मन सपना के महल बनावे
दुनिया ढेला चलावे।
जाने का लिखल किस्मत में
ई ना पता चल पावे
जिनिगिया के खेला समझ में ना आवे,
बनले के साथी सब केहू होला
बिगड़े पs मुंह घुमावे हाय,
समय हसावे समय रोआवे,
समय ही नाच नचावे।
जिनिगिया के खेला समझ मे ना आवे…
रागिनी अपनी लय को थोड़ा और धीमे करते हुए, जैसे वह अपने फेफड़ों को आराम देना चाहती हों- फिर सांस लेने के बाद…
जान बुझ के ना कोई माली
आपन बगिया जरावे।
हारमोनियम पर थिरकती अंगुलियों को आहिस्ता-आहिस्ता वो रोक देती हैं, और जमीन पर मटमैले कपड़े में रखे हारमोनियम को एकटक निहारने लगती हैं। भोजपुरी निर्गणु के शब्द, हारमोनियम पर थिरकती उंगलियां और कंठ से फूटती स्वर लहरियां भले ही मनोरंजन वस्तु हो सकती हैं, जिनमें जीवन संघर्ष, परिस्थितियों के द्वन्द, मुकद्दर का फरेब और घोर उपेक्षा की तस्वीर नुमाया होती है। मानो, हारमोनियम व इसके की-बोर्ड पर थिरकती उंगलियां, गीत गाती स्त्री को काजल की कसमसाहट से घिरी आंखों के पीछे छिपे कई सवालों को जिंदगी का खेल समझ नहीं आ रहा है। लुहार-बंजारा समाज की कश्ती ऐसे भंवर में उलझी हुई है, जो आजादी के अमृतकाल में भी रोटी और कपड़ा कमाने के लिए कई बार आबरू भी दांव पर लगाने का जोखिम उठाना पड़ता है। पेश है रिपोर्ट…
चंदौली, उत्तर प्रदेश। “मर्दवादी समाज हमारे संगीत में फूहड़ता खोज लेता है। लोकगीत, भजन, निर्गुण, स्वागत, हंसी-वनोद, उल्लास, जीवन संदर्भ जैसे स्वस्थ्य मनोरंजन के गीतों से परहेज करता है। भोजपुरी के वैसे और अश्लील गानों को गावता है। पैसे भी देता है। घर से दूर पराई औरतों और लड़कियों पर लार टपकाना आम है। वापस अपने देस-समाज में भले बने रहने का चोला ओढ़े फिरते हैं, जो सफल भी होते हैं। हम औरतें पेट भरने और बाल-बच्चों को जिलाने के लिए हारमोनियम-ढोलक पर स्वर संगत, कई वर्षों की तालीम और समाज की सबसे कठिन विधा संगीत को अपना पेशा बनाया है।
जो एकाग्रता, लय-ताल, उतार-चढ़ाव और बंदिशों को कसने-ढीले करने का निहायत श्रम-साध्य काम है। अब जब समाज के ही लोग हम लोगों के सामने बेहयाई पर उतर आते हैं। इधर हम लोगों व परिवार को शाम तक दाल, रोटी, तेल के लिए रुपये भी कमाने हैं, नहीं तो शायद भूखा ही सोने पड़े। तब थोड़ा हमें भी बेशर्म होना पड़ता है। हालांकि, सभी मर्द ऐसे नहीं होते हैं। मजबूरी है। बचपने से कमाते आ रहे हैं। हम लोग गरीब आदमी हैं। हम लोगों के पास कुछ नहीं था। हम लोग मेहनत करते हैं। हमारा नाम पुष्पा है।”
हर रोज संघर्ष
चंदौली जनपद के नौबतपुर में राष्ट्रीय राजमार्ग-2 के दक्षिण दिशा में बसे लुहार बंजारे समाज के वर्तमान के आईने में झांकें तो वह कहीं से भी मुख्यधारा के करीब नहीं दिखता है। मसलन, ग्रामीण लोग इनकी गलियों में असहज होकर पलभर में दाएं-बाएं करते तेजी से बढ़ निकलते हैं। लुहार-बंजारे समाज के मर्द और नौजवान अक्सर काम नहीं मिलने से बेरोजगार रहते हैं। इनके छोटे बच्चे आंगनबाड़ी में तो जाते हैं, लेकिन वे वहां क्या सीखते हैं। इसके बारे में कुछ स्पष्टतया कहना मुश्किल है।
इनकी बस्तियों में साफ-सफाई का अभाव, कच्ची गलियां और मेन सड़क से जोड़ने वाला चौड़ा रास्ता भी मिट्टी का होने की वजह से मानसून के दिनों में आवागमन मुश्किल में होता है। लोग राशन को छोड़कर अन्य किसी योजना के लाभ से वंचित हैं। आर्थिक और सामाजिक उत्थान का हर रास्ता बंद है। इस समाज को अपने पेट की आग बुझानी ही प्राथमिकता में है, जो सुबह से लेकर शाम तक साल के बारह महीने चलता रहता है।
देश के राजस्थान, महाराष्ट्र, नागालैंड, मणिपुर, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, असम, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, सिक्कम, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, मेघालय, उत्तराखंड, गोवा, हरियाणा, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, हिमाचल प्रदेश, केरल, झारखंड और उड़ीसा, चंडीगढ़, दादरा, नगर हवेली और दमन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, जम्मू और कश्मीर ,लद्दाख, लक्षद्वीप और पुडुचेरी आदि राज्यों से यूपी-बिहार की सीमा पर नौबतपुर में राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर रोजाना हजारों की तादात में ट्रक चालाक, परिचालक, हेल्पर, मजदूर और दर्जनों पड़ोसी जनपदों के नागरिक भी लुहार बंजारे समाज की महिला गायिकाओं के गीत सुनते हैं।
साथ ही विवशता का फायदा उठाकर अतिरिक्त पैसे का लालच देकर उनके साथ अश्लील हरकतें भी करते हैं। मिली जानकारी के मुताबिक ट्रकों, कार, ट्रेलर, बस, रोड के किनारे सुनसान पड़े टेंट, मकान, दुकान, सुनसान बगीचे इतना ही नहीं किसी अय्याश का बंगला भी इनकी विवशता का गवाह होता है।
चूंकि परिवार को चलाने के लिए इन्हें रोज रोटी-दाल का जुगाड़ करना होता है, ऐसे में ढोलक-हारमोनियम और गायिकी के साथ माइक्रो प्रॉस्टिट्यूट धंधे से भी इन्हें गुरेज नहीं है। यह सब करते-सहते महिलाएं-बच्चियां ऊब चुकी हैं। कई इस धंधे को छोड़कर सम्मानजनक काम-धंधा करना चाहती हैं, लेकिन इनके पास कोई विकल्प नहीं है।
हाशिए पर समूचा जीवन
सरक़ार, जनप्रतिनिधि और सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाज को मुख्यधारा में लाने का कोई सकारात्मक प्रयास नहीं दिख रहा है। हारमोनियम और ढोलक की थाप पर हिंदी और भोजपुरी गीतों के मुखड़े-टुकड़े गाने से पेट की आग तो बुझ जा रही है, लेकिन मर्दवादियों के नीयत में खोट की चोट, बेतहाशा मंहगाई, राजनीतिक-सामाजिक उपेक्षा, गरीबी, अशिक्षा, स्वस्थ्य विपन्नता समेत हाशिये पर पड़े समूचे जीवन को विकास का कोई स्थाई लक्ष्य नहीं दिख रहा है। इनके दुःख और संघर्षों के बादल कई दशकों से छंटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
चंदौली में लुहार-बंजारे समाज की आबादी 400 से अधिक है। ये लोग चंदौली के साथ इलाहाबाद, गाजीपुर, गोरखपुर, मऊ, वाराणसी, मिर्जापुर, शाहगंज, रॉबर्ट्सगंज, विंध्याचल, छपरा, सिवान, सासाराम और भभुआ में तकरीबन दस हजार से अधिक की संख्या में कई पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। पहले प्लास्टिक के तिरपाल में इनकी गृहस्थी बसती थी, अब कच्चे-पक्के मकानों में रहने लगे हैं। तब से लेकर आज तक इस समाज के जीवन स्तर में बहुत फर्क नहीं आया है।
धंधे पर मोबाइल का असर
पुष्पा आगे कहती हैं कि “पहले हम लोगों के गाने की बहुत मांग रहती थी। देसी-परदेशी हम लोगों के संगीत को बड़े ही चाव और लगन से सुनते थे। खुश होकर जो पैसे देते थे, उससे घर-परिवार का गुजारा हो जाता था, लेकिन अब मोबाइल और यू-ट्यूब का दौर है। अब तो पूछ घट गई है, लोग अपने मनोरंजन के लिए ऑनलाइन का सहारा ले रहे हैं। इससे हम लोगों के धंधे पर असर पड़ रहा है।
शाम तक तीन से चार लोगों की टीम 400 से 500 रुपये कमा भी लेती है, लेकिन इससे एक दिन का राशन भी नहीं खरीद पाते हैं हम लोग। बस किसी तरह से जिंदगी कट रही है। सरकार को हम लोगों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ करना चाहिए। विवशता ऐसी है कि किशोरी, सयान लड़कियां और बहुएं सभी को हारमोनियम के साथ सड़क पर उतरना पड़ता है।”
ईंट भट्ठा मजदूर
महिलाएं गीत गाती हैं और लोगों का मनोरंजन करती हैं। यहां पास में कई ईंट भट्ठे होने की वजह से पुरुष और बच्चे ईंट भट्ठों में मिट्टी से ईंट पाथने का काम करते हैं। जो मिलता है, उसे खाने और नशे पर खर्च कर देते हैं। यह काम भी लगातार नहीं मिलता। कई-कई दिनों तक लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है। चूंकि ये लोग घोर अशिक्षित होते हैं, इससे समाज के चालाक लोगों द्वारा इनके शोषण की कहानियां भी आम हैं। अब कई नौजवान गांव और कस्बों में भवन निर्माण व महानगरों के कल-कारखानों में मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। इससे कुछ युवा अपने समाज के आर्थिक और सामाजिक पक्ष पर ध्यान देना शुरू किये हैं।
अब और नहीं…
जोगिंदर लुहार की उम्र 29 साल है। उनकी दो छोटी-छोटी बेटियां हैं। वे बताते हैं कि “मैं सातवीं दर्जे तक पढ़ाई किया हूं। मेरी पढ़ने में रूचि थी, लेकिन ढोलक बजाने के लिए मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गई। पढ़ाई तो सातवीं के बाद आगे नहीं बढ़ सकी, लेकिन बाद के सालों में नौकरी-रोजगार के लिए सूरत, दिल्ली, हैदराबाद और लुधियाना में जाकर काम किया। कई सालों तक काम करने के बाद समझ में आया कि यहां मेहनत से रोटी कमाने में सम्मान भी है और स्थिरता भी है। मैंने शहरों में देखा कि सभी लोग कोई न कोई काम कर अपने परिवार और बच्चों को पाल रहे थे। जिसमें कोई शर्म और हिचकिचाहट नहीं थी। इसमें मान-सम्मान भी है।
लेकिन, मेरे समाज और गांव में स्थिति बहुत खराब है। बचपन में मैंने खुद महसूस किया है। गाना सुन रहे लोगों को अपने समाज की महिलाओं की आबरू से छेड़छाड़ करते मैंने अपनी आंखों से देखा है। पैसे का लालच देकर अपनी हवस मिटाने की याचना भी लोग करते दिखे। इस तरह की बातें आज भी होती हैं। महिलाओं, लड़कियों और बहुओं को पेट भरने के दबाव में आबरू से समझौता करना पड़ता है। यही वजह है कि गांव और आस पास के लोग हमारे समाज को हेय दृष्टि से देखते हैं।”
समाज बदले नजरिया
जोगिंदर आगे बताते हैं कि “कुछ सालों बाद शहर से गांव आया। मेरी शादी हुई। मैंने तय किया कि यह सब अब और नहीं। शादी के बाद कुछ दिन तक समाज की अन्य महिलाओं के साथ मेरी बीबी भी सड़क पर लोगों के साथ गाने गई। मैंने उसके इस फैसले का विरोध किया और कहा- हम लोगों को अपने बच्चों के भविष्य के खातिर हारमोनियम, ढोलक के साथ समाज के विद्रूप चहरे के सामने गाना-बजाना बंद करना होगा। अपना और बच्चों का पेट पालने के लिए हम मेहनत-मजदूरी करेंगे। बीबी को मेरा फैसला रास नहीं आया। वह कुछ महीने तक मेरे साथ संघर्ष की। फिर मुझे और बच्चों को छोड़कर किसी और के साथ इसी पेशे में जुटी हुई है।”
वो कहते हैं कि “पढ़ने की उम्र में लड़कियों को बन-संवर कर पराये मर्दों के पास भेज देने से अब मेरा दिल दुखता है। मैं अपनी बच्चियों की परवरिश गीत-संगीत से दूर पढ़ाई-लिखाई के साथ करवाना चाहता हूं। चूंकि हम लोगों का कुनबा भूमिहीन है। पूंजी या प्रापर्टी के नाम पर सिर्फ आधा-अधूरा बना हुआ घर है। सरकारी कोई सुविधा नहीं मिलती। मेहनत-मजदूरी का काम भी कभी-कभार मिलता है। आर्थिक तंगी और बड़ी कठिनाई में जीवन गुजर रहा है। सही मायने में समाज के सुधी लोगों और सरकार को हमारी फ़िक्र है तो कुछ करना चाहिए। एक निवेदन और है हम लोग मेहनत से आगे बढ़ाना चाहते हैं, समाज को भी हम लोगों के प्रति अपने नजरिये को ठीक करना चाहिए।”
बचपन से थी पढ़ने की चाह
महज सोलह वर्ष की रूपा हारमोनियम लेकर जमीन पर बैठी थीं। इसी बीच दो किशोरियां कॉलेज ड्रेस में उनके सामने से गुजरीं। रूपा ने उन्हें एक पल के लिए देखा। फिर अपने काम में जुट गई। रूपा बताती हैं कि “पढ़ना तो मैं बचपन से चाहती थी। घरवालों ने जाने क्या-क्या मजबूरियां बताकर कक्षा तीन के बाद आगे नहीं पढ़ाया और धंधे में उतार दिया। रूपा को चिंता है कि सुबह-सुबह ठंडे में काम पर निकल लिया जाए नहीं तो लू और चिलचिलाती धूप में सड़क पर घूमने में बड़ी परेशानी होगी।
वापस लौटना मुश्किल
रूपा बताती हैं कि “सुबह से हमारी दिनचर्या की शुरुआत होती है। लोगों से गाना सुनने के लिए अनुरोध करते हैं। कोई सुनता है कोई नहीं सुनता है। उसी में कोई गलत हरकत और बात बोलता है। जिसे बर्दाश्त करना पड़ता है। गाना सुनकर कोई दस, बीस और कोई पचास दे देता है। शाम तक 250 से 300 रुपये की कमाई हो जाती है। जिसमें पानी छोड़कर सब कुछ खरीदना पड़ता है।”
वो कहती हैं कि “शाम को घर आने के बाद भाइयों और परिवार को खाना बनाकर खिलाना पड़ता है। रोज यही चलता है। यहां तक कि बीमार रहने पर भी काम पर जाना पड़ता है। दिन-दुपहरी सड़क पर घूमना अच्छा नहीं लगता है, लेकिन मुझे लगता है कि जहां मैं पहुंच चुकी हूं। वहां से वापस लौटना मुश्किल है। क्योंकि, हम लोगों को ऐसे गढ़ा गया है, जिसे बदलने में लंबा संघर्ष करना पड़ेगा, जो सामाजिक सहयोग और सरकार के प्रयासों के बगैर सफल नहीं हो पाएगा।”
अंतिम कठपुतली कलाकार
जय विश्वकर्मा (70) लुहार-बंजारे समाज के अंतिम कठपुतली कलाकार बचे हैं, जो कई पीढ़ियों से कठपुतली का खेल दिखाकर समाज में महिलाओं और बच्चों का मनोरंजन करते आ रहे हैं। दिनभर साइकिल से गांव-गांव घूमकर कठपुतली की कला दिखाने के एवज में आठ-दस किलो चावल और गेहूं मिल जाता है। इनका परिवार सरकारी सुविधाओं से वंचित हाशिए पर पड़ा है।
अब बहुत देर हो चुकी है
जय बताते हैं कि “वो 300 साल पुरानी कठपुतली की कला दिखाते हैं। मेरी कला के बारे में सरकार भी जानती है। बच्चे, मां-बहन, किसान, मजदूर, नागरिक और राजा-फ़क़ीर सभी हमारा खेला देखते हैं। हमारी कई पीढ़ियां कठपुतली का खेल दिखाते-दिखाते मर खप गईं। मैं भी बचपन से इस कला से जुड़ा हूं। आज मेरी उम्र सत्तर से पार हो चुकी है। अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। इस दौरान होने वाली थोड़ी कमाई से परिवार का पेट जिलाया हूं। सारी उमर निकल गई, लेकिन गरीबी दूर नहीं हो सकी, जो बचत रही बच्चों की शादी में खर्च कर दी। अब घर के सिवा कुछ नहीं है।”
वो कहते हैं कि “अब हमारा कोई सहारा नहीं है। क्या खाएगा। कहां जाएगा? कोई ठिकाना नहीं। अब तो मेरी उंगलियां चलती भी नहीं हैं। अब अधिक दिनों तक कठपुतली का खेल नहीं दिखा सकूंगा। इस कला के न अब कदरदान बचे हैं और न ही उतनी पूछ बची है। लोकप्रियता कम होने से बच्चों को नहीं सिखाया है, लेकिन वे चाहेंगे तो मरने से पहले सीखा देंगे। लेकिन अब की पीढ़ियों से यह कठपुतली का खेल नहीं संभलेगा। यह मैं अभी बता रहा हूं, क्योंकि,अब बहुत देर हो चुकी है।”
धागे वाली कठपुतली
बतौर जय, कठपुतली डांस मुख्य रूप से चार तरह के हैं। जैसे, दस्ताने की सहायता से नचाई जाने वाली कठपुतलियां, छड़ की मदद से नचाई जाने वाली, धागे से बांध कर नचाने वाली कठपुतलियां और छाया कठपुतलियां। दस्ताने पहनकर कठपुतली नचाने का पूरा दारोमदार कलाकार के हाथों पर होता है। उंगलियों पर बेहतरीन कमांड उनकी परफॉर्मेस में जान डाल देता है। छड़ की मदद से कठपुतलियों को नचाना आसान नहीं। धागे वाली कठपुतलियों की कला काफी प्रचलित है हमारे यहां। जोड़ों पर जगह-जगह धागे बांधकर कठपुतलियों को नचाने वाले कलाकारों की पूरी परफॉर्मेंस संतुलन पर टिकी होती है।
कठिन है डगर
टीवी और फोन आने के बाद लोग परंपरागत सूचना के साधनों की जगह नये माध्यमों पर निर्भर हो गए हैं। लोगों का कठपुतली से जुड़ाव कम हो गया है। लेकिन जय जैसे कलाकार तमाम चुनौतियों का सामना करने हुए कला को जिंदा रखे हुए हैं। नये तरीके से संवाद करने की कोशिश कर रहे हैं। वह कठपुतली को मेनस्ट्रीम में लाकर लोगों से संवाद को कायम रखना चाहते हैं। इस वजह से उन्होंने कठपुतली के प्रारूप को बदलकर हर मुद्दों पर चर्चा करना जारी रखा हुआ है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि समाज द्वारा कठपुतली कला और कलाकार की लगातार उपेक्षा से लोक मनोरंजन कठपुतली कला का सफर कहां तक पहुंच सकेगा?
राजनीतिक उपेक्षा का दंश
पचपन से अधिक बसंत देख चुकी अपने कुनबे की उस्ताद गायिका मीरा अपने समाज की राजनीतिक उपेक्षा से दुखी हैं। वह कहती हैं कि “राजनीतिक रूप से हमें समाज की मुख्यधारा से बिलगा दिया गया है। ग्राम पंचायत, विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में वोट मांगने वालों की कतारें लगी रहती हैं। सभी विकास के वादे कर वोट की खातिर अनुनय-विनय करते हैं, लेकिन जब चुनाव बीत जाता है तो हम लोगों के विकास के मुद्दे और समस्याएं आई-गई हो जाती हैं।
राशन को छोड़कर किसी योजना का लाभ नहीं मिलता है। प्रधान हमारी नहीं सुनता है। आवास, पेयजल, उज्ज्वला, पेंशन और महिला, बाल-विकास आदि योजनाओं को सिर्फ कागजों में चलाया जा रहा है। हमारी बस्ती से बाजार और गांव जाने वाली सड़क बदहाल है। बारिश के दिनों में स्थिति बहुत खराब हो जाती है। कई बार विधायक से शिकायत करने के बाद भी कुछ नहीं हो सका है। गांव से एक किनारे पर होने की वजह से ग्राम प्रधान भी ध्यान नहीं देता है।”
चुनौतियों से मुठभेड़
लोककला और जीवन पर सूक्ष्म नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह यादव कहते हैं कि “लोक कलाओं का समाज में जो स्थान रहा है, उसे कभी कमतर नहीं समझा जा सकता है। लोक कलाएं चाहे गायन हो, कठपुतली हो या कोई और। कलाकार या कला अपने माध्यम से समाज के विभिन्न आयामों यथा समस्याओं, सफलताओं, जरूरतों, उत्सव, मनोरंजन और पीड़ा आदि को विषय बनाकर लोगों के बीच जाते हैं।
वो मनोरंजन के साथ जागरण का काम भी करते हैं। गौर करें तो हाल के तीन दशक से अब तक कलाकारों को समर्थन, संसाधन और मंच देने के लिए सरकार और समाज द्वारा कोई विशेष प्रयास नजर नहीं आता है। वहीं तेजी से बदलते दौर में इन कलाकारों की चुनौतियां दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही हैं।”
आगे कुआं-पीछे खाईं
पत्रकार मनोज आगे कहते हैं कि “राज्य या केंद्र सरकार ग्रामीण, घुमन्तू और बंजारे समाज से ताल्लुक रखने वाले कलाकारों को सुविधा देने और कला को सहेजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। नतीजन, अपने दम पर संघर्ष करते हुए कलाकार हाशिये पर आ पहुंचे हैं। हारमोनियम पर गीत गाने वाली स्त्रियों की हालत सबसे दयनीय स्थिति में जा पहुंची है। कुछ श्रोताओं के नैतिक पतन और लंपटता से स्त्रियों को अपने मान-सम्मान से भी समझौता करना पड़ता है”।
आगे वे कहते हैं ”कलाकारों के सामने आगे कुआं-पीछे खाई जैसी हालत है। यानी कला मोड़ सकते नहीं और पेट पालने के लिए कला को जीवित रखना किसी युद्ध से कम नहीं मालूम पड़ता। राज्य सरकार और संस्कृति विभाग को चाहिए कि ग्रामीण कलाकारों का भी योजना आदि चलाकर ध्यान दे, जिससे कला का संरक्षण और संर्वधन हो। साथ ही कलाकारों का बुढ़ापा भी आराम से कट सके।”
(उत्तर प्रदेश के चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट)