Friday, March 29, 2024

पाकिस्तान के लाहौर हाईकोर्ट ने देशद्रोह कानून को किया खत्म, क्या भारत भी ऐसा करेगा

पाकिस्तान की एक अदालत ने अंग्रेजों के जमाने के देशद्रोह कानून (Sedition Law) को गुरुवार (30 मार्च) को रद्द कर दिया। इस कानून को रद्द करने को लेकर याचिकाएं दायर की गई थीं।

एक याचिकाकर्ता हारून फारूक की याचिका पर सुनवाई करते हुए लाहौर हाई कोर्ट (Lahore High Court) के जस्टिस शाहिद करीम ने राजद्रोह से संबंधित पाकिस्तान दंड संहिता (PPC) की धारा 124-ए को रद्द कर दिया।

एक ऐसे समय में यह फैसला बहुत मायने रखता है, जब पाकिस्तान में तेज राजनीतिक उठा-पटक चल रही है। जब सैन्य शासन की अफवाहें उड़ रही हैं। इसके साथ आर्थिक अनिश्चितता के भंवर में पाकिस्तान फंसा हुआ है।

पाकिस्तान के संदर्भ में यह बात और भी मायने रखती है, क्योंकि वहां का लोकतंत्र भारत और अन्य देशों की तुलना में कमजोर माना जाता है। अदालतों की स्वतंत्रता को लेकर संदेह व्यक्त किया जाता है।

लाहौर उच्च न्यायालय ने एक ऐसे देश की झलक प्रदान की है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को और भी मजबूत करेगा। और फिर भी अपने सभी कठिनाइयों के बावजूद उभर सकता है।

उच्च न्यायालय के इस फैसले ने पाकिस्तान के लोकतंत्र को मजबूत किया है। पाकिस्तानी समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों को भी बढ़ावा देगा। जब पाकिस्तान इतनी सारी कठिनाइयों से जूझ रहा है, ऐसे में यह खबर वहां के अवाम और दुनिया के अवाम के लिए सुखद है।

लाहौर उच्च न्यायालय ने पाकिस्तान दंड संहिता की धारा 124-ए को रद्द करने का फैसला सुनाया।  जो पाकिस्तान और भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में IPC से विरासत में मिला था।

जिसे स्वतंत्रता के बाद दोनों देशों ने लगभग पूरी तरह से अपना लिया था। यह एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह कानून “औपनिवेशिक मानसिकता” के तहत बनाया गया था। जिसे आजाद पाकिस्तान और भारत ने अपने लिया था।

यह निर्णय औपनिवेशक शासन और आजाद पाकिस्तान के बीच एक विभाजक रेखा खींचता है। दंड संहिता लागू होने के 10 साल बाद 1870 में शुरू की गई इस धारा का उद्देश्य औपनिवेशिक शासन का विरोध करने वालों की आवाज को दबाना था।

भारत में इस कानून के तहत दोषी ठहराए जाने वाले पहले व्यक्ति 1897 में बाल गंगाधर तिलक थे। उन पर “असंतोष भड़काने” के लिए दो बार आरोप लगाए गए। एक मामले में  दोषी ठहराया गया और दूसरे में बरी कर दिया गया (दोनों बार मोहम्मद अली जिन्ना उनके वकील थे)।

भारत और पाकिस्तान दोनो देशों में यह धारा 124-ए कहती है कि “जो कोई भी, शब्दों द्वारा या तो बोले गए या लिखित या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा घृणा या अवमानना करता है या अवमानना का प्रयास करता है या उत्तेजित  या प्रयास करता है। सरकार के प्रति असंतोष भड़काने के लिए जेल की सजा दी जा सकती है, जो महीनों से लेकर आजीवन तक हो सकती है, या जुर्माना हो सकता है”।

इस कानून का अक्सर बेजा  इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों, पत्रकारों, व्यंग्यकारों, कार्टूनिस्टों और सत्ता में बैठे लोगों और अन्य आलोचकों के खिलाफ हाल के वर्षों में सीमा के दोनों ओर भारत एवं पाकिस्तान में बार-बार किया गया है।

लाहौर हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति शाहिद करीम ने 1973 के पाकिस्तान संविधान के अनुच्छेद 9, 14, 15, 16, 17, 19 और 19A में निहित मौलिक अधिकारों की मांग करने वाली याचिकाओं के जवाब में इस कानून को अमान्य घोषित कर दिया है।

याचिकाओं में तर्क दिया गया था कि लोगों की संवैधानिक स्वतंत्रता पर औपनिवेशिक युग के अवशेष को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

लाहौर हाईकोर्ट के इस फैसले को  पाकिस्तान के सुप्रीकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और इसकी समीक्षा हो सकती है।

153 साल पुराने कानून को खत्म करने का यह एक साहसिक कदम है। यह एक ऐसा औपनिवेशिक कानून है जिसका वर्षों से नाजायज इस्तेमाल पाकिस्तान और भारत दोनों में होता रहा है।

भारत में लगातार इस औपनिवेशिक कानून को खत्म करने की मांग की जा रही है। जिसके लिए किसी भी लोकतांत्रिक देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

लाहौर हाई कोर्ट का यह फैसला निश्चित रूप से उन लोगों को प्रेरित करेगा जो भारत में कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि निकट भविष्य में भारत भी इस फैसले से सबक लेगा और इस औपनिवेशिक कानून को खत्म करेगा।

(आज़ाद शेखर जनचौक के सब एडिटर हैं।)

जनचौक से जुड़े

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles