Friday, April 19, 2024

राहुल बनाम मोदीः सच बनाम झूठ की लड़ाई

राहुल गांधी के बारे में लिखना-बोलना एक कठिन काम है। देश की सबसे पुरानी तथा एक महत्वपूर्ण पार्टी के नेता के बारे में अपनी राय व्यक्त करने में हिचक होना खुद ही काफी कुछ बयान करता है। वह यही बताता है कि अपनी बात खुल कर रखने से रोकने के लिए कितनी दिखाई देने वाली तथा दिखाई नहीं देने वाली पाबंदियां हैं। परेशानी की बात यह है कि ये सारी पाबंदियां कानून से बाहर की हैं। माहौल बना दिया गया है कि आप कोई ऐसी बात नहीं रख सकते हैं जो सत्ता में बैठी पार्टी के विचारों से मेल नहीं खाती है। खुद राहुल गांधी को अपनी बात कहने के लिए कितना कुछ झेलना पड़ता है इसका ताजा उदाहरण फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह के निधन पर किया गया उनका ट्वीट है।

उन्होंने इंडिया को अंग्रेजी में ‘‘हर’’ यानि स़्त्री बता कर संबोधित किया है और मिल्खा सिंह को उसका बेटा कहा है। फिर क्या था, लोग उनकी अंग्रेजी का मजाक उड़ाने लगे। आरोप लगाने लगे कि उन्होंने भारत का लिंग ही बदल दिया। इसमें कई लोग ऐसे थे जो भारत को माता नहीं कहने वालों को देशद्रोही बताते रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि लोग भारत को मातृभूमि कहते हैं। मदर इंडिया यानि भारत माता का प्रतीक किसे नहीं मालूम है?

राहुल को मूर्ख सिद्ध करने का एक संगठित अभियान काफी समय से चल रहा है। उनका नाम ही पप्पू हो गया है। इससे यह पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का प्रचार तंत्र कितना मजबूत है। मजेदार यह है कि अर्थशास्त्र, राजनीति के साथ-साथ जीवन से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों पर उनकी बातचीत में कभी ज्ञान की कोई कमी दिखाई नहीं देती। देश में कितने राजनेता हैं जो रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन या नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजित बनर्जी से बहस कर सकते हैं? लेकिन किसी बातचीत में वे अहंकार या ढिठाई दिखाते नजर नहीं आते हैं। वह विनम्रता से सीखते जान पड़ते हैं। यह बताने की कोई जरूरत है, कम से कम भारतीयों को, कि ज्ञान की पहली सीढ़ी है कि आपको लगे कि बहुत कुछ सीखना बाकी है।

राहुल गांधी को अज्ञानी बताने के अभियान से राहुल तथा कांग्रेस को जितना नुकसान पहुंचा है, उससे ज्यादा नुकसान देश के सार्वजनिक जीवन में सहज होकर बहस तथा बातचीत करने की पंरपरा को पहुंचा है। यह परंपरा आजादी के आंदेालन के नायकों ने विकसित की है। सब जानते हैं कि जीवन और दर्शन क्या, किसी तरह का शास़्त्रीय ज्ञान पाने का हक कुछ ही लोगों को था। हालांकि कबीर, रैदास से लेकर अन्य अनेक लोगों ने इसे चुनौती दी, फिर भी हालत में बहुत फर्क नहीं आया है।

आजादी के आंदोलन के नायकों ने राजनीति ही नहीं इतिहास और दर्शन का दरवाजा साधारण लोगों के लिए खोल दिया। स्वामी विवेकानंद, महात्मा फुले से लेकर महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और भगत सिंह तक, सहजता से संवाद करने की एक शानदार पंरपरा बनी। उन्होंने धर्म से लेकर इतिहास के बारे में खुल कर बातचीत की। ऐसे में राहुल जेसे सहजता से बातचीत करने वाले व्यक्ति को को खारिज करना उस खुली बहस को रोकना है जो लोकतंत्र की रीढ़ है।

ज्ञान की बात चल रही है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यान आना स्वाभाविक है क्योंकि राहुल उनके विकल्प हैं और उनकी आपस में तुलना जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में अनेक बार ऐसी गलतियां की हैं जो किसी प्राथमिक स्कूल के छात्र के लिए भी माफी लायक नहीं हैं। प्रधानमंत्री पद पर बैठे आदमी के लिए तो बिल्कुल नहीं। लेकिन मीडिया और बुद्धिजीवियों ने उनकी इन गलतियों पर शायद ही कभी गंभीर बहस की। सबसे दिलचस्प तो मध्य वर्ग की प्रतिक्रिया रही है जो ऐसी गलतियां करने वाले को नायक मानता रहा है। लेकिन मोदी की नायक वाली छवि बनावटी है जिसे बनाने में भाजपा तथा संघ परिवार के अलावा पूरा मीडिया लगा रहा है।

इसमें कई विज्ञापन एजेंसियां लगी हैं जो मोदी के छोटे से छोटे कार्यक्रम को भी एक शो में बदल देती हैं। विदेश यात्राओं, चुनाव प्रचारों और यहां तक कि कोरोना की महामारी के समय उन्होंने प्रचार पाने के सस्ते तरीके अपनाए हैं। दूसरे देश के नेताओं के गले पड़ने तथा कैमरा की ओर अपना चेहरा करने की साफ दिखाई देने वाली कमजोरी के बावजूद उनकी लोकप्रियता में कोई फर्क नहीं आया। गुजरात मॉडल का झूठ भी बाहर आ चुका है। लेकिन देश के बौद्धिक जगत को कोई परेशानी नहीं है। यह सब देश के सांस्कृतिक पतन को ही दिखाता है।

असली बात यह है कि मोदी भूमंडलीकरण वाली दुनिया के नायक हैं। उपभोग की इस दुनिया में असीमित उपभोग लक्ष्य और जीवन एक मनोरंजन है। इसमें नैतिकता कोई मूल्य नहीं है। इसमें झूठ और सच का भेद मिट जाता है। मोदी के जीवन में यह दिखाई देता है। कीमती लिबास और हर लिबास के रंग का चयन लोगों को लुभाने के लिए करना इसी का अंग है। झूठ के इस संसार में भाषा सहज अभिव्यक्ति का वाहक नहीं, हमले का हथियार बन जाती है।

मोदी अपने विरोधियों के खिलाफ जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन उसे लोग बर्दाश्त ही नहीं करते हैं, उसके मजे लेते हैं। उन्होंने सोनिया गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक जिस भाषा का इस्तेमाल किया है, वह निचले दर्जे की है। राहुल इसके ठीक विपरीत हैं। मोदी के लाख उकसावे के बावजूद वह अपने स्तर से नीचे नहीं आए। किसी भी चुनाव को जीतने के लिए उन्होंने ऐसे दांव नहीं आजमाए जो उन्हें अपनी नजरों में गिराए। उनकी भाषा में शालीनता है, एक मिठास भी।

कुछ लोग उनके मंदिर-मंदिर घूमने का उदाहरण दे सकते हैं कि यह एक खुला अवसरवाद और नरम हिंदुत्व है। निश्चित तौर पर यह एक गलत रणनीति है और इससे सेकुलरिज्म को नुकसान पहुंचा है। लेकिन मंदिर में पूजा करते राहुल तथा अयोध्या के मंदिर में दंडवत हो रहे मोदी की तुलना करने पर पता चल जाएगा कि दोनों में क्या फर्क है। मोदी कट्टर हिंदू की छवि बनाना चाहते हैं और राहुल बताना चाहते हैं कि हिंदुओं की धार्मिक परंपरा से उनका विरोध नहीं है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि वह भी उनकी धार्मिक परंपरा के हिस्सा हैं। यह भले ही एक गलत रणनीति है, लेकिन इसकी तुलना धर्म को राजनीतिक हथियार बनाने की मोदी की रणनीति से नहीं हो सकती है।  

दो व्यक्तित्वों का अंतर हमें उस घटना में भी दिखाई पड़ता है जो लोकसभा में हुई थी और राहुल ने मोदी के पास आकर उनसे गले मिल लिया था। मोदी एकदम असहज हो गए थे। वह आदमी जो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगन के पोज कैमरे के सामने देता रहता है, अपने ही देश के एक सांसद के गले मिलने से असहज हो जाता है। इसका मतलब उसके आलिंगन बनावटी हैं, एक अभिनय है। राहुल ने बाद में आंख मारी कि देखो मैंने मोदी को असहज कर दिया। यह एक मासूम व्यवहार का उदाहरण है जो लोगों को बदनाम करने और नीचा दिखाने के संगठित फरेबों से पूरी तरह अलग है।

उनके सहज शिष्टाचार के बारे में एक उल्लेखनीय संस्मरण सीपीएम की पूर्व सांसद सरला माहेश्वरी ने उनके जन्मदिन पर पोस्ट किया हैः
राहुल गांधी से मुलाकात तो बस इतनी कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति की एक मीटिंग में संयोग से हम दोनों उपस्थित थे। मीटिंग में हमने एक-दूसरे को बोलते देखा और सुना था। उसके कुछ दिन बाद एक बार राज्य सभा के सदन से बाहर निकलते हुए मैंने देखा कि शायद राहुल गांधी सामने के द्वार से तेजी से लोकसभा की ओर जा रहे थे। अचानक देखा कि वो लौटकर वापस आए और राज्य सभा के प्रवेश द्वार के सामने मुस्कुराते हुए हाथ हिला रहे हैं। मैंने भी मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया। वे लौट गये !
लेकिन उनका इस तरह लौटकर आना और मुस्कुराना अच्छा लगा ! ये सौजन्य ! ये शिष्टाचार अच्छा लगा ।’’

उनकी विरासत को लेकर लोग सवाल उठाते रहते हैं। लेकिन लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि देश की राजनीति में यह बीमारी आम है और भाजपा समेत देश की तमाम पार्टियां, वाम पार्टियों को छोड़ कर, इसके शिकार हैं। ऐसे में, इस आधार पर राहुल गांधी को किनारे करना बेईमानी है। मोदी भी परिवार को महत्वपूर्ण मानने की भारतीय मानसिकता का इस्तेमाल अपनी छवि बनाने में कर रहे हैं। वह कैमरे की उपस्थिति में ही मां का आशीर्वाद लेते हैं। आजादी की लड़ाई से लेकर आजाद भारत को निर्माण में उनके परिवार का योगदान है। यह उन्हें खारिज करने का आधार कैसे हो सकता है ? अपनी मां के साथ मिल कर राजनीति कर रहे राहुल की नीतियों पर चर्चा होनी चाहिए, न कि उनकी विरासत पर। इस विवाद ने भारतीय राजनीति को मूल सवालों से भटकाया है।

समय आ गया है कि बिना बनावट वाली दुनिया बनाने वालों को हम सामने लाएं। राहुल गांधी जैसे लोग ही ऐसी दुनिया बना सकते हैं। हमने कोरोना काल में देखा कि बनावटी दुनिया बनाने वालों का दिल न तो आक्सीजन के लिए तड़प कर मर गए लोगों से पसीजा और न ही गंगा में तैरती लाशों को देख कर रोया। हमें धूर्तता से चमकती आंखों के जादू से निकल कर राहुल की करुणा से भरी आंखों की ओर देखना चाहिए।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

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