1 जुलाई, 2010 को जब माओवादी पार्टी के प्रवक्ता कामरेड आज़ाद और पत्रकार हेम पाण्डेय को केंद्र की निगरानी में आंध्र प्रदेश पुलिस ने एक फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई के दौरान कहा कि इस तरह एक रिपब्लिक को अपने बच्चों को नहीं मारना चाहिए।
इसके बाद से भारत के मध्य क्षेत्र के मुख्यतः आदिवासी बहुल इलाकों में काफी खून बह चुका है और इस ‘रिपब्लिक’ ने न जाने अपने कितने बच्चों को क़त्ल कर दिया है। पिछले दिनों अमित शाह ने एलान कर दिया है कि 31 मार्च, 2026 तक माओवाद का खात्मा हो जायेगा।
यह सोचकर रूह कांप जाती है कि सचमुच अगर ‘माओवाद मुक्त रिपब्लिक’ का निर्माण होता है, तो इसके लिए इस रिपब्लिक को अपने कितने बच्चों का क़त्ल करना पड़ेगा। और इसके बाद अपने बच्चों के खून से तरबतर जो ‘रिपब्लिक’ अस्तित्व में आएगा वो अपने शेष बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करेगा।
सिर्फ इसी साल अब तक कुल 194 माओवादी/आदिवासी मारे गए हैं। इनमें से निश्चित रूप से कुछ ‘असली’ मुठभेड़ों में मारे गए हैं, लेकिन यह ‘असली’ मुठभेड़ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति वाले भारत ने आदिवासियों पर ठीक उसी तरह थोप दिया है, जिस तरह इजराइल ने फिलिस्तीनी जनता पर थोपा हुआ है।
‘दंडकारण्य’ कहे जाने वाले क्षेत्र में इस समय कुल एक लाख के आस-पास अर्धसैनिक बल, बीएसएफ, इंडो तिब्बत सीमा बल अपने आत्याधुनिक हथियारों के साथ तैनात हैं। एक आंकड़े के अनुसार इस क्षेत्र में कुल 300 के आसपास सैन्य छावनियां हैं।
यानी लगभग 5 से 6 किलोमीटर पर एक छावनी। The Burning Forest: India’s War in Bastar की लेखिका नंदिनी सुंदर ने अपनी इस महत्वपूर्ण किताब में बताया है कि इस वक़्त दंडकारण्य दुनिया का सबसे ज्यादा सैन्य घनत्व वाला क्षेत्र बन चुका है। 7 आदिवासियों पर आत्याधुनिक हथियारों से लैस 1 सैनिक। यह सैन्य घनत्व कश्मीर के लगभग बराबर है।
बस्तर के ‘अबूझमाड़’ जैसे क्षेत्रों में (जिसका कभी रेवेन्यू सर्वे तक नहीं हुआ) सरकार के रूप में पहला कदम किसी शिक्षक या डॉक्टर का नहीं, बल्कि ‘अर्ध सैनिक बलों’ का पड़ा है। इसी ‘अबूझमाड़’ क्षेत्र में दिनांक 6 अक्टूबर को 31 माओवादियों/आदिवासियों को एक ‘मुठभेड़’ में मार डाला गया है।
अधिकांश मरने वाले आदिवासी महिला-पुरुष 20 से 30 वर्ष के बीच हैं, जिन्होंने अपने बचपन से ही भारत सरकार के रूप में सिर्फ पुलिस और अर्धसैनिक बलों को ही देखा है।
एक बार एक आदिवासी बच्चे से किसी पत्रकार ने पूछा कि जंगल के उस पार कौन रहता है, तो उसने बहुत मासूमियत से जवाब दिया कि उस पार पुलिस रहता है।
ऐसे आदिवासी क्षेत्रों में जहां सरकार के नाम पर सिर्फ सशस्त्र बलों की मौजूदगी है, वहां इतनी चौड़ी-चौड़ी सड़कें बनायी जा रही हैं कि उतनी चौड़ी सड़कें आपको दिल्ली-मुंबई में भी देखने को नहीं मिलेगी।
मशहूर पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम ने आदिवासी क्षेत्रों में जब इतनी चौड़ी सड़क का कारण पूछा तो सरकारी जवाब मिला कि अगर दो एम्बुलेंस आमने-सामने आ जाये तो वे बिना अपनी गति धीमी किये आसानी से निकल सकें।
जहां पर स्वास्थ्य सेवा शून्य है, वहां के लिए यह तर्क एक साथ ही हास्यास्पद भी है और सरकार की ‘सैडिस्ट’ दृष्टि का भी परिचायक भी है।
मालिनी सुब्रमण्यम ने एक और हैरान कर देने वाले तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है। इस साल जो माओवादी/आदिवासी ‘मुठभेड़’ में मारे जा रहे हैं, उनके चेहरे को सैन्य बल इस तरह से क्षतिग्रस्त कर दे रहे हैं कि उन्हें पहचानना बेहद मुश्किल हो जाए।
आदिवासी अंदाजा लगाकर अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करने को बाध्य हो रहे हैं। क्या आज किसी जज में यह कहने का भी साहस है कि एक रिपब्लिक भले ही अपने बच्चों को मार दे, लेकिन कृपया उसका चेहरा क्षत-विक्षत न करे, ताकि उसके परिजन उन्हें पहचान सकें।
भारत के मध्य क्षेत्र में रहने वाले जिन आदिवासियों/माओवादियों पर भारत सरकार ने युद्ध थोपा हुआ है, उन्होंने सरकार से कभी कुछ नहीं मांगा। आपने शायद ही कभी सुना हो कि आदिवासी रोजगार या राशन के लिए धरना या प्रदर्शन कर रहे हैं।
उन्हें आपसे कुछ नहीं चाहिए। ये आदिवासी अपने जंगलों में आर्यों के भारत में प्रवेश करने से भी पहले से रह रहे हैं। लेकिन ‘विकास’ के नशे में मदमस्त पहले अंग्रेजों ने और फिर उनके सच्चे उत्तराधिकारी भारत सरकार ने उनके शांत जीवन में बारूद बिछा दिया।
क्योंकि उन्हें वह सब कुछ चाहिए जो आदिवासियों के आसपास और उनके पैरों के नीचे है यानी वन संपदा और बहुमूल्य खनिज।
एक समय ‘जीडीपी ग्रोथ’ के शीर्ष पर बैठी कांग्रेस सरकार ने देशी-विदेशी विशाल कंपनियों के साथ करीब 81 अरब डॉलर का MOU साइन कर लिया था।
एक अनुमान के अनुसार अगर ये सभी MOU कार्यान्वित हो जाते तो हर चौथा आदिवासी विस्थापित हो जाता। इसी को ध्यान में रखकर चिदंबरम ने उस वक़्त बड़े पैमाने पर गांवों/जंगलों से शहर में पलायन करने की वकालत की थी।
कल्पना कीजिये कि अगर आदिवासी/माओवादी इस क्रूर विस्थापन के खिलाफ प्रतिरोध न करते और गांवों/जंगलों से उजड़ कर करोड़ों की संख्या में शहर आ जाते तो आज शहरी मजदूरों की पहले से ही कम मजदूरी और कम हो जाती।
जंगलों का बड़े पैमाने पर सफाया होने से पर्यावरण संकट और भी गहरा हो जाता। और सबसे बड़ी बात कि भारत के प्रतिरोध आन्दोलनों को वो ऊर्जा नहीं मिलती जो आज इस शानदार आदिवासी/माओवादी आन्दोलन के कारण मिल रही है।
लेकिन आदिवासियों/माओवादियों ने समर्पण नहीं किया और दुनिया के इस सर्वाधिक क्रूर हमले के खिलाफ सीना तान कर खड़े हो गए।
उनके इसी शानदार प्रतिरोध के कारण कभी 81 अरब डॉलर का MOU आज महज 6 अरब डॉलर रह गया है। (हालांकि कुछ भूमिका इसमे जारी आर्थिक मंदी की भी है)
इसलिए ‘माओवाद मुक्त भारत’ का सपना भले ही बीजेपी और शासक वर्ग का सपना हो, आम जनता और प्रतिरोधी ताकतों के लिए यह एक दुःस्वप्न ही है।
हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अगर ‘रिपब्लिक’ आज अपने एक बच्चे का क़त्ल कर रहा है तो कल दूसरे बच्चे की बारी ज़रूर आएगी।
(मनीष आज़ाद स्वतंत्र लेखक हैं और प्रयागराज में रहते हैं।)
बिल्कुल सही खबर है
निरंकुश सत्ता की कहानी यही है
सोशल मीडिया पर करे क्रांति
देश की जवानी यही है