Friday, April 26, 2024

बोलने की आज़ादी पर अंकुश के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल: जस्टिस लोकुर

एक और उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस मदन बी लोकुर ने सोमवार को कहा कि सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिये राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है। अचानक ही ऐसे मामलों की संख्या बढ़ गयी है जिसमें लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं। कुछ भी बोलने वाले एक आम नागरिक पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है। इस साल अब तक राजद्रोह के 70 मामले देखे जा चुके हैं।

सेवानिवृत्त जस्टिस लोकुर ने ‘बोलने की आज़ादी और न्याय पालिका’ विषय पर एक वेबिनार को संबोधित करते हुए कहा कि बोलने की आजादी को कुचलने के लिए सरकार लोगों पर फर्जी खबरें फैलाने के आरोप लगाने का तरीका भी अपना रही है। उन्होंने कोरोना वायरस के मामले और इससे संबंधित वेंटिलेटर की कमी जैसे मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर फर्जी ख़बर के प्रावधानों के तहत आरोप लगाए जा रहे हैं।

जस्टिस लोकुर ने कहा कि सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का इस्तेमाल कर रही है। अचानक ही ऐसे मामलों की संख्या बढ़ गई है जिसमें लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं। कुछ भी बोलने वाले एक आम नागरिक पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है। इस साल अब तक राजद्रोह के 70 मामले देखे जा चुके हैं। इस वेबिनार का आयोजन कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउन्टेबिलिटी एंड रिफार्म्स और स्वराज अभियान ने किया था।

अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ न्यायालय की अवमानना के मामले पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनके बयानों को गलत पढ़ा गया। उन्होंने डॉ. कफील खान के मामले का भी उदाहरण दिया और कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत आरोप लगाते समय उनके भाषण और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उनके बयानों को गलत पढ़ा गया।

वरिष्ठ पत्रकार एन राम ने कहा कि प्रशांत भूषण के मामले में दी गई सजा बेतुकी है और उच्चतम न्यायालय के निष्कर्षों का कोई ठोस आधार नहीं है। राम ने कहा कि मेरे मन में न्यायपालिका के प्रति बहुत सम्मान है। यह न्यायपालिका ही है जिसने संविधान में प्रेस की आज़ादी को पढ़ा।

सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने कहा कि भूषण की स्थिति काफी व्यापक होने की वजह से लोगों का सशक्तीकरण हुआ है और इस मामले ने लोगों को प्रेरित किया है।

दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिसमें बोलना और लिखना दोनों शामिल है, के मौलिक अधिकार को लागू करने का मामला अब नागरिक-बनाम-राज्य का मुकदमा बन चुका है। जनवरी से लेकर अब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े उच्चतम न्यायालय में आए इन मामलों में उन्हीं याचिकाकर्ताओं को उच्चतम न्यायालय से राहत मिली, जिनकी याचिका का सरकारी वकील ने कोई विरोध नहीं किया। छह मामले ऐसे थे जहां सरकार की तरफ से आपत्ति जताई गई थी, ऐसे मामलों में उच्चतम न्यायालय ने उन्हें राहत नहीं दी। उच्चतम न्यायालय ने इन दस मामलों में अर्णब गोस्वामी और अमीष देवगन को राहत दी है लेकिन विनोद दुआ, हर्ष मंदर और शरज़ील इमाम को राहत नहीं दी।

कांग्रेस नेता पंकज पुनिया से जुड़े मामले में उच्चतम न्यायालय ने 30 मई को हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले मल्टीपल एफआईआर को रोकने के लिए दायर याचिका में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। पुनिया के एक ट्वीट पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में इन जगहों पर एफआईआर हुई थीं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र शरज़ील इमाम पर देशद्रोह और हेट स्पीच के आरोप में इस साल जनवरी में कम से कम पांच राज्यों: असम, अरुणाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में एफआईआर दर्ज की गई थी, उसके खिलाफ शरज़ील ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। 26 मई को, शरज़ील ने अपने खिलाफ मुकदमों को दिल्ली स्थानांतरित करने की मांग की, लेकिन अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं किया गया है । उच्चतम न्यायालय से शरज़ील को राहत नहीं मिली।

उच्चतम न्यायालय वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ आपराधिक जांच पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। दुआ पर हिमाचल प्रदेश में भाजपा नेता श्याम कुमार सैन ने देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कराया है। सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुनवाई में दुआ के केस का विरोध किया था और कहा था कि इसकी तुलना अर्णब और अमीष के मामलों से नहीं की जा सकती। फ़िलहाल मामला लम्बित है और दुआ की गिरफ्तारी पर रोक जारी है।

उच्चतम न्यायालय ने 18 मार्च को कफील खान के खिलाफ कथित तौर पर भड़काऊ भाषण के दर्ज प्राथमिकी को चुनौती देने के लिए उसकी की मां नुज़हर परवीन को  इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जाने का आदेश दिया। नागरिकता संशोधन कानून 2019 के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के मामले में कफील खान के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत केस दर्ज किया गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने डॉ. कफील खान को रिहा कर दिया है और उन पर लगाये गये रासुका को अमान्य घोषित करके निरस्त कर दिया।

कोविड-19 महामारी के मद्देनजर शाहीनबाग में 100 दिन के धरने को रोकने वाले प्रदर्शनकारियों ने भी सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है और आरोप लगाया है कि पुलिस ने प्रदर्शन स्थल को साफ कर दिया है और संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में एक वार्ताकार टीम नियुक्त किया था। इस टीम ने प्रदर्शन स्थल पर जाकर बातचीत की थी। तब प्रदर्शनकारियों ने विरोध स्थल पर एक हिस्से को खाली कर दिया था। मार्च में याचिका दायर करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय में यह अब तक सूचीबद्ध नहीं हो सका है।

मार्च में ही उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों से जुड़े एक मामले में सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर का केस सुनने से इनकार कर दिया था। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मंदर की याचिका पर आपत्ति जताई थी और कहा था कि वह लोगों को भड़काते हुए देखे गए थे। इसी तरह अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने के बाद संचार माध्यमों पर लगाए गए प्रतिबंधों से वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन से जुड़े एक मामले में हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का हवाला देते हुए मामले के तथ्यों पर फैसला नहीं दिया।

उच्चतम न्यायालय की दो जजों की अवकाश पीठ ने 26 जून को  पत्रकार नूपुर जे शर्मा और पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा दायर तीन अन्य लोगों के खिलाफ कई एफआईआर पर एक पक्षीय रोक लगाने की अनुमति दी और आगे की किसी भी सख्त कार्रवाई को निलंबित कर दिया। शर्मा की याचिका ने मामले में केंद्र को प्रतिवादी के रूप में सूचीबद्ध किया था लेकिन अदालत ने उसकी दलीलें सुने बिना पहली ही सुनवाई में राहत दे दी।

रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी ने अपनी याचिका में महाराष्ट्र में दाखिल एफआईआर रद्द करने की मांग की थी। पालघर में हुई दो साधुओं और एक ड्राइवर की लिंचिंग के बाद अर्णब ने अपने टीवी डिबेट शो में 21 अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर सवाल खड़े किए थे। इसके खिलाफ अर्णब पर कई जगह एफआईआर दर्ज की गई थी। 19 मई को उच्चतम न्यायालय ने पत्रकार को राहत देते हुए सिर्फ एक एफआईआर को छोड़कर सभी को रद्द करने का आदेश दिया था और कहा था कि एक ही घटना से संबंधित कई एफआईआर दर्ज करना प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

25 जून को उच्चतम न्यायालय ने पत्रकार अमीश देवगन के खिलाफ उनके शो में धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में एफआईआर पर रोक लगा दी। SC ने जांच को स्थगित करते हुए कई स्थानों पर दायर एफआईआर को नोएडा स्थानांतरित कर दिया। गोस्वामी और देवगन दोनों के मामलों में उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने किया। उन्होंने केस में मल्टीपल एफआईआर को समाप्त करने और उसे एक जगह रखने का समर्थन किया था। गोस्वामी के मामले में तो केंद्र सरकार के प्रतिनिधि वकील ने महाराष्ट्र पुलिस द्वारा मामले की जांच की आलोचना की और उसकी जांच सीबीआई को ट्रांसफर कराने तक की मांग की।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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