क्या नए कृषि कानून केवल किसानों के लिए अहितकर हैं? शेष जनता का या कम से कम देश की आधी जनसंख्या का इससे कोई लेना देना नहीं है? यह सोचना, मानना और कहना पूरी तरह गलत है। खाद्यान्न की निजी खरीद, उसका निजी स्टाक रखना और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यक वस्तु अधिनियम का खत्म होना देश की बहुसंख्य जनता के भविष्य को असुरक्षित करने का सबसे ख़तरनाक षड्यंत्र है।
देश में अभी भी बड़ी संख्या में भूखी जनता के लिए पेट भरना एक बड़ी समस्या है, (जिसे सुथरी भाषा और शब्दावली में हंगर इंडेक्स के एक उतार चढ़ाव से प्रदर्शित किया जाता है) देश में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली और गरीबी की रेखा के आस पास रहने वाली करीब आधी जनसंख्या अभी भी खाद्यान्न सुरक्षा की दृष्टि से असुरक्षित है। अंत्योदय और गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या क्रमश: 2.42 करोड़ और 6.52 करोड़ है। अर्थात 40-50 करोड़ की जनसंख्या इससे जुड़ी है। इसमें बड़ी संख्या में छूटे हुए परिवार व उनकी जनसंख्या व मध्यम वर्ग सम्मिलित नहीं है, जिन्हें भी राज्य सहायतित अनाज का वितरण होता है।
ऐसे में खाद्यान्न की बिक्री स्टाक और परिवहन को पूरी तरह निजी क्षेत्र के हाथों छोड़ना देश के साथ और देश की जनता के साथ एक धोखा ही कहा जाएगा।
खाद्यान्न के बढ़ते उत्पादन के बावजूद देश में खाद्यान्न असुरक्षा की इसी जमीनी हक़ीक़त के कारण ही पिछली सरकार ने अपने अन्तिम दिनों में राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा कानून (एनएफएसए 2013) बनाया था, जिसमें 75% ग्रामीण आबादी और 50% शहरी आबादी को खाद्यान्न सुरक्षा के अन्तर्गत लाकर उन्हें खाद्यान्न सुरक्षा का भरोसा दिलाया गया था।
बात पुरानी नहीं अभी लाकडाउन के समय की है जब ‘अच्छे अच्छे’ परिवार आटा चावल के लिए चिन्तित हो गए थे, बहुत से लोग/परिवार जो कंट्रोल या कोटे के राशन को हेय दृष्टि से देखते थे सरकारी कंट्रोल के राशन की लाइन में लग कर राशन लेते देखे गए थे। इससे यही पता चलता है कि देश में भले ही लाखों टन (इस समय 800 लाख टन से अधिक) अनाज गोदामों और स्टाक में मौजूद हो, तब भी उसकी आपूर्ति हर जगह अबाध रूप से बिना सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस, उचित मूल्य की सरकारी राशन की दुकान) के सम्भव नहीं है।
लाकडाउन में राशन को लेकर इतना हाहाकार मचा कि राज्य सरकारों को अतिरिक्त राशन (दाल सहित) सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस, उचित मूल्य की दुकान, सरकारी राशन की दुकान) के माध्यम से जारी करना पड़ा, लाखों लोग जो राशन कार्ड भूल चुके थे राशनकार्ड लेकर सरकारी राशन की दुकानों से राशन लेने के लिए लाइन में खड़े थे। जिन लाखों लोगों के पास राशन कार्ड नहीं था उन्हें नए राशन कार्ड जारी किए गए, कई स्थानों पर आधार कार्ड और वोटर आईडी के पर राशन वितरित किया गया।
लाकडाउन के शुरुआत के अप्रैल और मई महीनों में राशन को लेकर देशभर में जो पैनिक था, वह यह समझने के लिए पर्याप्त है कि देश में भले ही खाद्यान्न का उत्पादन ज़रूरत से ज़्यादा हो जाए उसका समान और समय से वितरण बहुत ही आवश्यक है। और उसे किसी निजी व्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। और राशन की सर्वसुलभ आपूर्ति, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस, उचित मूल्य की सरकारी राशन की दुकान) के माध्यम के बिना संभव नहीं है।
याद करें पिछली सदी में बंगाल के अकाल के समय देश में अनाज होने के बाद भी लाखों लोग भूख से मारे गए थे क्योंकि तब कोई सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस, सरकारी राशन की दुकान) नहीं थी और देश पूरा निजी स्टाकिस्टों के रहमों करम पर था।
ईश्वर न करे लाकडाउन जैसा या और कोई खाद्यान्न संकट न आए, यदि आया तो निजी स्टाकिस्टों के पास रखा गल्ला कैसे भूखे लोगों तक पहुंचेगा? क्योंकि तब न भारतीय खाद्य निगम की सरकारी खरीद होगी न उसका अपना स्टाक होगा, तब निजी व्यापारियों का स्टाक होगा और अडानी के साइलो गोदामों से निकला हुआ खाद्यान्न मुंह मांगे दामों पर मिलेगा, आज की हालत यह है कि शहरों के बड़े शोरूम और माल में 20 रुपये किलो वाले गेहूं का आटा 50 रुपए किलो तक बिक रहा है, और कारपोरेट में काम करने वाले टाईबाज़ मज़दूर बड़े फ़ख्र से खरीद रहे हैं, लेकिन देश का आम आदमी यह गुलामी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा ना उसकी ऐसी सामर्थ्य है।
नए कृषि कानूनों में खाद्यान्न की खरीद को खुला छोड़ दिया गया है, कृषि मंडियों की उपयोगिता को समाप्त कर दिया गया है, और खाद्यान्न के स्टाक पर सीमाबंदी समाप्त करके किसानों से अधिक आम उपभोक्ता को खतरे में डाल दिया गया है। तब भारतीय खाद्य निगम जो बाजार में खाद्यान्न के मूल्यों को आम आदमी की पहुंच में बनाए रखने के लिए बाजार की आवश्यकता के अनुसार खाद्यान्न पहले से खरीदकर समय से उसकी आपूर्ति करता रहता है, तब वह नहीं रहेगा। (आज भले ही उसका अस्तित्व है लेकिन जब बड़े स्टाकिस्टों के पास उससे अधिक स्टाक होगा या बिल्कुल भी नहीं होगा) तो कैसे खाद्यान्न की आपूर्ति और मूल्यों पर नियंत्रण हो सकेगा? यह विचारणीय है।
पिछले दशकों में अकसर जब सूखे और अतिवृष्टि से रबी या खरीफ़ की फसल पर ज़रा भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता था, तो सरकार फौरन भारतीय खाद्य निगम से अतिरिक्त खाद्यान्न रिलीज करवा कर खाद्यान्न की आपूर्ति से मूल्यों का संतुलन बना लेती थी। आज देश के पास ( भारतीय खाद्य निगम के स्टाक में) आवश्यकता से अधिक अनाज है, तो इस बात की कौन गारंटी दे सकता है कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी, या अकाल, अतिवृष्टि और लाकडाउन जैसी आपातकालीन स्थिति कभी भी नहीं आएगी ?
फिर भारत की खाद्य सुरक्षा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड डे मील, खाद्यान्न आधारित अन्य सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों, समाज कल्याण विभाग के छात्रावासों को खाद्यान्न आपूर्ति से जुड़े सवाल भी चिन्ता जनक हैं। जिसके लिए सरकार भारतीय खाद्य निगम को सहायता/सब्सिडी देने का प्रावधान है। लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार ने भारतीय खाद्य निगम को राज्य सहायता देना बंद कर दिया है, जिससे इन समाज कल्याण के कार्यक्रमों को चलाने के लिए भारतीय खाद्य निगम ने विभिन्न वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेना आरंभ कर दिया है। (यह क़र्ज़ करीब एक लाख करोड़ रुपए से बढ़कर ढाई तीन लाख करोड़ हो गया है) इस कर्ज के लगातार बढ़ने यह खतरा बढ़ गया है कि कहीं भारतीय खाद्य निगम ही समाप्त/बंद न हो जाए, या इसे भी सरकार औने पौने दाम पर कारपोरेट को सौंप दे, तब न खाद्यान्न खरीद होगी ना सार्वजनिक वितरण प्रणाली रहेगी और ना ही मिड डे मील का झंझट रहेगा। इसे कहते हैं, “न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी”।
मौजूदा सरकार की मंशा देखकर लगता तो यही है कि यह सरकार अनन्तिम रुप से सभी समाज कल्याण और निर्धनों की सहायतार्थ चलाए जाने वाले समाज कल्याण कार्यक्रमों से हाथ खींचकर पूरे सामाजिक आर्थिक ढांचे को बर्बाद करने पर तुली है।
नए कृषि कानूनों में भारतीय खाद्य निगम की भूमिका को कम करने का यह प्रावधान देश की बहुसंख्यक जनता के लिए बहुत महंगा पड़ने वाला है। क्योंकि भारतीय खाद्य निगम की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी उसमें, देश के नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खाद्यान्नों की कार्यकुशल खरीद, भंडारण एवं वितरण करना। खाद्यान्नों के बफर स्टॉक के रखरखाव सहित समुचित नीतिगत साधनों के माध्यम से खाद्यान्नों और चीनी की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से, विशेष रूप से समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को वाजिब मूल्यों पर खाद्यान्न उपलब्ध करना। देशभर में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 का कार्यान्वयन करना। गेहूं,धान/चावल और मोटे अनाज की कार्यकुशल खरीद के माध्यम से मूल्य समर्थन प्रचालन करना। लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना। चीनी उद्योग का विकास/संवर्धन करना। वेयरहाऊसिंग क्षेत्र का विकास करना, तथा सार्वजनिक सेवा प्रणाली में सुधार करना सम्मिलित हैं।
नए कृषि कानूनों से भारतीय खाद्य निगम की इस भूमिका पर सबसे बड़ा प्रहार होने जा रहा है। सरकार किसानों को तो न्यूनतम मूल्य की गारंटी देने का आश्वासन दे रही है, लेकिन भारतीय खाद्य निगम के कार्यों को बनाए रखने तथा सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को बनाए रखने के बारे में अभी तक पूरी तरह मौन है। इसलिए नए कृषि कानूनों पर आम जनता और सामाजिक संगठनों को किसानों से पहले आपत्ति होनी चाहिए।
होना तो यह चाहिए था कि सरकार द्वारा जल्दबाजी में लाए गए कृषि कानूनों पर आम जनता, जन प्रतिनिधि मीडिया और सामाजिक संगठन, किसानों से पहले सरकार से जवाब लेते, कि नए कृषि कानूनों को लाकर वह किस तरह देश की खाद्यान्न वितरण प्रणाली लाना चाहती है। और वह कैसे देश की खाद्यान्न सुरक्षा बनाए रखेगी ? जिसके लिए राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा कानून 2013 बनाया गया है।
(इस्लाम हुसैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल नैनीताल के काठगोदाम में रहते हैं।)