Saturday, April 20, 2024

यातना घर में बदलता देश

अभी मुंबई के रंगमंच का दृश्य फेड-आउट भी नहीं हुआ था, दिल्ली दंगे की चार्जशीट में नये नाम जुड़ जाने और उमर खालिद की गिरफ्तारी ने एक बार फिर आपको राजधानी की तरफ आने के लिए बाध्य कर दिया। भीमा कोरेगांव केस अपनी गति से चल रहा है। यह केस महाराष्ट्र का है लेकिन गिरफ्तारियां और पूछताछ अखिल भारतीय स्तर की हैं। दोनों ही बातें चल रही हैं।

भीमा कोरेगांव केस में पूछताछ और गिरफ्तारियों का मुख्य आधार यह नहीं है कि आरोपी भीमा कोरेगांव में हिंसा के दिन, उसके पहले या बाद में भी वहां गया था या नहीं। यहां बात यह भी नहीं है कि हिंसा किसने शुरू की और किनको नुकसान हुआ। मुख्य बात यह भी नहीं है कि भीमा कोरेगांव में आयोजन किसने किया था। तब, इस केस में गिरफ्तारियों का आधार क्या है? जिसके सिलसिले में फादर स्टेन स्वामी, पार्थो सारथी रे, वरवर राव के परिवार के सदस्यों से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे शिक्षकों से पूछताछ की गई।

भीमा कोरेगांव को दलित शौर्य की तरह देखने के नजरिये से फर्क रखने वाले आनंद तेलतुंबडे की गिरफ्तारी क्यों हुई? गौतम नवलखा का इस केस से क्या लेना देना है? हजारों पन्नों वाले चार्जशीट के बीच में बहुत से नाम दबे हुए हैं और अभी बहुत से नाम जुड़ते जाने हैं, और ये दोनों मसले यानी नाम खोज निकालने और जोड़ देने का काम कैसे हो रहा है, इसे यदि आप खोजने जाएं तब संभव है कि अंत में आप अपना नाम भी वहां टाइप होते हुए देख लें। 

लेकिन ऐसा कैसे संभव है? कई बार सवाल का जवाब सवाल ही होता है। पूछा जा सकता है, ऐसा क्यों संभव नहीं है? यह कहा जा सकता है, अब आप दिल्ली में ही देखिये। क्या आपको याद है जब कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अन्य छात्रों को जेएनयू से गिरफ्तार किया गया था? सिर्फ ये छात्र गिरफ्तार नहीं हुए थे, विश्वविद्यालयों की शिक्षा, उसकी बनावट से लेकर छात्रों को फौजी अनुशासन में रखने तक की बातें हुईं।

इस विश्वविद्यालय के गेट पर भीड़ जमा होने लगी थी, छात्रों को सबक सिखाने की बात तक होने लगी थी। और, उसके बाद जामिया मिलिया का हम सभी ने दृश्य देखा। हाथ उठाकर सरेंडर की मुद्रा में जाते हुए, ….। कौन लोग थे जो सरेंडर करा रहे थे? क्या यह युद्ध का दृश्य नहीं था? नहीं। क्योंकि, उन छात्रों के साथ युद्धबंदियों जैसा व्यवहार नहीं हुआ। लेकिन यह भी साफ दिख रहा था कि उनके साथ न तो कानूनी और न ही संवैधानिक बर्ताव किया गया था। 

इसके बाद दिल्ली में दंगे शुरू हो गये। भीमा कोरेगांव की तरह यहां भी माना गया कि यह दंगा योजनाबद्ध और षड्यंत्र के तहत कराया गया। गिरफ्तारियों का पैटर्न यहां भी पहले जैसा ही है। फर्क इतना ही है कि अभी यह दिल्ली तक सीमित है। गिरफ्तार होने वाले लोगों की वैचारिकी विविध है। चार्जशीट में नाम होने और जुड़ने का पैटर्न भी भीमा कोरेगांव केस जैसा ही है।

केस, चार्जशीट, पूछताछ और गिरफ्तारी की समानताओं का अर्थ यह नहीं है कि दोनों केस एक ही हैं। नहीं, एकदम से ऐसा नहीं है। कोर्ट में भी ये दो तरह के केस अलग-अलग तरीके से तय हो रहे हैं। दिल्ली दंगे में सबसे अधिक छात्र और युवाओं को गिरफ्तार किया गया है। इसके बाद राजनीतिक पार्टी के सदस्यों को एजेंडे पर लिया जा रहा है। महिला और मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षक, संस्कृतिकर्मी इसके बाद की श्रेणी में हैं। भीमा कोरेगांव केस में शिक्षक, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, वकील आदिवासी, दलित और मानवाधिकार के पक्षकार और संस्कृतिकर्मी हैं। यदि इन दोनों केसों में गिरफ्तार और नामजद लोगों के नाम जोड़ दिये जायें, तो ये वो लोग हैं जो छात्र, विश्वविद्यालय, मानवाधिकार, संस्कृति, किसान, महिला और दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करने वाली राजनीतिक विचारधारा के मोर्चे पर काम करते हैं।

यदि हम चुनाव के संदर्भ में देखें, तो इन दोनों ही समूहों को मिला देने से भी मोदी नेतृत्व की भाजपा को कोई चुनौती नहीं है। यदि हम राज्य व्यवस्था में अराजकता ला देने की ताकत के तौर पर देखें, तब भी यह समूह इतना ताकतवर नहीं दिखता है। मसलन, जब त्रिपुरा में सीपीएम को 2018 की विधान सभा चुनाव में हार मिली तब भाजपा समर्थित लोगों ने लेनिन की मूर्तियां तोड़ दीं। चंद महीनों पहले तक सरकार में रहने वाली सीपीएम-पार्टी अपने आदर्श की मूर्तियां तक बचा पाने की स्थिति में नहीं थी। ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि ऐसी क्या बात है जिसके तहत गिरफ्तारी-पूछताछ-गिरफ्तारी का सिलसिला एक ऐसे तौर तरीके से चलाया जा रहा है, जिसका आधार बेसिर-पैर जैसी दिख रही है।

इन बातों से निष्कर्ष पर पहुंच जाने से ज्यादा जरूरी है कि अपने समसामयिक राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज में आ रहे बदलावों को समझा जाए। देशभक्त होने का जो काॅमनसेंस बनकर खड़ा हो चुका है, उस जमीन का प्रयोग सिर्फ भाजपा ही नहीं कर रही है, इसका प्रयोग नौकरशाही और अब न्यायपालिका में भी होने लगा है। बतौर सरकार, इन तीनों का इस जमीन पर सम्मिलन संविधान और कानून की तार्किकता को बेअसर और बेमानी बना रहा है।

लोकतंत्र की व्यवस्था एक बेबस व्यवस्था में बदल रही है। इस काॅमन सेंस पर खड़े होकर एक मीडियाकर्मी अपनी कंपनी के माध्यम से एक चुनी हुई सरकार को जब चुनौती देने लगे, तब यह सोचना जरूरी है कि जिसे हम लोकतंत्र की व्यवस्था कहते हैं वह खुद ही दरक रही है। गिरफ्तारी-पूछताछ-गिरफ्तारी-…यह लोकतांत्रिक समाज, उसकी आकांक्षा और उसके निर्माण…..को खत्म करने का समीकरण है।

अभी तक इन दोनों ही केसों में गिरफ्तार होने वाले लोग दलित, आदिवासी, मुस्लिम, किसान, छात्र, महिला के पक्ष में बोलने वाले लोग हैं। इन वर्गों से आने वाले लोगों की गिरफ्तारियों का विरोध करने वाले, उनका केस लड़ने वाले लोग हैं। ये लोग इनके पक्ष में लिखने, बोलने, संगठित करने वाले लोग हैं। ये लोग यह लड़ाई कोर्ट में, शिक्षण संस्थान में, विचारधारा और लेखन में, जंतर-मंतर से लेकर देश में अन्य जगहों पर धरना, प्रदर्शन करने, ज्ञापन देने आदि के माध्यम से लड़ते रहे हैं। जिसे सिविल सोसायटी कहा जाता है। गिरफ्तारी-पूछताछ-गिरफ्तारी का समीकरण इसे ही खत्म कर देने के लिए लाया गया है। हम, आप सभी जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं है, बशर्ते हम इस बात को दिल को बहलाने के लिए न कहें!

 (अंजनी कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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