तीसरे चरण से पहले ही पाकिस्तान और राष्ट्रवाद की एंट्री के मायने और इसके खतरे 

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पिछले 10 वर्षों में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। 19 अप्रैल 2024 से पहले चरण के चुनाव की शुरुआत के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि 2014 और 2019 की तुलना में इस बार मतदाताओं में चुनावों को लेकर गर्मजोशी नहीं है। पोलिंग बूथ पर वोटिंग पैटर्न और राष्ट्रीय बहस में हिंदू-मुस्लिम, लव जिहाद, राष्ट्रवाद, मोदी की मजबूत छवि और अयोध्या मंदिर जैसे मुद्दों को लेकर कोई आकर्षण नहीं देखने को मिल रहा। हाल ही में तीन राज्यों में भाजपा की जीत ने भाजपा के भीतर मोदी के हाथों में असीमित शक्ति थमा दी थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज भाजपा की जीत-हार का सारा दारोमदार भी पूरी तरह से नरेंद्र मोदी पर टिका हुआ है।

ऐन आम चुनाव से पहले जिस तेजी से विपक्षी दलों के नेताओं पर ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग ने कार्रवाई की, उसके परिणामस्वरूप भारी तादाद में कांग्रेस और अन्य दलों से लोगों का भाजपा में आने का ताता सा लग गया। बिहार में नितीश कुमार की जेडीयू को एक बार फिर अपने पाले में लाकर भाजपा न सिर्फ राज्य सरकार में अपनी वापसी कराने में सफल रही, बल्कि इंडिया गठबंधन के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और बिहार से बड़ा उलटफेर करने की संभावनाओं में से एक राज्य को तटस्थ कर आम मतदाताओं के बीच एक बड़ा संदेश देने में भाजपा सफल रही। इसके साथ ही पश्चिमी यूपी में राष्ट्रीय लोकदल को भी एनडीए गठबंधन में लाकर नैरेटिव को अपने पक्ष में किया गया। उधर झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंततः ईडी के माध्यम से जेल के पीछे डाल, मोदी सरकार आम लोगों में इस बात को स्थापित करने में सफल रही कि पिछले डेढ़ वर्ष से विपक्षी एकता को लेकर चले हो-हल्ले को मोदी के मजबूत इरादों ने धूल में मिला डाला है।

इसके बाद तो ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा न देने की कोई वजह नहीं थी। राजनीति के धुरंधर भी कथित राष्ट्रीय मीडिया में 370, 380 या 400 सीटों के अनुमानों को देख/मान चुके थे कि तीसरी बार भी मोदी को रोकना अब तो नामुमकिन है। लेकिन जमीन पर हकीकत लगातार करवटें ले रही थी। आम लोगों में मोदी की लोकप्रियता तेजी से घट रही थी। आम लोग अपने स्थानीय विधायकों और सांसदों से तो पहले ही नाराज थे, लेकिन मीडिया रचित मोदी की छवि के प्रति आकर्षण भी उनके दिलों से तेजी से उतर रहा था। इस बीच कुछ घटनाएं भी हुईं, जिसने अचानक से उनकी आंखों के सामने कथित मोदी की मजबूत छवि वाले जाले को साफ़ करने में मदद पहुंचाई है।  

एक था, कांग्रेस और तमाम विपक्षी दलों के भ्रष्ट और आरोपी नेताओं का भाजपा में स्वागत और इसके बाद तत्काल उन सभी पर लगे आर्थिक भ्रष्टाचार से मुक्ति की सूचना। इसका असर यह हुआ कि आम लोगों की सहानुभूति अब विपक्ष की ओर झुकने लगी। आज लोगों में यह बात घर करती जा रही है कि केंद्र सरकार के खिलाफ अब जितना भी बचा-खुचा विपक्ष एकजुट होकर लड़ रहा है, असल में यही राजनीतिक भ्रष्टाचार से मुक्त है। क्योंकि जो भी भ्रष्ट थे, वे तो पहले ही डरकर भाजपा की गोद में, शरण में जा चुके हैं। दूसरा, देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खातों को आयकर विभाग के द्वारा सीज कराकर उसे चुनावी दौड़ से लगभग बाहर कर देने वाली हरकत से भी आम लोग बेहद नाखुश हैं। वे इसे देश में निरंकुश तानाशाही के तौर पर देख रहे हैं। ऊपर से इलेक्टोरल बॉण्ड के खुलासे से ईडी, सीबीआई जैसी एजेंसियों की मदद से कॉर्पोरेट से चंदा उगाही और बाद में क्लीन चिट या उन्हें बड़े-बड़े सरकारी प्रोजेक्ट्स दिए गये हैं, उसने भाजपा और मोदी की इमेज पर काफी बड़ा डेंट लगा दिया है।

यहीं तक सब होता तो भी गनीमत थी।  लेकिन जिस प्रकार से भाजपा के राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय नेताओं को पूरी तरह से अस्तित्वहीन बनाकर, नरेंद्र मोदी ने मनमानेपूर्ण तरीके से मुख्यमंत्रियों और लोकसभा उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की, उसने न सिर्फ भाजपा बल्कि उसके पितृ संगठन आरएसएस के शीर्षस्थ नेतृत्व को भी पूरी तरह से हाशिये पर धकेल डाला है। आज हालत यह है कि आम युवाओं में जोश की तो बात ही छोड़ दीजिये, भाजपा और आरएसएस समर्थक तक सब कुछ मोदी भरोसे छोड़ इस तमाशे को दूर से देख रहे हैं। 

यही वे परिस्थितियां हैं, जिनमें भाजपा समर्थक और युवाओं का टर्नआउट कम होने की वजह से भाजपा बुरी तरह से घबराई हुई है। लेकिन जब सब सारा काम ही मोदी-शाह की रणनीति पर हो रहा है, और नैरेटिव भी उनके हिसाब से बनेगा। इसमें भला वे क्या कर सकते हैं? जी-20 की अध्यक्षता, विश्वगुरु की छवि, 5 ट्रिलियन इकॉनमी, 2027 में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था और राम मंदिर निर्माण जैसे मुद्दे चुनाव के पहले चरण से ही नॉन-स्टार्टर साबित होने पर अब नए-नए नारे ढूंढ निकालने की जिम्मेदारी पीएम मोदी के कन्धों पर आन पड़ी है। 

इसी के मद्देनजर, नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले कांग्रेस के घोषणापत्र से पिछड़ों और आदिवासियों के घरों से सोने-चांदी की चोरी करने वाला नैरेटिव तैयार किया। विवाहिता हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र छीनकर उन्हें घुसपैठियों के बीच बांट देने की बात कह कर डराने का भरसक प्रयास किया। आम मतदाताओं के लिए इस तथ्य को गले उतारना कठिन था। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में पहली बार कांग्रेस के घोषणापत्र को लोगों ने डाउनलोड कर पढ़ा। इसमें ऐसी कोई बात नहीं कही गई थी, इसलिए मोदी जी की काफी किरकिरी भी हुई। उल्टा लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि मोदी अपनी पार्टी का घोषणापत्र पढ़ाने के बजाय कांग्रेस की चुनावी घोषणाओं को आम मतदाताओं के बीच प्रसारित कर कांग्रेस का फायदा करा रहे हैं। 

लेकिन 24 घंटे चुनावी बाोजी को पलटने की फ़िराक में लगे रहने वाले पीएम मोदी के लिए हर हाल में जीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है। 2001 से मुख्यमंत्री और 2014 से देश की बागडोर थामने वाले नरेंद्र मोदी के लिए हार शब्द कल्पना से परे है। इसलिए, विपक्ष और देश के तमाम प्रबुद्ध वर्ग की आपत्तियों और चुनाव आयोग के नोटिस के बावजूद नरेंद्र मोदी एक के बाद एक झूठे नैरेटिव को इस चुनाव में पेश करते जा रहे हैं। भाजपा के आईटी सेल से उन्हें जरूरी रसद मिल रही है, और विपक्षी खेमे के छोटे से छोटे नेताओं की बयानबाजी से अपने बहुसंख्यक हिंदुत्व के नैरेटिव को कैसे अपने पक्ष में लामबंद किया जाये, उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है।          

कांग्रेस के घोषणापत्र, संदेशखाली और कर्नाटक में एक हिंदू युवती की हत्या से हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज करने में विफल भाजपा नेताओं के लिए अब राष्ट्रवाद ही अंतिम अस्त्र बचा था। राष्ट्रवाद एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें स्पष्ट हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की जरूरत नहीं पड़ती और कोई इल्जाम भी नहीं लगा सकता कि ऐसा करने वाला व्यक्ति सांप्रदायिक है। देश-प्रेम और सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिए केंद्र में मजबूत सरकार कितनी आवश्यक है, इसे समझाने के लिए कोई कठिनाई भी नहीं होती। 2019 का आम चुनाव भी भाजपा ज्यादा बहुमत से इसी राष्ट्रवाद की बैसाखी से हासिल कर पाने में सफल रही थी। सबसे बड़ी बात, जब-जब राष्ट्रवाद की बात आती है, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे अपनेआप सतह से गायब हो जाते हैं। 

ऐसे में मतदाताओं को राष्ट्रवाद की धुन पर थिरकने के लिए पाकिस्तान से बेहतर विकल्प तो कोई हो नहीं सकता। इसलिए, चुनाव में पाकिस्तान की एंट्री न हो, ऐसा भला कैसे संभव है?  

2 मई 2024 को पीएम मोदी गुजरात के सुरेंद्रनगर में एक चुनावी सभा में इसे आखिरकार ले आते हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस भाषण का आधार पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार में संचार मंत्री रहे चौधरी फवाद हुसैन का एक ट्वीट रहा। 1 मई को शाम 5 बजे फवाद हुसैन ने कांग्रेस समर्थक एक सोशल मीडिया हैंडल में राहुल गांधी के एक भाषण को रिट्वीट करते हुए लिखा, “Rahul on fire…”  इस वीडियो में राहुल गांधी को कहते सुना जा सकता है कि राम मंदिर के उद्घाटन में अडानी, अंबानी और अमिताभ बच्चन जैसों के अलावा आपने क्या किसी गरीब, युवा, पिछड़े, दलित और आदिवासी को देखा? फिर राहुल गांधी अपने चिरपरिचित अंदाज में बताते हैं कि यह सब आप लोगों को सिर्फ भटकाने का काम हो रहा है। मोदी जी और उनके चंद कॉर्पोरेट मित्र कैसे आम भारतीय को लूटकर आपको जीएसटी में लूट, जातीय जनगणना, बेरोजगारी और महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों से भटकाने का काम कर रहे हैं।

लेकिन मोदी और उनकी टीम के लिए चौधरी फवाद का “राहुल ऑन फायर” लिखना ही काफी था। बता दें कि फवाद हुसैन पाकिस्तान की हुकुमत में नहीं बल्कि विपक्ष में हैं। विपक्ष का नेता इमरान खान पाकिस्तान की जेल में बंद है, और पाकिस्तान में असली कर्ता-धर्ता पाकिस्तान की सेना है। लेकिन इन तथ्यों से नरेंद्र मोदी जी को क्या फर्क पड़ता है? आखिर भारत की 140 करोड़ आबादी कौन सा इतना माथापच्ची करने वाली है, भले ही चौधरी फवाद इस समय खुद पाकिस्तानी सेना से अपने लिए रहम की आस लगा रहे हैं। 

पीएम मोदी के बयान पर गौर करें, जिसे उन्होंने खुद एक्स पर साझा किया है, “मजा यह है कि यहां कांग्रेस मर रही है, और उधर पाकिस्तान रो रहा है। आपको पता चला होगा कि कांग्रेस के लिए अब पाकिस्तानी नेता दुआ कर रहे हैं। शहजादे को प्रधान मंत्री बनाने के लिए पाकिस्तान उतावला है। आपने कल देखा! (मोदी हहह करते हैं), और हम तो जानते ही हैं कि कांग्रेस पाकिस्तान की मुरीदी है। पाकिस्तान और कांग्रेस की यह पार्टनरशिप अब पूरी तरह से एक्सपोज हो गई है। जितने साल कांग्रेस की सरकार रही एक हौवा बना हुआ था, जब भी देखो पाकिस्तान, पाकिस्तान!  की ही बात होती थी।”

“आज देखिये पाकिस्तान का टायर पंचर हो गया है। जो देश कभी आतंकी एक्सपोर्ट करता था, वो आज आटे के इंपोर्ट के लिए दर-दर भटक रहा है। जिसके हाथ में कभी बम-गोला होता था, आज भीख का कटोरा है। कांग्रेस की कमजोर सरकार आतंक के आकाओं को डोजियर देती थी, (फाइल पर सारी जानकारियां इकट्ठा करके वो देते थे, कि तुम्हारे लोग आये थे, ये उनकी फोटो है। यहां बम फोड़कर चले गये। तुम्हारे लोग आये थे, इतने लोगों को मारकर चले गये।) डोजियर देते थे डोजियर! फिर देश को बताते थे कि हमने पाकिस्तान को डोजियर दे दिया है। डोजियर!”

पीएम मोदी, “और मोदी की मजबूत सरकार देखिये, हम डोजियर वोजियर में टाइम खराब नहीं करते…। तालियां…

आतंकियों को घर में घुसकर मारते हैं। (और तालियां… मोदी हहहह..मोदी पानी का घूंट पीने के लिए रुकते हैं), और साथियों, संयोग देखिये! आज जब भारत में कांग्रेस कमजोर हो रही है, यानि सूक्ष्मदर्शी यंत्र लेकर भी कांग्रेस को ढूंढना मुश्किल हो रहा है, लेकिन मजा ये है कि यहां कांग्रेस मर रही है, और उधर पाकिस्तान रो रहा है। (तालियां…)”

पाकिस्तान में विपक्षी नेता के द्वारा भारत में विपक्ष के नेता के भाषण की तारीफ़ को पाकिस्तान और उनके हुक्मरानों की मंशा से कैसे जोड़ा जा सकता है, इस बात का जवाब तो पीएम मोदी से पूछना फिजूल है। लेकिन पाकिस्तान भूख से मर रहा है, जिसे सुनकर भाजपा की सभा में तालियां बजती हैं तो इसे राष्ट्रवाद की पराकाष्ठा मान लेना असल में वास्तविक राष्ट्रवाद का अपमान है। हकीकत तो यह है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 की रिपोर्ट इसका ठीक उलट बता रही है। इसमें दर्शाया जा रहा है कि भूख से निपटने में अब भारत अपने पड़ोसी देशों से भी पीछे जा चुका है। भारत की रैंकिंग गिरकर 111 पर पहुंच चुकी है, जबकि पाकिस्तान 102वें स्थान के साथ भारत से 9 पायदान ऊपर है। अन्य देशों में बांग्लादेश (81), नेपाल (69) और श्रीलंका (60वें) रैंकिंग के साथ भारत से काफी बेहतर स्थित्ति में हैं।  

इसका अर्थ यह हुआ कि न तो पाकिस्तान के हुक्मरान ने ही भारतीय चुनाव को लेकर कोई आधिकारिक बयान जारी किया है, और न ही जेल में बंद प्रमुख विपक्षी नेता इमरान खान ने ही इस बारे में कोई टिप्पणी की है। विपक्ष के एक नेता के राहुल गांधी के एक वीडियो को रिट्वीट करने मात्र से भारतीय प्रधानमंत्री उसमें अपने लिए राजनीतिक भविष्य तलाश रहे हैं, और पड़ोसी देश के खिलाफ हिकारत का भाव उन मतदाताओं के मन में भर रहे हैं, जो असल में पाकिस्तानियों से भी खस्ता हाल जिंदगी बसर कर रहे हैं, लेकिन भारत की गोदी मीडिया ने पाकिस्तान की जैसी छवि बना रखी है, उसके लिए इन सबसे उबर पाना बेहद मुश्किल है। 

यकीनन, राष्ट्रवाद का नशा बाकी सभी से कहीं ज्यादा असरकारक है। फरवरी 2019 में भी पुलवामा में आतंकवादियों की कार्रवाई में मारे गये हमारे 40 से अधिक जवानों के लिए पाकिस्तान के बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक करने वाली सरकार आज भी यह जांच करा पाने में असफल रही है कि आखिर इतनी बड़ी मात्रा में देश के भीतर आरडीएक्स क्यों और कैसे पहुंचा था? जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भारी बर्फबारी के बावजूद हजारों सैनिकों को हफ्तों तक खुली सड़क पर क्यों रहने दिया गया, जब वे एयरलिफ्ट कराने की मांग कर रहे थे? अंध-राष्ट्रवाद ऐसे सवालों को उभरने ही नहीं देता, और इस प्रकार यह सच्चे अर्थों में राष्ट्र और उसके नागरिकों के खिलाफ ही काम आता है। देखना है, क्या यह खतरनाक पहल चुनावी बयानबाजी तक ही सीमित रहने वाली है, या पिछली बार की तरह इस बार भी इसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने की सूरत बनाई जा सकती है?      

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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