Tuesday, April 16, 2024

बीजापुर में दूसरे दिन भी जारी है सहायक आरक्षकों का आंदोलन

बस्तर। बीजापुर में सहायक आरक्षकों का आंदोलन अभी भी जारी है। बीजापुर पामेड़, कुटरू, फरसेगढ़, मिरतुर समेत करीब 10 थानों से 1000 जवान इस आंदोलन में शामिल हैं। नक्सल मोर्चे पर तैनात ये जवान अलग-अलग मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस बीच इन लोगों ने अपने हथियार भी अपने-अपने थानों में रख दिए हैं।

हालांकि एसपी कमलोचन कश्यप ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। और सहायक आरक्षक अपनी मांगों को लेकर डटे हुए हैं। इस बीच कल भाजपा के पूर्व मंत्री महेश गागड़ा और भाजपा नेता वेंकट गुज्जा उन्हें समर्थन देने पहुंचे थे। लेकिन आंदोलन स्थल पर उन्हें भी जावानों और महिला सहायक आरक्षकों की नाराजगी का सामना करना पड़ा।

सहायक आरक्षक, गोपनीय सैनिक और होम गार्ड्स कर रहे हैं आंदोलन

आंदोलन 8 दिसम्बर से शुरू हुआ था जिसमें बीजापुर के विभिन्न थानों में पदस्थ सहायक आरक्षक के जवान अपने-अपने हथियार अपने थानों में रख दिए थे उसके बाद उन्होंने सड़कों का रुख किया। ये जवान राजधानी रायपुर में आंदोलन कर रहे अपने परिवार के साथ अपने ही पुलिस साथियों के द्वारा किए गए मार पीट और दुर्व्यवहार से बेहद नाराज़ थे और फिर उसी का नतीजा था कि इनका गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा।

6 दिसम्बर को बीजापुर के सहायक आरक्षक, गोपनीय सेना और होम गार्ड्स आदि विभागों में कार्यरत जवानों के परिवार रायपुर राजधानी में वेतन वृद्धि 2800 ग्रेड पर करने और साप्ताहिक अवकाश जैसी विभिन्न मांगों को लेकर राजधानी में प्रदर्शन कर रहे थे। जिनके ऊपर पुलिस ने जमकर लाठिया बरसाईं। इसके चलते ये सभी ज़वान नाराज़ हो गए और फिर उन्होंने अपनी-अपनी सर्विस राइफलों को थानों में जमा कर दिया और उसके बाद एक जगह इकट्ठा होने लगे।

आपको बता दें कि यह सहायक आरक्षक वही ज़वान हैं जो 2005 में नक्सल विरोधी दस्ता सलवा जुडूम में भर्ती होकर अपने-अपने गावों से आऐ थे जिसे बाद में तत्कालीन भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की सरकार ने सलवा जुडूम से एसपीओ नाम दिया था और नक्सल विरोधी अभियानों में इनको शामिल किया था और कुछ वर्ष बाद इनको सहायक आरक्षक बनाकर नक्सल विरोधी दस्ता डीआरजी नाम दिया जिसका मतलब होता है डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड।

और फ़िर ज़मीनी स्तर पर विभिन्न नक्सल ऑपरेशन में इनका इस्तेमाल किया जाने लगा। डीआरजी के कई सफ़ल नक्सल ऑपरेशनों से पुलिस प्रशासन और तत्कालीन सरकार ने खूब वाह वाही बटोरी और वह सुर्खियों में रही। तो वहीं कुछ फ़र्जी मुठभेड़ों जैसे मामलों में विवादित भी रही और विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओ के निशाने में भी रही।

आमतौर पर डीआरजी में स्थानीय आदिवासी युवाओं के आ जाने से राज्य सरकार को माओवादी अभियानों में ज़मीनी स्तर पर सफ़लता मिलने लगी और बस्तर के कुछ इलाकों में बड़े-बड़े नक्सली हमलों की घटनाओं में कमी आने लगी जिसमें इन जैसे सहायक आरक्षकों और गोपनीय सैनिकों का विशेष योगदान था ।

इनके परिजनों का आरोप है कि बस्तर में माओवादियों से जंग सहायक आरक्षक लड़ते हैं और प्रमोशन इनके ऊपर के अधिकारियों को दिया जाता है। और उनकी वेतन वृद्धि कर दी जाती है और इधर विपरीत परिस्थितियों में नक्सलियों से लोहा ले रहे सहायक आरक्षकों को 15000 प्रति माह वेतन दिया जाता है।

आमतौर पर सहायक आरक्षकों में बस्तर के अंदरूनी गाँवों और अतिसंवेदनशील क्षेत्र के अधिकतर स्थानीय आदिवासी युवक हैं जो नक्सली हिंसा से तंग आकर अपने गांव छोड़कर राहत शिविरों में आकर बसने लगे और उसके बाद माओवादियों के डर से अपने गांव वापस नहीं गए और राहत शिविरों को ही अपना ठिकाना बना लिया। ऐसे राहत शिविर बीजापुर और सुकमा, दंतेवाड़ा, नारायणपुर जैसे जिलों में अब भी हैं जिसमें सलवा जुडूम से सहायक आरक्षक बने जवानों के परिवारजन निवास करते हैं।

छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित जिलों में पदस्थ सहायक आरक्षकों को 15,000 गोपनीय सैनिकों को 12,000 होम गार्ड में कार्यरत महिला और पुरूष सैनिकों को प्रति माह 13,000 वेतन राज्य सरकार द्वारा दिया जाता है। जिसका विरोध इनके परिवारजन कर रहे हैं। और इसी को लेकर रायपुर में आंदोलनरत हैं। लेकिन इनके आंदोलनकारी परिजनों को न केवल पुलिस रायपुर के पहले ही रोक लिया बल्कि उसके साथ दुर्व्यवहार भी किया।

(बस्तर से जनचौक संवाददाता रिकेश्वर राना की रिपोर्ट।)

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