कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज कराना

Estimated read time 1 min read

उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज कराना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। दरअसल आजकल दीवानी मामलों की सुनवाई में अतिशय अदालती देरी के चलते दीवानी मामलों को आपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है, ताकि मन मुताबिक समझौते की संभावना बन सके। यही नहीं सुविधा शुल्क वसूली के लिए दीवानी मामलों को अपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति में पुलिस की भी मिलीभगत बढ़ती जा रही है। दीवानी मामलों को अदालत के बाहर निपटने में जहां अपराधियों/दबंगों की कंगारू अदालतें बनती जा रही हैं वहीं पुलिस भी सुविधा शुल्क वसूली के लिए इसमें कूद पड़ी हैं। ऐसे में उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण फैसला आया है, जिसमें कहा गया है कि दीवानी मामले को आपराधिक प्रकृति का बताने की कोशिश करना अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इसके पहले भी उच्चतम न्यायालय सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज कराने की प्रवृत्ति पर तल्ख टिप्पणियां कर चुका है।

ताजा मामला पुलिस आयुक्त बनाम देवेंद्र आनंद का है जिसमें न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कहा है कि शिकायत में आरोपों की प्रकृति पर विचार करते हुए हम इस दृढ़ राय से हैं कि आईपीसी की धारा 420/34 के तहत अपराध का संज्ञान लेने के लिए कोई मामला नहीं बनता है। मामले में एक सिविल विवाद शामिल है और सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज की गई है जो कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा कुछ और नहीं है। यह कहते हुए पीठ ने इस मामले में सभी आपराधिक कार्यवाही को समाप्त कर दिया और उच्च न्यायालय के एक आदेश को रद्द कर दिया।

शिकायतकर्ता का मामला यह था कि उसने एक संपत्ति की बिक्री के लिए समझौता किया था, जिसे बाद में मालूम हुआ कि वो संपत्ति एक बैंक में गिरवी रखी गई थी। यह पता चला कि उसने खुद ही धन का भुगतान किया और गिरवी संपत्ति को छुड़ाकर सेल डीड अपने नाम करा ली। इसके बाद उसने विक्रेताओं द्वारा धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की जिसे मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया। उसने फिर से धारा 200 सीआरपीसी  के तहत एक निजी शिकायत दर्ज की। इस शिकायत के लंबित रहने के दौरान उसने उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की और न्यायालय ने सुनवाई करते हुए कुछ निर्देश जारी किए। इन तथ्यों का उल्लेख करते हुए पीठ ने यह कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही कुछ और नहीं बल्कि किसी सिविल विवाद को निपटाने के लिए कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। हम न केवल दिए गए फैसले और आदेश को रद्द करते हैं, बल्कि लेन-देन के संबंध में मजिस्ट्रेट के सामने लंबित आपराधिक कार्यवाही को भी रद्द करते हैं,” पीठ ने जोड़ते हुए कहा।

उच्चतम न्यायालय ने इसके पहले व्यवस्था दिया था कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए हाईकोर्ट इस बात की पड़ताल कर सकता है कि जो मामला दीवानी प्रकृति का है उसे आपराधिक मामला तो नहीं बनाया जा रहा है। न्यायालय ने कहा कि अगर किसी मामले को दीवानी है पर उसे आपराधिक मामला बनाया गया है तो इस मामले का जारी रहना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इस मामले को निरस्त किया जा सकता है। यह व्यवस्था न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने प्रो आरके विजय सारथी बनाम सुधा सीताराम एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) 1434 / 2018,मामले में दिया था।

इस मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने आपराधिक मामलों को निरस्त करने के आरोपियों की अपील को सुनने से मना कर दिया था। मामले के तथ्यों के अनुसार यह विवाद दो परिवारों के बीच था । शिकायतकर्ता की बेटी आरोपी के बेटे की पत्नी है। बेटी की तलाक़ की अर्ज़ी पारिवारिक अदालत ने ख़ारिज कर दी। आरोपी के बेटे ने 17 फ़रवरी 2010 को अपनी सास के खाते में 20 लाख रुपए डाल दिए। बाद में जब दोनों के बीच वैवाहिक संबंध टूट गए तो उसने इस राशि की वापसी के लिए अपनी सास के ख़िलाफ़ एक दीवानी मामला दर्ज कर दिया। इसके बाद सास ने कहा कि यह राशि बाद में उसने अपने माँ-बाप को नक़द दी और उन लोगों ने इसकी कोई प्राप्ति रसीद उन्हें नहीं दी। सास ने आरोप लगाया कि आरोपी (उनकी बेटी का पति) और उसके मां-बाप ने मिली भगत से इस पैसे को निकाल लिया है और जो दीवानी मामला दायर किया गया है, उसमें कोई दम नहीं है। मामले में मजिस्ट्रेट के आदेश के बाद आईपीसी की धारा 405, 406, 415 और 420 (धारा 34 के साथ) एफआईआर दर्ज किया गया। हाईकोर्ट ने इस एफआईआर को निरस्त करने से मना कर दिया।

गौरतलब है कि अर्थ संबंधी मामले अर्थात जिनमें संपत्ति, क्रय-विक्रय, लेन-देन आदि पर विवाद शामिल हों, दीवानी (सिविल) मामले माने जाते हैं और दीवानी यानि सिविल विधि प्रक्रियाओं और दीवानी (सिविल) अदालतों के द्वारा निपटाएं जाते हैं। उदाहरण के लिए मकान मालिक और किराएदार के बीच किराए पर या मकान खाली करने आदि पर मतभेद के मामले अथवा संपत्ति के स्वामित्व या उत्तराधिकार आदि से जुड़े मामले। वास्तव में वे सभी कानूनी विवाद जो अपराध अथवा फौज़दारी से संबद्ध न हों, उन्हें दीवानी मामले कहा जा सकता है। फौजदारी कानून के अधीन वह सब मामले आते हैं जो आपराधिक कृत्यों से जुड़े हों उदाहरण के लिए हत्या, बलात्कार, धोखाधड़ी, मारपीट, डकैती, चोरी आदि के मामले। दीवानी मामलों के लिए सिविल प्रोसिजर कोड और फौज़दारी मामलों के लिए अपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) है।

इसके पहले भी उच्चतम न्यायालय कह चूका है कि यह एक आम धारणा बन गई है कि अगर किसी व्यक्ति को आपराधिक मामले में उलझा दिया जाए, तो मामले में समझौते की संभावना बढ़ जाती हैं। इस तरह का कोई भी प्रयास दूसरे पक्ष के व्यक्ति को हतोत्साहित कर सकता है, जो कभी किसी आपराधिक मामले में संलिप्त नहीं रहा है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और अमृत प्रभात से लेकर हिंदुस्तान कई दैनिक अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author