जाती है किसी तरह।
और पहले कितना कमा लेते थे इस टैक्सी से ?
लगभग अस्सी हजार महीना।
थोड़ा दिमाग पर ज़ोर डाला तो ध्यान आया कि ये अकेला नहीं जिसने इस प्रकार के अपने रोजगार को बदलने वाला।
पास की लॉन्ड्री वाला भी सब्जियां बेच रहा है और ब्यूटीपार्लर वाली भी।
लॉकडाउन से पहले ब्यूटी पार्लर चलाने वाली माधवी भी अब अपनी किराए की दुकान के बाहर सब्जियां बेच रही हैं और अनुराग लॉन्ड्री वाला भी।
तो प्रोपर्टी डीलर्स और कपड़े बेचने वाले भी।
ब्यूटीपार्लर चलाने वाली माधवी बताती हैं कि लॉकडाउन से पहले वो लगभग 30 – 35 हजार महीना कमा लेती थीं और एक दो स्टाफ को भी रखा हुआ था। अब सुबह चार बजे उठकर सब्जी मंडी जाती हैं और 2 हजार की सब्जियां ले कर आती हैं उनको बेचकर रोज़ाना का ख़र्च भी नहीं निकलता, यहां तक कि घर का किराया भी नहीं, वो बताती हैं कि जो घर का डिपॉजिट किया हुआ था उसी से किराया जा रहा है, मकान मालिक रोज़ाना किराए की मांग कर रहा है।

वो बताती हैं कि पिछले साल गणपति के समय में लालचंद नाम के एक तथाकथित बैंक एजेंट ने उनसे 12500 रुपये प्रधानमंत्री मुद्रा लोन दिलाने के नाम पर ठग लिए ।
लगभग रोते हुए वो बताती हैं कि अगर बेटी ना होती तो शायद …..
अनुराग लॉन्ड्री के मालिक भी अब सब्जियां बेच रहे हैं, लॉन्ड्री के मालिक दुर्गा प्रसाद अपनी पत्नी रीता और बच्चों के साथ दुकान में ही रहते हैं, रीता बताती हैं कि लॉकडाउन से पहले जीवन ठीक था अब लॉन्ड्री का काम तो एकदम बन्द है, सब्जियां बेच रहे हैं जिससे किसी तरह गुजारा हो जाता है बस।

करोड़ों लोगों की नोकरियां जा चुकी हैं, खबर आई थी कि रेलवे कर्मचारियों की पेंशन देने के पैसे नहीं बचे सरकार के पास।
एयर इंडिया के हज़ारों कर्मचारियों को बिना वेतन पांच साल की छुट्टी पर भेज दिया गया है ।
अध्यापकों को सैलरी नहीं मिल रही ।
नई नौकरियाँ नहीं हैं ।
हज़ारों प्राइवेट कारखाने, दुकानें, फैक्ट्रियां बन्द।
छोटे-मोटे काम जैसे चाय-पान-सिगरेट की दुकानें बन्द ।
घरों में काम करने वाली बाइयों का आना बंद।
अर्थव्यवस्था टूटने की कगार पर।

बैंकों से जिन पूंजीपतियों ने पैसा ले लिया वो वापस देने को तैयार नहीं।
छोटे-मोटे कोआपरेटिव बैंक बिना किसी प्रकार की पूर्व – सूचना के बन्द।
हज़ारों जमाकर्ताओं का पैसा डूब जाता है पर कहीं कोई सुनवाई नहीं।
क्या हम धीरे-धीरे मंदी के दौर में जा रहे हैं ?

या फिर इन हालातों को सुधारने के लिए सरकारें कुछ प्रयास कर रही हैं ? जिनकी जानकारी जनता को नहीं ।
पर मीडिया से जो जानकारी मिलती है वो तो सिर्फ पाकिस्तान, चीन, राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अभी कुछ समय पहले तक कोरोना के मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या, लॉकडाउन 1-2- 3, अनलॉक 1-2-3 और विश्वगुरु हम।
पर सवाल ये है कि क्या हम आने वाले भयावह सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक संकट को देख पा रहे हैं ?
उससे पैदा होंगे शारीरिक और मानसिक संकट भी ।

संकट रिश्तों में भी
अगर हाँ, तो क्या उपाय कर रहे हैं हम उसके लिए ?
या फिर सब मज़ा में छे
सब चंगा सी मान लें
माफ कीजिये मैं बड़े-बड़े आँकड़ों को नहीं जानता

बस जीवन जानता हूँ अपने आस-पास का
और वो फिलहाल सही दिशा में जाता नहीं लग रहा
ना कोरोना की दिशा में ना सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक दिशा में।
( मुंबई में रह कर अजय रोहिल्ला अभिनय के साथ स्वत्रंत लेखन का भी काम करते हैं।)