Thursday, April 18, 2024

शायर अख़तर पयामी : क़िस्सा-ए-काकुल-व-रुख़सार लिये आया हूं

अख़तर पयामी इस बर्रे सग़ीर के (हिंद उपमहाद्वीप) बड़े सहाफ़ी, अज़ीम दानिश्वर और अवामी शायर थे। जिनकी पैदाइश तो हिंदुस्तान में हुई, लेकिन वफ़ात पाकिस्तान में। वहीं पूर्वी पाकिस्तान जो कि अब बांग्लादेश है, में उन्होंने बरसों-बरस सहाफ़त की। शेख मुजीबुर्रहमान से उनके गहरे दोस्ताना ताल्लुक़ात थे। लेकिन जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हुआ, तो वे पाकिस्तान चले गए। उसके बाद वे अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक कराची में ही रहे। अख़तर पयामी एक बेजोड़ नज़्म निगार थे।

अपने ज़माने में उन्होंने खू़ब इंक़लाबी नज़्में लिखीं। मशहूर अफ़साना निगार, कॉलमनिस्ट ज़ाहिदा हिना ने उनके बारे में एक दफ़ा कहा था, ‘‘गया की मिट्टी में लाखों लोग उठे हैं, लेकिन उनमें से कुछ ऐसे भी हुए हैं जिनके ख़मीर में इस महान इंसान (महात्मा बुद्ध) के क़दमों की चुटकी भर धूल शामिल हो गई, और उन्हें कुछ से कुछ कर गई। अख़तर पयामी राजगीर में जन्म लेने वाले ऐसे ही इंसान थे। उनके ख़मीर में इस चुटकी भर धूल ने जो काम कर दिखाया, यह इसी का एजाज़ है कि वो कभी तंग-नज़री का शिकार नहीं रहे। मुहब्बत, भाईचारा और खु़लूस के जज़्बे ने हमेशा उनकी रहनुमाई की।’’ (किताब : ‘मेरा सफ़र तवील है’) ज़ाहिदा हिना की यह बात सोलह आना सही भी है। अख़तर पयामी अपने लेखन से इस पूरे हिंद उपमहाद्वीप में मुहब्बत और भाईचारे की गंगा-जमुना बहाते रहे। ‘‘तन्हाइयों के कोह-ए-गिरां (ऊंचे पर्वत) से उतर के हम/आबादियों में शेर सुनाने को आए हैं/ऐलान कर दो कूचा-ए-रुख़सार-ए-यार में/हम खु़शबुओं के नाज़ उठाने को आए हैं।’’ (नज़्म-‘शहर-ए-वफ़ा’)

अख़तर पयामी की पैदाइश 1 फरवरी, 1930 को बिहार में नालंदा ज़िले के नोनही गांव में हुई। उनकी स्कूली तालीम गया में पूरी हुई। पढ़ने-लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही था। उनके परदादा बहार हुसैनाबादी अपने दौर के बड़े शायर थे, जिसका असर उनके खू़न में ही था। चौदह साल की उम्र से ही अख़तर पयामी की नज़्में और अफ़साने अपने दौर के अहम उर्दू अख़बार और मैगज़ीन ‘सबेरा’, ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘नदीम’ और ‘नुकुश’ वगैरह में नुमायां तौर पर शाया होने लगे थे। अपनी तहरीरी और तक़रीरी सलाहियत के दम पर उन्होंने बहुत ज़ल्द ही उत्तर भारत में अपनी एक अलग पहचान बना ली। वे अठारह साल के भी पूरे नहीं हुए थे, जब उन्होंने कोलकाता से प्रकाशित उर्दू हफ़्तावार मैगज़ीन ‘नई मंज़िल’ का संपादन किया। वाजेह हो कि यह मैगज़ीन वामपंथी ख़यालात और अवामी अदब की नुमाइंदगी करती थी।

अख़तर पयामी के परिवार वाले उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे। इसी इरादे से उन्हें भागलपुर टीएनबी कालेज में दाख़िल कराया गया। लेकिन पयामी की साइंस में कोई दिलचस्पी नहीं थी। अलबत्ता अदब और सहाफ़त की जानिब ज़रूर जुनून की हद तक मुहब्बत थी। यह वह दौर था, जब देश में आज़ादी की तहरीक ज़ोरों पर थी और अदब में भी बाएं बाज़ू की तहरीक परवान चढ़ रही थी। सभी बड़े अदीब तरक़्क़ीपसंद तहरीक के जे़र—ए—असर थे। ज़ाहिर है कि अख़तर पयामी भी इस तहरीक से जुड़ गए। अली सरदार जाफ़री, परवेज शहादी, कलाम हैदरी, अनवर अज़ीम, मंज़र शहाब, वामिक जौनपुरी की दोस्ती और सोहबत से उनका तरक़्क़ीपसंद अदब में रुझान बढ़ता चला गया। आगे चलकर, पयामी रांची आ गए। जहां उन्होंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। इस बीच, उनकी सियासी सरगर्मियां और बढ़ गईं।

 बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी का जो गठन हुआ, अख़तर पयामी उसके बानियों (संस्थापकों) में से एक थे। कॉमरेड हबीबउर्रहमान, कॉमरेड अली अमजद, कॉमरेड अली अशरफ, कॉमरेड अनवर अज़ीम ये सब उनके साथी थे। हालांकि अख़तर पयामी इन सभी से उम्र में काफ़ी छोटे थे। राज्य में पार्टी को खड़ा करने में इन सब कॉमरेड का बड़ा योगदान था। आज़ादी के बाद भी अख़तर पयामी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। वे पटना विश्वविद्यालय से एमए कर रहे थे कि कुछ ऐसे हालात बने कि उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर बैन लगने और पार्टी लीडरों की धर-पकड़ की वजह से अख़तर पयामी कुछ दिन अंडरग्राउंड रहे और उसके बाद अपने कुछ कम्युनिस्ट साथियों के साथ पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान जाने का एक बड़ा मक़सद ये भी था कि पार्टी वहां अपना आंदोलन खड़ा करना चाहती थी। सियासत में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहती थी। इन लीडरों की सोच थी कि यदि वहां काम नहीं किया गया, तो वहां सियासत में दक्षिणपंथी ताकतें हावी हो जाएंगी। जो कि भारत और पाक दोनों के लिए नुक्सानदायक होगा। यही नहीं उन्हें यह उम्मीद भी थी कि जब हालात साज़गार हो जाएंगे, तो वे वापिस भारत आ जाएंगे। लेकिन अफ़सोस, उनके ये ख़्वाब पूरे नहीं हुए।

 अख़तर पयामी का पाकिस्तान में जहां कयाम रहा, वह पूर्वी पाकिस्तान था। अपनी ज़िंदगी की गुज़र बसर के लिए उन्होंने सहाफ़त का पेशा चुना। वे ढाका के बड़े अंग्रेजी अख़बार ‘मार्निंग न्यूज’ से जुड़ गए। कुछ दिनों उन्होंने पाकिस्तान रेडियो में भी काम किया। रेडियो में वे एनाउंसर रहे। इन मसरूफ़ियत के दरमियान उन्होंने अदब से कभी नाता नहीं तोड़ा। अपने मिज़ाज के मुताबिक इंक़लाबी नज्में लिखते रहे। पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी से उनका जुड़ाव रहा। पत्रकारिता की ज़िम्मेदारियां बढ़ीं, तो अख़तर पयामी की अदबी तख़्लीक़ कम हो गई। इधर पाकिस्तान की सियासत पर फ़ौजी हुकूमत के इक़्तिदार ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उदारवादी और वामपंथी ख़याल के लोग हाशिये पर चले गए। जम्हूरियत ख़तरे में पड़ गई। ख़ास तौर से पूर्वी पाकिस्तान में सियासत तेज़ी से बदल रही थी।

साल 1971 में पाकिस्तान से टूटकर बांग्लादेश आज़ाद हुआ। ग़ैर-जम्हूरी ताक़तों से ज़िंदगी की आख़िरी जंग लड़ने के हौसलों के साथ अख़तर पयामी ने कराची का रुख़ कर लिया। पहले ‘मार्निंग न्यूज’ और उसके बाद वे मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार ‘डॉन’ से जुड़ गए। अख़तर पयामी ‘डॉन’ के एडिटोरियल डिपार्टमेंट में थे। सहाफ़त की दुनिया में उन्हें खू़ब शोहरत मिली, लेकिन पाकिस्तानी अदब में उनका जो मर्तबा होना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला। न ही पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें किसी बड़े सम्मान या पुरस्कार के क़ाबिल समझा।

अख़तर पयामी पाकिस्तान में ज़रूर रहे, मगर अपने मादरी वतन हिंदोस्तान को कभी नहीं भूले। वह हमेशा उनकी यादों में रहा। ख़ास तौर पर मुकद्दस दरिया गंगा से उनका गहरा लगाव था। पाकिस्तान में भी गंगा उनके ख़यालों और ख़्वाबों में आती रही। नज़्म ‘गंग-व-जमन’ में उनकी कैफ़ियत है, ‘‘यक-ब-यक रात की ख़ामोशी में/जु़ल्मतों की नक़ाब ओढ़े हुए/रूह-ए-गंग-व-जमन चली आई/….इक नये देस को सिधारे हो/तुम जहां भी रहो हमारे हो/मैं कली की क़बा में आऊंगी/इत्र बन कर फ़िज़ा में छाऊंगी/फ़िक्र की खि़ल्वतों में आऊंगी/ग़म के साए में गुनगुनाऊंगी/नज़्म की रूह बन के आऊंगी।’’ वहीं अपनी एक दूसरी नज़्म ‘कुछ ऐसे दिन भी गुज़र चुके हैं’ में वे गंगा को याद करते हुए कहते हैं, ‘‘कुछ ऐसे दिन भी गुज़र चुके हैं/कि जिनकी यादों के ज़ख़्म अब तक भरे नहीं हैं/मैं सोचता हूं कि बूढ़ी गंगा के आईने में/जमाल-ए-गंग-व-जमन मिलेगा/ग़ज़ाल (हिरन का बच्चा)-ए-वहशी न मुज़्तरिब (व्याकुल) हो/कहीं तो बू-ए-चमन मिलेगी/कहीं तो रंग-ए-खुतन (कस्तूरी) मिलेगा।’’

अफ़साना निगार सुहैल अज़ीमाबादी, अख़तर पयामी के गहरे दोस्त थे। उनका कहना था, आपसी ख़तों और बातचीत में अक्सर वे भारत को याद करते रहते थे। अख़तर पयामी, भारत लौटना चाहते थे, पर ये मुमकिन न हो पाया। उनकी कई नज़्मों में भी वतन की याद शामिल है। अपने मादरे वतन को शिद्दत से याद करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘तुझे कुछ इसकी ख़बर भी है ऐ निगार-ए-वतन/तेरे लिए कोई सीना फ़िगार है अब भी/….वो एक लम्हा तेरे ग़म में जो गुज़ारा था/सुकून-ए-ख़ातिर बे’इख़्तियार है अब भी।’’ (नज़्म-‘ऐ निगार-ए-वतन’)

अख़तर पयामी अपनी शायरी की इब्तिदा से ही तरक़्क़ीपसंद तहरीक से बावस्ता रहे। उनके कलाम का अगर बारीकी से मुताअला करें, तो तरक़्क़ीपसंद तहरीक का पूरा दौर जीता-जागता महसूस होता है। उन्होंने अदब को हमेशा बेहतर इंसानी ज़िंदगी की जद्दोजहद के लिए एक जमालियाती और तहज़ीबी वसीला समझा। अख़तर पयामी की एक नहीं, बल्कि कई नज़्मों में यह ख़याल पूरी तरह से पैबस्त है।

मिसाल के तौर पर नज़्म ‘हम लोग’ में वे ऐलानिया तौर पर ये कहते हैं, ‘‘मौजा-ए-नूर हैं, जुल्मत में रवां हैं हम लोग/कितने अनजान सफ़ीनों की ज़बां हैं हम लोग/फैल जाते हैं बहर और उजाला बनकर/कभी खुर्शीद, कभी कहकशां हैं हम लोग/…..रू-ए-तारीख़ है, फ़र्दा की जबीं हैं हम लोग/दौलते किस्मत-ए-इंसां के अमीं हैं हम लोग/और होंगे रसन-व-दार से डरने वाले/इतनी आसानी से मरने के नहीं हैं हम लोग।’’ (नज़्म-‘हम लोग’) अख़तर पयामी ने कम लिखा, मगर मानीखे़ज़ लिखा। उनकी ग़ज़लें हो या फिर नज़्में उनमें तरक़्क़ीपसंद रुझान वाज़ेह तौर पर नज़र आते हैं। सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने की सलाहियत उनमें औरों से कहीं ज़्यादा थी। सच बात को कहने से वे कभी नहीं हिचकिचाए। उनके दौर-दौरां में पाकिस्तान के अंदर ज़्यादातर समय फ़ौजी हुकूमत रही। फ़ौजी हुकूमत के दरमियान लोकतांत्रिक अधिकार स्थगित हो जाते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे लग जाते हैं।

यही वह दौर होता है, जिसमें एक सच्चे अदीब-फ़नकार की शिनाख़्त होती है। ऐसे माहौल में भी अख़तर पयामी सत्ता के ख़िलाफ़ ख़म ठोककर खड़े रहे। उनकी नज़्मों ने हुक़्मरानों से ललकार कर कहा, ‘‘तुम मेरे पांव में ज़ंजीर पहना सकते हो/तुम मेरी फ़िक्र की परवाज़ कहां रोकोगे/मुंतशिर (बिखरे) है मेरे नग़मे भी शरारे की तरह/मेरी चौंकी हुई आवाज़ कहां रोकोगे/……वक़्त की बात है ये वक़्त बदल जाएगा/कल न तुम होगे न ये जब्र-व-तशद्दुद (हिंसा) का निज़ाम/कल तो उभरेगी उफ़क़ (क्षितिज की सुख़ीर्) पर नए सूरज की किरण/कब तलक सुब्ह को मुट्ठी में छुपाएगी ये शाम।’’ (नज्म-‘मुजरिम’)

‘मेरा सफ़र तवील है’, अख़तर पयामी का अदबी शाहकार है। यह तवील नज़्म उन्होंने बीसवीं सदी के पांचवे दशक में लिखी थी। जिस समय पयामी ने ये नज़्म लिखी, तब उनकी उम्र महज अठारह-उन्नीस साल ही थी। उस वक़्त ये नज़्म जब रेडियो से प्रसारित हुई, तो अख़तर उरैनवी और जमील मज़हरी जैसे बड़े फ़नकारों ने इसे उर्दू की मौनुमेंटल रचना बतलाते हुए तस्लीम किया कि विषय-वस्तु और शिल्प के लिहाज से उर्दू में ऐसी कामयाब नज़्में नहीं के बराबर है।

तंक़ीद निगार अख़तर पयामी की इस नज़्म को अली सरदार जाफ़री की नज़्म ‘नई दुनिया को सलाम’ और साहिर लुधियानवी की ‘परछाइयां’ सफ़ में रखते हैं। इस नज़्म की तारीफ़ में शायर-तख़्लीककार-एडिटर जाबिर हुसेन ने लिखा है, ‘‘अख़तर पयामी की यह नज़्म ड्रामाई शायरी की बेहतरीन मिसाल है। इस नज़्म में पयामी ने बड़े कलात्मक अंदाज़ में इंसानी अज़मत और ज़िंदगी की आदर्श सच्चाईयों पर रौशनी डाली है। नज़्म के केन्द्र में इंसानी ज़िंदगी के जो खूबसूरत राग अलापे गए हैं, वो इसे दुनिया की तमाम ज़बानों की बड़ी शायरी में शुमार करने को काफ़ी है।’’

(नज़्म-‘मेरा सफ़र तवील है’) खु़द अख़तर पयामी ने इस नज़्म की ख़ुसूसियत को कुछ इस तरह से बयां किया है, ‘‘आदम और हव्वा का फ़िसाना महज़ दास्तान-गोई हो या न हो, मुझे इससे सरोकार नहीं है। लेकिन मज़हबी तारीख़ का यह वरक़ इंसान के इमकानात (संभावनाओं) पर रौशनी ज़रूर डालता है।….. मैंने इस तवील तमसीली नज़्म (लंबी बिंबों-भरी कविता) में इन्हीं हक़ायक़ (सच्चाइयों) के चेहरे से नक़ाब उठाने की कोशिश की है।’’ (एतराफ़-किताब ‘मेरा सफ़र तवील है’) बहरहाल, इस लंबी नज़्म के इख्तिताम में आदम और हव्वा दोनों कहते हैं, ‘‘अगर ये है जहाने तू, तो ऐ खु़दा-ए-दो जहां/हम इस ज़मीं पे अपनी फ़िक्ऱ के दीये जलाएंगे।’’ आदम और हव्वा के साथ खेत, कारख़ाना, बिजली और ज़िंदगी भी कोरस में शामिल हो जाते हैं-‘‘हर एक गोशा-ए-ज़मीं को हम जिनां बनाएंगे/कली-कली को राज़दान-ए-गुलसितां बनाएंगे/ज़मीं की ख़ाक से हसीन कहकशां बनाएंगे/तुयूर को भी कुदसियों का हम-ज़बां बनाएंगे/अब इस ज़मीं पे अज़्म के चिराग़ झिलमिलाएंगे।’’

कुछ ज़िंदगी की जद्दोजहद, कुछ सहाफ़त की मजबूरियां थीं कि अख़तर पयामी की किताबें सही समय पर मंज़रे आम पर नहीं आ पाईं। भारत में अख़तर पयामी के छोटे भाई जाबिर हुसेन की कोशिशों से साल 1996 में उनकी पहली किताब ‘तारीख़’ प्रकाशित हुई। इस किताब में पयामी की दस्तावेजी ड्रामाई नज़्म ‘तारीख़’ भी शामिल है।

साल 1999 में उर्दू मरकज़ अज़ीमाबाद से उनकी नज़्मों का दूसरी किताब ‘कलस’ शाया हुई। ज़ाहिर है कि इन दोनों किताबों से उर्दू की नई पीढ़ी, अख़तर पयामी की शायरी से वाकिफ़ हुई। उन्हें यह एहसास हुआ कि वे किस पाए के शायर थे। एक लंबी मुद्दत के बाद साल 2004 में कराची से उनकी किताब ‘आईनाख़ाने’ प्रकाशित हुई। इस किताब में अख़तर पयामी की नज़्में संकलित हैं। साल 2015 में उनकी पहली किताब हिंदी में आई। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब ‘मेरा सफ़र तवील है’ में अख़तर पयामी की चुनिंदा नज़्में संकलित हैं। जिसका संपादन जाबिर हुसेन ने किया है।

किताब में उनकी दीगर नज़्मों के अलावा दस्तावेजी ड्रामाई नज़्म ‘तारीख़’ भी शामिल है। अख़तर पयामी ने हालांकि खू़ब लिखा, लेकिन वे उसे संभाल कर नहीं रख पाये। अब भी उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा हिन्द-पाक की उस दौर की कुछ मशहूर मैगज़ीनों में गुम है। शायरी के अलावा अख़तर पयामी ने तंकीद निगारी भी की और अख़बारों में कॉलम लिखे। लेकिन ये किताब की शक्ल में नहीं आ पाये। यही नहीं पार्टिशन के तज़रबात पर भी उन्होंने एक लंबा आर्टिकल लिखा, जो काफ़ी चर्चा में रहा।

अख़तर पयामी जब तलक ज़िंदा रहे, हिंद-पाक रिश्तों की बेहतरी के लिए कोशां रहे। इसके लिए उन्होंने जी-जान से कोशिशें कीं। साल 2003 में वे आखि़री बार हिंदुस्तान आए। इस यात्रा में वे अपने जन्मस्थान ‘गया’ जाना नहीं भूले। रिश्तेदार, दोस्त-अहबाब, शायर-अदीब और पत्रकारों आदि सभी से दिल खोलकर मिले। अपने वतन से वे कितनी मुहब्बत करते थे, उसे एक क़तआत में ढालते हुए उन्होंने कहा, ‘‘क़िस्सा-ए-काकुल-व-रुख़सार लिये आया हूं/इश्क़ की गर्मी-ए-बाज़ार लिये आया हूं/मुझको सीने से लगा ले मेरे महबूब वतन/अपना टूटा हुआ पिंदार (आईना) लिये आया हूं।’’

अपनी इस यात्रा में भी उन्होंने लोगों को जोड़ने का काम किया। उनको अमन और भाईचारे का पैग़ाम दिया। पटना में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मैं उन लाखों इंसानों की तरह हूं, जिन्हें ज़िंदगी ने बहुत दुख दिये हैं। मगर मैं मायूस नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि इस बर्रे सग़ीर के लोग बेहतर ज़िंदगी गुज़ारने के क़ाबिल हो सकें। और ये उसी वक़्त मुमकिन है, जब यहां अमन हो, मुहब्बत हो और एक दूसरे के लिए हमदर्दी का जज़्बा हो। ये सियासतदानों का काम नहीं है। उनकी अपनी मसलेहतें होती हैं, और यह ज़रूरी नहीं है कि उनकी मसलेहतें आम इंसानों के मफ़ाद के लिए हों। आइए, हम और आप एक नई ज़िंदगी की तामीर में हिस्सा लें और एक ऐसी दुनिया तख़लीक करें, जहां सियासत की रेशादवानियां न हों, और अमन-व-आशती (शांति और भाईचारे) की फ़िज़ा क़ायम हो।’’ 8 अप्रैल, 2013 को, कराची में अख़तर पयामी का निधन हो गया। ‘‘हर तरफ़ मौत का अंधेरा है/हम तुम्हें अब कहां तलाश करें।’’

(ज़ाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश के शिवपुरी में रहते हैं।)

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