Tuesday, March 19, 2024

तबाही की कगार पर अकेला जोशीमठ नहीं

धंसते हुये जोशीमठ ने सारे देश का ध्यान आकर्षित कर दिया है। लेकिन भूगर्भीय और भौगोलिक दृष्टि से संवेदनशील इस हिमालयी राज्य में एक नहीं अनेक जोशीमठ हैं जो कि भूस्खलन, भूकम्प और त्वरित बाढ़ जैसी आपदाओं के लिये अति संवेदनशील चिन्हित किये गये हैं। खतरे की जद में घिरे इन नगरों में नैनीताल और मसूरी ही नहीं बल्कि हिमालय के चारों धाम बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री भी शामिल है।

जोशीमठ के ठीक सामने चाईगांव सन् 2008 से धंस रहा है। केदारनाथ के मुख्य पड़ाव गुप्तकाशी में भी धीरे-धीरे जमीन धंस रही है। कस्बे का निचला हिस्सा भूधंसाव की चपेट में है। बाजार में जलोत्सरण की कोई व्यवस्था नहीं है। कस्बे को रावल और खोखर गधेरों से भी खतरा है। चमोली जिले के देवाल ब्लाक का ल्वाणी गांव पिछले एक दशक से भूधंसाव की चपेट में है। कुल 180 परिवारों के इस गांव से 110 परिवार पलायन कर चुके हैं। लोग गांव छोड़ कर जान बचाने के लिये मगजीना तोक, पिलखड़ा, इजरपाट और सीमाचौर चले गये हैं। चमोली के ही कर्णप्रयाग नगर के बहुगुणानगर, सीएमपी बैंड, सब्जी मण्डी का ऊपरी भाग, अपर बाजार, शक्तिनगर और आइटीआइ क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है।

केदारनाथ आपदा के बाद सन् 2013 में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वे में 395 गांव खतरे में पाये गये थे जिनमें से 73 अत्यन्त संवेदनशील थे। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण 7 जून 2021 को जारी विज्ञप्ति के अनुसार 2012 से लेकर 2021 के बीच, सरकार ने 465 संवेदनशील गांवों की पहचान की है, जहां से परिवारों को स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। इस अवधि के दौरान, केवल 44 गांवों में 1,101 परिवारों को स्थानांतरित कर दिया गया। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार भी राज्य में खतरे की जद वाले गावों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। इसका कारण अधिकांश गावों का पुराने सुसुप्त भूस्खलनों के ऊपर स्थापित होना है। राज्य आपदा प्रबंधन केन्द्र के सर्वेक्षणों में मसूरी और नैनीताल भी खतरे की जद में हैं। नैनीताल में सन् 1880 में आये भूस्खलन में 151 लोग मारे गये थे।

देश के चार धामों में से एक ज्योतिर्मठ का बद्रिकाश्रम उसके मास्टर प्लान के लिये चर्चा में रहा है। इस मास्टर प्लान को ही धाम की मौलिकता के साथ ही नैसर्गिकता से छेड़छाड़ माना जा रहा है। यहां हर चौथे या पांचवे साल भारी क्षति पहुंचाने वाले एवलांच गिरने का इतिहास रहा है। सन् 1978 में वहां दोनों पर्वतों से इतना बड़ा एवलांच आया जिसने पुराना बाजार लगभग आधा तबाह कर दिया और खुलार बांक की ओर से आने वाले एवलांच ने बस अड्डा क्षेत्र में भवनों को तहस नहस कर दिया था।

बदरीनाथ मंदिर अपनी स्थिति के कारण एवलांच से तो थोड़ा सुरक्षित अवश्य माना जाता है मगर मंदिर को अलकनंदा के कटाव से खतरा अवश्य है। बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। मंदिर के ठीक नीचे करीब 50 मीटर की दूरी पर तप्त कुंड के ब्लॉक भी अलकनंदा के तेज बहाव से खोखले होरहे हैं। मंदिर के पीछे बनी सुरक्षा दीवार टूटने से नारायणी नाले और इंद्रधारा के समीप बहने वाले नाले में भी भारी मात्र में अक्सर मलबा इकट्ठा हो जाता है। इससे बदरीनाथ मंदिर और नारायणपुरी (मंदिर क्षेत्र) को खतरा रहता है। इससे पहले 1974 में भी बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट ने भी बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने का प्रयास किया था। लेकिन चण्डी प्रसाद भट्ट और ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत के नेतृत्व में स्थानीय लोगों के विरोध के कारण बदरीधाम धाम से छेड़छाड़ न हो पायी।

केदारनाथ धाम भी जोशीमठ की ही तरह ग्लेशियर और भूस्खलन के भारी मलबे के ऊपर स्थापित है। गत वर्ष सितम्बर में वहां बार-बार एवलांच आने की घटनाओं के बाद राज्य सरकार ने राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के निदेशक डॉ. पियूष रौतेला के नेतृत्व में वहां एक विशेषज्ञ कमेटी भेजी थी। कमेटी ने केदारनाथ को एवलांच के खतरे से तो सुरक्षित माना मगर चोराबाड़ी तथा एक अन्य ग्लेशियर द्वारा लाये गये अस्थिर और सक्रिय आउटवाश (मलबे) में स्थित इस धाम में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। कमेटी ने इस धाम के दोनों ओर बह रही मंदाकिनी और सरस्वती के द्वारा हो रहे कटाव का भी उल्लेख किया था।

इससे पूर्व भूगर्व सर्वेक्षण विभाग ने भी रामबाड़ा से ऊपर किसी भी तरह के भारी निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। लेकिन केदारनाथ आपदा के बाद सुरक्षा के नाम पर वहां पहले ही भारी भरकम निर्माण हो चुका था। कमजोर धरातल पर इतना भारी निर्माण एक और आपदा को निमंत्रण दे सकता है।

गंगोत्री धाम को भागीरथी नदी से ही बड़ा खतरा है। गंगोत्री धाम से 500 मीटर गोमुख की ओर अपस्ट्रीम में भागीरथी के दोनों ओर बीते तीन वर्षों में इतना मलबा जमा हो चुका है कि इससे बरसात में कभी भी भागीरथी का प्रवाह अवरुद्ध हो सकता है। जो गंगोत्री में भारी तबाही का सबब बन सकता है। गंगोत्री मंदिर के लिये भैरोंझाप नाला खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर का निर्माण उत्तराखण्ड को जीतने वाले नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने 19वीं सदी में किया था।

भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत ने अपनी एक रिपोर्ट में गंगोत्री मंदिर के पूर्व की ओर स्थित भैरोंझाप नाले को मंदिर के अस्तित्व के लिये खतरा बताया था। मार्च 2002 के तीसरे सप्ताह में नाले के रास्ते हिमखण्डों एवं बोल्डरों के गिरने से मंदिर परिसर का पूर्वी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। यह नाला नीचे की ओर संकरा होने के साथ ही इसका ढलान अत्यधिक है। इसलिये ऊपर से गिरा बोल्डर मंदिर परिसर में तबाही मचा सकता है।

यमुना नदी के उद्गम और सप्त ऋषिकुंड से निकलने वाली तीन धाराओं की तलहटी मलबे और बोल्डरों से पट गई है। इससे यमुनोत्री धाम और मंदिर परिसर के साथ ही तटवर्ती इलाकों पर आपदा के खतरे की आशंका जताई जा रही है। यमुनोत्री मंदिर के सिरहाने खड़े कालिंदी पर्वत से वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से मंदिर परिसर के कई निर्माण क्षतिग्रस्त हुए तथा छह लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2007 में यमुनोत्री से आगे सप्तऋषि कुंड की ओर यमुना पर झील बनने से तबाही का खतरा मंडराया जो किसी तरह टल गया। वर्ष 2010 से तो हर साल यमुना में उफान आने से मंदिर के निचले हिस्से में कटाव शुरू हो गया है।

चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर कैबिनेट सचिव की पहल पर इसरो ने सन् 2000 में वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान, भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, भौतिकी प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी उपग्रह संस्थान आदि कुछ वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग से हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के आसपास के क्षेत्रों का लैण्ड स्लाइड जोनेशन एटलस तैयार किया था। उसके बाद इसरो ने ऋषिकेश से बद्रीनथ, ऋषिकेश से गंगोत्री, रुद्रप्रयाग से केदारनाथ और टनकपुर से माल्पा ट्रैक को आधार मान कर जोखिम वाले क्षेत्र चिन्हित कर दूसरा नक्शा तैयार किया था। इसी प्रकार संस्थान ने उत्तराखण्ड की अलकनन्दा घाटी का भी अलग से अध्ययन किया था।

हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के लिये प्रकृति के साथ अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप भी खतरे का कारण है। चारधाम आल वेदर रोड के निर्माण के समय इसरो द्वारा तैयार लैंड स्लाइड जोनेशन एटलस की अनदेखी किये जाने से दर्जनों सुसप्त भूस्खलन पुनः सक्रिय होने लगे हैं। ऋषिकेश- कर्णप्रयाग रेल की सुरंगों के निर्माण में भारी विस्फोटों के कारण कई बस्तियां खतरे में पड़ गयी।

बिजली पररियोजनाएं तो पहले से ही पहाड़ों को खोखला कर रही थी। कर्णप्रयाग रेल लाइन की सुरंग के निर्माण से टिहरी का अटाली गांव, चमोली का सारी गांव और रुद्रप्रयाग के मरोड़ा गांव पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इस परियोजना के विस्फोटों ने श्रीनगर शहर के कुछ कस्बों को भी हिला कर रख दिया। उत्तरकाशी में 1991 के भूकम्प के बाद कई गांव संवेदनशील हो गये। जिला प्रशासन में 26 गांवों को संवेदनशील घोषित किया है। गंगोत्री मार्ग पर स्थित भटवाड़ी कस्बा भी जोशीमठ की तरह खिसक रहा है। इसी तरह मस्तड़ी गांव में मकानों पर दरारें आयी हुयी है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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