सागर। देश के विभिन्न उद्योगों में बीड़ी उद्योग भी शुमार है। बीड़ी उद्योग का फैलाव देश के उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे कई राज्यों में है। एक जमाना था जब बीड़ी कारोबार काफी फल-फूल रहा था। बीड़ी कारोबार के अच्छे दिनों ने बीड़ी कारोबारी और श्रमिकों की जिंदगी बदल दी थी। उन्हें आर्थिक तौर पर सम्पन्न बना दिया था। मगर, वक्त गुजरने के साथ सिगरेट, गुटखा जैसे अन्य नशीले पदार्थों ने देश में बीड़ी की मांग को कमतर कर दिया। बीड़ी की कम मांग ने कई बीड़ी ब्रांच के दरवाजों पर ताला लटका दिया।
नतीजतन, रफ़्ता-रफ़्ता हुआ यह कि, बीड़ी कारोबार का पहिया अपनी पटरी से उतर गया। मौजूदा दौर में बीड़ी उद्योग बीड़ी कारोबारियों और श्रमिकों के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। बीड़ी करोबार की गिरती साख से सबसे ज्यादा दुखी वे मजदूर हैं, जो बीड़ी बनाकर परिवार का पेट पालते थे। अब बीड़ी श्रमिकों का बीड़ी के काम से भरण-पोषण करना दुश्वार हो गया है।
बीड़ी कारोबार की चुनौतियां और बीड़ी श्रमिकों का दुख-दर्द समझने के लिए हमने मध्य प्रदेश के सागर जिले का भ्रमण किया। मध्य प्रदेश में सागर बीड़ी के काम का एक प्रमुख क्षेत्र माना जाता है। बीड़ी उद्योग की खस्ता हालात के बावजूद जिले की अवाम बीड़ी पर मुनहसर है। सागर के लोग आज भी बीड़ी पर इसलिए आश्रित हैं क्योंकि सागर का औद्योगिक विस्तार सीमित है।
बीड़ी कारोबार से जुड़े इस भ्रमण में पहले हम हनोता कलाँ गाँव पहुंचे। सुरखी विधानसभा से सटे हनोता कलाँ गाँव की दूरी सागर जिले से तकरीबन 35 किलोमीटर है। गाँव की (आबादी लगभग 3000) संकरी गलियों से जब हम गुजरे तब चाय-पान की एक टपरी पर हमें कुछ बुजुर्ग लोग बैठे दिखाई दिए। ये बुजुर्ग लोग बीड़ी के कारोबार से जुड़े हुए हैं। इनमें से एक शंकरलाल पटेल हैं। इनकी उम्र करीब 70 वर्ष है।
बुजुर्ग शंकर बीड़ी कारोबार पर बोलने और नाम बतलाने से कतराते हैं वह कहते हैं कि, ‘‘वर्तमान दौर में खुद का नाम बताने से दिक्कत हो जाती है। इसलिए नाम नहीं बताना चाहते थे। शंकर आगे कहते हैं कि, हमने करीब 20 साल बीड़ी की सट्टेदारी की है। लेकिन, बीड़ी उद्योग की खस्ता हालत के कारण हमारे कारीगरों (श्रमिकों) का और हमारा अब तक फंड ही नहीं मिल पाया। वर्ष 2002-03 तक हम लोगों ने 5000 से 10000 तक का फण्ड कटवाया था। जो नहीं मिला”।
आगे वह बीड़ी उद्योग की हालत पर कहते हैं कि, ‘‘बीड़ी उद्योग बिल्कुल डल हो गया है। अब बीड़ी शाखाओं ने हमसे बीड़ी लेना भी बंद कर दिया है। हमारे साथ रजिस्टर्ड 7 कारीगर और गैर-रजिस्टर्ड 40 कारीगर काम करते थे। बीड़ी कारोबार में हमने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। बीड़ी के काम के चलते ना हम खेती किसानी कर पाए और ना मजदूरी। मगर, बीड़ी कारोबार हमारी जिंदगी राख कर गया। बीड़ी कारोबार को गुटखा और तंबाकू के प्रचलन ने ठप्प कर दिया है। अब बीड़ी का प्रयोग गाँव-देहात और पिछड़े इलाकों तक सीमित है”।
आगे शंकरलाल यह भी कहते हैं कि, ‘‘पहले अफवाह थी कि, विशेष तौर पर बीड़ी श्रमिकों को आवास योजना का लाभ दिया जाएगा, मगर हुआ कुछ भी नहीं। हमारी सरकार से यह मांग है कि, बीड़ी श्रमिकों को विशेष तौर पर आवास योजना का लाभ दिया जाना चाहिए”।शंकरलाल के बाजू में बैठे गोकल प्रसाद रजक (उम्र करीब 62) डॉ हरीसिंह गौर सेंट्रल यूनिवर्सिटी से बीए पास हैं। गोकल ने करीब 15-20 वर्ष बीड़ी का काम किया।
उनका कहना है कि, ‘‘बीड़ी कारोबार अब बहुत डाउन हो गया है। पहले कारीगर को तेंदूपत्ता की बहुत आजादी थी, वजह थी तेंदूपत्ता का फड़। फड़ तेंदूपत्ता एकत्रित करने और खरीद-फरोक्त करने का जरिया था। लेकिन, अब उसे बंद कर दिया गया है। अपनी निजी जिंदगी को लेकर वह कहते हैं कि, बीड़ी के काम से बमुश्किल मैं परिवार का पेट ही भर पाया। मगर, बच्चों को कभी प्राइवेट अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा पाया”।
आगे बीड़ी मजदूर दरोगा रैकवार (उम्र 76 वर्ष) कहते हैं कि, ‘‘बीड़ी के काम में ना पहले फायदा था और ना अब है। बीड़ी के काम में अब बहुत आलस आता है, फिर भी दो पैसे की आमदनी के लिए बीड़ी बनाते हैं। दरोगा इसके आगे कुछ कहने की गुंजाइश नहीं छोड़ते”।
फिर, बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए 58 वर्षीय काशीराम अहिरवार बोलते हैं कि, ‘‘मैं बीड़ी के नशे का आदी हूं। बीड़ी पीने से कई बीमारियों का शिकार हो गया हूँ। पहले दांत खराब हुए, फिर सांस चलने लगी। अब सांस के साथ आँखों से कम दिखाई देता है”।
वहीं, आगे हमारी बात तिजईं (उम्र 78 वर्ष) से होती है। तिजईं करीब 40 वर्ष की उम्र से बीड़ी के नशे में लिप्त हैं। उनका कहना है कि, ‘‘बीड़ी के नशे का असर यह है कि, बीड़ी नहीं पीने पर पेट फूलने लगता है”। तिजईं के परिजन बताते हैं कि, ‘‘तिजईं को दिन में खाना ना मिले तो कोई परेशानी नहीं, मगर बीड़ी का बंडल रोज चाहिए”।
अपने कदम बढ़ाते हुए हम आगे की ओर जाते हैं तब हमें अपनी दलान में तेंदूपत्ता काटती दिखती हैं चंपा। उनसे जब हमने पूछा आपकी उम्र कितनी है? तब वह कहती हैं उम्र हमें पता नहीं। मगर, अंदाजे से वह 60-65 वर्ष की होंगी। चंपा कहती हैं ‘‘हम भूमिहीन है। जब से मैंने होश संभाला है तब से बीड़ी का काम ही मेरे हाथों में रहा है। इस बीड़ी के काम में सट्टेदार ने जितनी आमदनी दी, बस वही मेरे पास रही। अब तक सरकार से राशन और पेंशन के अलावा कुछ मिला नहीं।,,
आगे हमारी बात होती है काशीबाई से। वह कहती हैं कि, ‘‘मैंने 16 साल की उम्र से बीड़ी बनाई है। लेकिन, सरकारी राशन के लिए गरीबी रेखा का परमिट तक नहीं बना। बीड़ी बनाने में जो फंड कटौती हुई वह सट्टेदार के हाथ से हमारे हाथ में आयी ही नहीं। बीड़ी कारोबार इसलिए तबाह हो गया क्योंकि, तेंदूपत्ता घट गया। बीड़ी का बाजार खत्म हो गया। बीड़ी पीने वाले कम हो गए। आज यदि हमारे लड़के-बच्चे कोई अन्य काम न करें तब हमारा परिवार भूखा मर जाए”।
दोपहर की कड़कड़ाती धूप में हम हनोता कलाँ गाँव को पीछे छोड़ते हुए मोटरसाईकिल से निकल पड़े करैया गाँव की ओर। करैया गाँव (आबादी करीब 3000) पहुँचे तब देखा कि वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ है। गाँव में कच्ची सड़क से अंदर की ओर गए तब हमें अपने कच्चे घर में बीड़ी भाँजती दिखी मछला। वह कहती हैं कि, ‘‘बीड़ी…तो हम कभी-कभार बनाते हैं। बीड़ी से अब खाना-पीना चलना भी मुश्किल है। ऐसे में हम मजदूरी पर निर्भर रहते हैं। बीड़ी के काम से हमें पक्का घर तक नसीब नहीं हुआ। हम अपने कच्चे घर के छप्पर पर पॉलिथीन डाल का बरसात के दिन गुजारते हैं”।
जब हमने पूछा कि, क्या आपको पीएम आवास योजना का लाभ नहीं मिला? तब मछला बोलती हैं कि, ‘‘पीएम आवास योजना का लाभ तो छोड़िए, हमें तो शौचालय योजना का तक लाभ नहीं मिला। कुछ मिला तो सिर्फ 400 ईंट। इस ईंट के साथ कुछ पैसा हमने लगाया तब कहीं टूटा-फूटा शौचालय बना। मगर शौचालय का अब तक एक रुपया नहीं आया”।
मचला के शब्द थमते हैं कि, मचला के पति बब्बू बोल पड़ते हैं। वह कहते हैं कि, ‘‘मैं 40 साल से बीड़ी बनाता आ रहा हूँ। आज हमारे यहाँ 1000 बीड़ी बनाने का 70 रूपए मिलता है। यह 1000 बीड़ी आमतौर पर एक व्यक्ति दो दिन में बना पाता है। सोचिए इतने पैसे में गुजारा कैसे चलेगा”?
मछला का हाल-चाल पूछने उनके घर आईं सरोज अहिरवार से भी हमारा संवाद होता है। वह बताती हैं कि, ‘‘जब खेती-किसानी का काम लग जाता है, तब बीड़ी बनाना बंद कर देते हैं। बीड़ी के काम में ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते में 500 रूपए आय हो पाती है। महंगाई के इस दौर में कम से कम 500 रुपये तो एक हफ्ते की सब्जी के लिए चाहिए होते हैं। ऐसे में घर का खर्च तो कठिनाई से मिलती मजदूरी से ही चलाना पड़ता है”।
सरोज आगे एक सुझाव भी देती हैं। वे कहती हैं कि, ‘‘करैया गाँव के आस-पास 10-12 गाँव हैं। यदि इन गाँव को देखते हुए सरकार कोई फैक्ट्री शुरू कर देती है, तब यहाँ के लोगों को आजीविका का सुनिश्चित साधन मिल जाएगा। जिससे लोगों को परिवार का भरण-पोषण करने में आसानी होगी”।
करैया गाँव से हम करीब 2 किलोमीटर चले कि, आ पहुंचे विधानसभा सुरखी में। सुर्खी का बाजार बड़ा सहज और देशीपन से ओतप्रोत नजर आ रहा था। बाजार के बीचों-बीच हम दुकानों को निहारते हुए जा रहे थे कि, हमारी नजर पड़ी तुलसी राम अहिरवार पर। हमने देखा कि, उनका आधा पैर कटा हुआ है। आधा पैर कटा होने के बावजूद तुलसीराम जूता-चप्पल पालिश व बनाने का काम कर रहे थे। तुलसीराम का पैर कैसे कटा और उनकी स्थिति कैसी है?
यह जानने के लिए हम उनके करीब पहुंचे। जब हमने तुलसीराम से बातचीत की तब वह बताते हैं कि, ‘‘मैं बीड़ी के नशे का आदी था। नशे का प्रभाव यह हुआ कि, मेरा पैर गैंग्रीन रोग की चपेट में आ गया। पैर के इलाज में हमारा 50 हजार रुपए खर्च हुआ, मगर पैर में आराम नहीं आया। रोग का दर्द इतना दर्दनाक था कि, मैं रात भर सो नहीं पाता था। ऐसे में तिली अस्पताल के डॉक्टर को मेरे पैर का अंगूठा काटना पड़ा। बावजूद इसके मुझे गैंग्रीन रोग से मुक्ति नहीं मिली। तब डॉक्टर को मेरा पैर ही काटना पड़ा”।
तुलसीराम आगे बताते हैं कि, ‘‘गैंग्रीन रोग के संबंध में डॉक्टर का कहना था कि, बीड़ी पीने से धुआँ लगातार शरीर के अन्दर प्रवेश हो रहा था। ऐसे में धुआँ ने गैंग्रीन रोग को जन्म दे दिया”।
तुलसीराम पहले बीड़ी कारोबार से जुड़े हुए थे। मगर, पैर गँवाने के बाद उन्होंने बीड़ी कारोबार छोड़ दिया। आगे जीविका के लिए उन्होंने जूता-चप्पल पालिश व बनाने का काम शुरू किया। अब इसी धंधे से अपनी गुजर-बसर चला रहे हैं।
सुरखी के बाजार में आम लोगों की व्यस्तताओं को देखते हुए हमने अन्य गाँव की ओर अपना रुख किया। तब हम सुरखी से सटे गाँव विदवास पहुंचे। विदवास गाँव और सुरखी के बीच 3 किलोमीटर की दूरी है। विदवास एक हरा-भरा और खेती किसानी से जुड़ा गाँव है। जब हम इस गाँव के अंदर प्रवेश करते हैं। तब हमें एक मंदिर के पास कुछ लोग बैठे दिखाई देते हैं। हम लोगों के पास जाकर उनका हाल-चाल पूछते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू करते हैं।
पहले अपने विचार रखते हैं टीकाराम। वह बताते हैं कि, ‘‘विदवास गाँव की जनसंख्या करीब 4000 है। पहले लोग बीड़ी उद्योग पर निर्भर थे। लेकिन, नष्ट होता बीड़ी उद्योग अब ज्यादातर लोग छोड़ चुके हैं। विदवास गाँव और इसके आसपास रोजगार का कोई साधन नहीं है। ऐसे में यहाँ के लोग इंदौर, पूना, दिल्ली जैसे शहरों में रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं”।
आगे बीड़ी कारोबार पर बोलते हुए उदयभान कुशवाहा कहते हैं कि, ‘‘मुझे बीड़ी बनाने व पीने से सांस और आँखों से कम दिखने की बीमारी है। बीड़ी के काम में आर्थिक दिक्कतें इतनी ज्यादा हैं कि, थोड़ा भी स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो कम से कम 5000 रूपए तक कर्ज लेना पड़ जाता है। हमारे आसपास बीड़ी मजदूरों के स्वास्थ्य हेतु अलग से कोई विशेष सुविधा तक नहीं है”।
उदयभान आगे बताते हैं कि, ‘‘बीड़ी के काम में 10 साल मेरा फंड कटा था। फंड की राशि तीन बार दी जानी थी। मगर मुझे केवल एक बार 8000 रूपए बस मिले। इसके बाद फंड का कोई पैसा नहीं मिला”।
आगे हम चर्चा करते हैं, सत्यनारायण पांडे से। वह कहते हैं कि, ‘‘आज से कुछ साल पहले एक शख्स ने हमसे 10000 रुपए की ठगी की है। मुझ बीड़ी मजदूर से यह ठगी आवास दिलाने के नाम पर की गई। मगर आवास तो छोड़िए, पैसा तक वापस नहीं मिल सका”।
फिर, इसके आगे जब हम गाँव का भ्रमण करते हैं तब एक घर के आंगन में कुछ महिलायें और लड़कियाँ हमें बीड़ी बनाती दिखती हैं। तब हम परिवार के पास पहुंच कर संवाद करते हैं। बीड़ी भाँजती लक्ष्मीरानी इस संवाद में बताती हैं कि, ‘‘बीड़ी के काम में हम दिन-रात एक कर देते हैं, मगर फिर भी दो दिन 80-100 रूपए कमा पाते हैं। इतने पैसे में जीविका चला पाना भी कठिन है। मगर फिर भी जैसे-तैसे हमने अपने बच्चे को कक्षा 4 तक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया है। इसके आगे बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ता है, आगे बच्चे को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की हिम्मत हम नहीं जुटा सके”।
आगे हमने लक्ष्मीरानी से जानना चाहा कि, क्या आप लोगों का बीड़ी कार्ड बना है और उसका कोई लाभ मिल रहा है? तब लक्ष्मीरानी दावा करतीं हैं कि, ‘‘विदवास गाँव से करीब 50 महिलायें बीड़ी कार्ड बनवाने बीड़ी अस्पताल सागर गयीं थीं। बीड़ी कार्ड बनवाने और किराये सहित प्रत्येक महिला के 400 रूपए खर्च हुए थे। मगर, बीड़ी कार्ड बनने के बाद उसका कोई लाभ अब तक नहीं हुआ। बीड़ी कार्ड का उपयोग बस यही है कि, हमें दिखता है कि, ये बीड़ी कार्ड है और आप जैसा कोई बीड़ी कारोबार पर चर्चा करने आ जाता है, तब कार्ड उसे दिखा देते हैं”।
लक्ष्मीरानी के साथ बीड़ी बनाने बैठी आशारानी पटेल का कहना है कि, ‘‘बीड़ी के काम से इतना पैसा नहीं हो पाता है कि बेटा-बेटी की शादी ठीक से कर सकें। हमने कुछ समय पहले बेटी की शादी की तब हमें 100000 रूपए ब्याज के आधार पर कर्जा लेना पड़ा है”।
आगे आशारानी जिक्र करती हैं कि, ‘‘बीड़ी के काम में त्यौहारों पर बोनस वगैरह भी मिलता है। मगर, बोनस बीड़ी ठेकेदारों तक सीमित रहता है। बीड़ी मजदूर को बोनस भी नहीं मिलता। आज बीड़ी का काम एक हफ्ते में हमें लगभग 500 रूपए मेहनताना दे पाता है। इतने कम रूपए में हम बहुत थोड़ी-थोड़ी खाने-पीने की सामग्री खरीद पाते हैं। परिवार का पेट खाली ना रहे इसलिए हमारे बच्चे भी बीड़ी बनाते हैं”।
आशारानी की बेटी अनीता पटेल तीन वर्ष से बीड़ी बना रही हैं। हमने अनीता से बात करते हुए पूछा कि इस उम्र में तो आपके हाथ में काफी-किताब होना चाहिए आपके हाथ में बीड़ी क्यों है? तब बताती हैं कि, ‘‘मैं एग्रीकल्चर विषय से कक्षा 12 पास हूँ। मगर, पैसे की तंगी और कॉलेज की दूरी ने मेरी शिक्षा और भविष्य को सीमित कर दिया”।
अनीता की बहन गायत्री पटेल 15 वर्ष की है। गायत्री कक्षा 10 वीं की छात्रा हैं। पढ़ाई के साथ घर खर्च चलाने के लिए गायत्री को भी बीड़ी बनानी पड़ती है। यह स्थिति केवल अनीता और गायत्री तक सीमित नहीं है। बुन्देलखंड के कई ग्रामीण इलाकों में गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों की लड़कियां मजबूरन पढ़ाई छोड़कर बीड़ी बनाने का काम करती हैं।
(सतीश भारतीय स्वतंत्र पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश में रहते हैं।)
जारी…