कुर्दिस्तान: एक स्वतंत्र मुल्क के सपने को हकीकत में बदलने का संघर्ष

Estimated read time 1 min read

मिडिल ईस्ट जल रहा है, जब इसकी लौ तेज़ हो जाती है तो ये हमें दिखाई दे जाता है, लेकिन जब लौ मद्धम होती है या कि बस आग सुलग रही होती है, तो हम इसे नहीं देख पाते। आज मिडिल ईस्ट में ऐसे ही एक ज्वलनशील एरिया से आपका परिचय करवाऊंगा जो आलमी सियासत का अहम मुद्दा होने के बावजूद भी फिलिस्तीन की तरह कभी चर्चा में नहीं रहा।

हम बात कर रहे हैं कुर्दिस्तान की, कुर्दिस्तान जो दुनिया के नक्शे में कहीं नहीं है, कुर्दिस्तान जो फ़िलहाल एक सपना है, लेकिन लाखों लोग कोशिश कर रहे हैं कि कुर्दिस्तान एक हक़ीकत बने, वो सौ साल से भी ज़्यादा समय से इस सपने के लिए क़ुरबानी दे रहे हैं।

तुर्की में कुर्दों के नेता अब्दुल्लाह उस्लान ने अपनी पार्टी से हथियार डालने, एक दल के रूप में खुद को भंग करने और दशकों पुराने संघर्ष को ख़त्म करने का अनुरोध किया है। ये आलमी सियासत में बड़ी खबर है और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की अहम सुर्खी भी, लेकिन हमारे देश की मीडिया में इस खबर को कोई जगह नहीं मिली।

अब्दुल्लाह उस्लान कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी के सीनियर नेता हैं और 1999 से तुर्की में क़ैद हैं। आपको जानकार शायद हैरानी हो कि PKK के नेता अब्दुल्ला उस्लान को नैरोबी से 1999 में इजराइल, अमेरिका और तुर्की के साझा प्रयास से अगवा किया गया था। यहाँ एक बार फिर आप को याद दिला दूँ कि तुर्की के राष्ट्रपति रजब तय्यब एरदोगन फिलिस्तीन के लिए बड़ी-बड़ी बातें तो करते रहे लेकिन उन्होंने इजराइल के साथ अपना व्यापार कभी बंद नहीं किया।

अजरबैजान जो एक शिया मुस्लिम देश है, इजराइल को लगातार आयल सप्लाई करता रहा जो वाया तुर्की इजराइल पहुँचता रहा, यही नहीं तुर्की और अजरबैजान ही इजराइल के लिए रसद सप्लाई की मुख्य जिम्मेदारी निभाते रहे, दूसरी तरफ शिया बहुल मुसलमानों का एक और देश ईरान फिलिस्तीन के लिए लड़ता हुआ दिखाई देता रहा।

ये सूचना उनके लिए बहुत ज़रूरी है जो मिडिल ईस्ट में जारी लड़ाइयों को शिया बनाम सुन्नी मुसलमानों की लड़ाई के तौर पर देखते हैं। यहीं ये जानना भी ज़रूरी होगा कि एक आज़ाद फिलिस्तीन देश की हिमायत लगभग सभी अरब देश करते हैं, दुनिया भर से फिलिस्तीन को ज़बरदस्त हिमायत हासिल हो रही है। ईरान, तुर्की, सीरिया और इराक़ भी एक आज़ाद फिलिस्तीन देश की हिमायत करते हैं और हाल की लड़ाइयों में सभी ने अपने तौर पर फिलिस्तीन की मदद भी की है, लेकिन ईरान, तुर्की, सीरिया और इराक़ में रह रहे कुर्दों को कोई भी देश उन्हें उनका देश देने को तैयार नहीं है।

भारत सहित दुनिया के तमाम देश एक तरफ लोकतंत्र, मानवाधिकार और न्याय का ढोंग करते हैं तो दूसरी तरफ राष्ट्रवाद की आड़ में ही राष्ट्रीयताओं का दमन भी करते हैं। कुर्द समूह का एक सदी से ज़्यादा का संघर्ष इस ढोंग का जीता जागता नमूना है।

आपने देखा कि तुर्की (सुन्नी), अजरबैजान (शिया), फिलिस्तीन (सुन्नी), ईरान (शिया) के बीच जंगों या इनके बीच कूटनीतिक लड़ाइयों की वजह धार्मिक नहीं है, यानि ये बात बिलकुल साफ़ है कि इनकी विदेश नीति इनके धार्मिक विश्वास से संचालित नहीं हो रही है।

अभी जब सीरिया में बशर अल असद की हुकूमत को ख़त्म करने के लिए गृह युद्ध जारी था, तब अमेरिका और इजराइल ने सीरिया में रह रहे कुर्दों का असद की हुकूमत के खिलाफ़ इस्तेमाल किया, लेकिन जब वहां नई हुकूमत बन गयी तो इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया। हालंकि कुर्दों ने सीरिया में एक स्वायत्त एरिया बना लिया है, लेकिन ये एक मुकम्मल मुल्क की तामीर तक जायेगा, इसकी फ़िलहाल कोई उम्मीद नहीं है।

आइये एक मुकम्मल मुल्क कुर्दिस्तान के लिए कुर्दों संघर्ष के इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं। कुर्दों का संघर्ष एक ऐतिहासिक और राजनीतिक संघर्ष है जो कई दशकों से चल रहा है। कुर्द लोग, जो मुख्य रूप से इराक, तुर्की, सीरिया और ईरान में रहते हैं, एक स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष न केवल उनकी पहचान और संस्कृति के लिए है, बल्कि उनके अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए भी है।

कुर्द लोग एक प्राचीन जाति हैं जो मध्य पूर्व के क्षेत्र में हज़ारों सालों से रहते आए हैं। उनकी अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराएं हैं। हालांकि, उन्हें कभी भी एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा नहीं मिला। ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद, कुर्दिस्तान के क्षेत्र को विभिन्न देशों में विभाजित कर दिया गया, जिससे कुर्द लोग अलग-अलग देशों में अल्पसंख्यक बन गए।

कुर्दों का संघर्ष 20वीं सदी में और अधिक तीव्र हो गया। तुर्की में, मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में नए तुर्की गणराज्य की स्थापना के बाद, कुर्दों की पहचान और अधिकारों को दबा दिया गया। कुर्द भाषा और संस्कृति पर प्रतिबंध लगा दिए गए, और कुर्दों को “पहाड़ी तुर्क” कहकर उनकी पहचान को मिटाने की कोशिश हुई।

इराक में, कुर्दों ने भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। सद्दाम हुसैन के शासनकाल में कुर्दों के खिलाफ कई दमनकारी कार्रवाइयां की गईं, जिनमें 1988 का हलाबजा नरसंहार भी शामिल है, जिसमें हज़ारों कुर्द मारे गये।

कुर्दों की मुख्य मांग एक स्वतंत्र कुर्दिस्तान की स्थापना है। वे चाहते हैं कि उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार मिले। कुर्दों ने अपने अधिकारों के लिए राजनीतिक संघर्ष किया है। इराक में, कुर्दिस्तान क्षेत्रीय सरकार (KRG) ने स्वायत्तता हासिल की है, लेकिन स्वतंत्रता की मांग अभी भी जारी है। तुर्की में, कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (PKK) ने हथियारबंद संघर्ष किया है, जिसे तुर्की सरकार ने आतंकवादी संगठन घोषित किया है। इसी संघर्ष को ख़त्म करने की बात PKK के नेता अब्दुल्ला उस्लान ने की है, जिसका उल्लेख मैंने शुरू में किया है।

कुर्दों ने अपनी पहचान और संस्कृति को बचाने के लिए भी संघर्ष किया है। उनकी भाषा और परंपराओं पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, लेकिन कुर्द लोगों ने इन प्रतिबंधों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी है।

कुर्दों के संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन मिला है। विशेष रूप से, इराक में ISIS के खिलाफ लड़ाई में कुर्द लड़ाकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके बाद उन्हें अंतरर्राष्ट्रीय समुदाय से समर्थन मिला।

वर्तमान में, कुर्दों की स्थिति विभिन्न देशों में अलग-अलग है। इराक में, कुर्दिस्तान क्षेत्रीय सरकार (KRG) ने स्वायत्तता हासिल की है, लेकिन स्वतंत्रता की मांग अभी भी जारी है। तुर्की में, कुर्दों के साथ संघर्ष जारी है, और सरकार ने कुर्दों के खिलाफ कड़े कदम उठाए हैं। सीरिया में, सीरियाई गृहयुद्ध के दौरान कुर्दों ने स्वायत्त क्षेत्र स्थापित किए हैं, लेकिन उनकी स्थिति अभी भी अस्थिर है।

कुर्दों का संघर्ष एक जटिल और लंबे समय से चल रहा संघर्ष है जो उनकी पहचान, अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए है। यह संघर्ष न केवल कुर्द लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि पूरे मध्य पूर्व क्षेत्र में शांति के लिए भी ज़रूरी है। कुर्दों की मांगों को पूरा करने और उनके साथ न्याय सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

ऐसा जब भी होगा, सीरिया, ईरान, तुर्की और इराक़ के कुछ हिस्से मिलकर एक देश कुर्दिस्तान बनेगा, और इन देशों को यही मंजूर नहीं है।आलमी ताकतें अपने नफे नुकसान की गणित के आधार पर कभी कुद्रों की तो कभी इनके खिलाफ़ इलाकाई मुमालिक का समर्थन करती हैं। ऐसे में इनका संघर्ष लगातार जारी रहने के बावजूद अपनी मंजिल यानि एक मुकम्मल मुल्क की तामीर तक नहीं पहुँच रहा है, लेकिन इराक और सीरिया में स्वायत्त इलाका बनाना इस कामयाबी की ओर एक क़दम तो है ही।

(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author